भुवन पंत
मंजिलें जितनी आकर्षक लगती हैं, राहें उतनी आसान हुआ नहीं करती । पग-पग पर रूकावटें, चुनौतियां , इनसे खुद ही जूझना होता है, कठिनाइयों के बीच आत्मालाप होता है और फिर संकल्प के प्रति दृढ आस्था, उसे मुकाम की ओर बढ़ने को प्रेरित करती है । सुदूर ग्रामीण क्षेत्र से आये हुए एक मासूम अनगढ़ युवक को जब एक नये समाज, नये परिवेश में तथाकथित सभ्यसमाज के तौरतरीकों से दो-चार होना पड़े , तो बरबस अतीत के उसी परिवेश में लौटने को विवश करती है, लेकिन दूसरी ओर कुछ कर गुजरने की चाहत और मॉ-बाप की नसीहते, उसे आगे बढ़ने को झकझोरती है । इसी कशमकश के बीच, जब वह जिन्दगी की तपिश झेलते हुए लक्ष्य की ओर निरन्तर आगे बढ़ता है ,तो समाज के लिए वह प्रेरणा बन जाता है । ऐसे ही पथरीले रास्तों से नैनीताल के सूदूर ग्रामीण अंचल कालाआगर, जहॉ छह दशक पूर्व मोटर रोड तक पहंुचने के लिए भी मीलों पैदल चलना पड़ता, वहॉ का एक जुनूनी नवयुवक नैनीताल में उच्च शिक्षा के लिए आता है, तो उसे नैनीताल शहर एक मायानगरी से कम नहीं लगता। लेकिन अपना गांव छोड़ने का दर्द उसे सदैव कचोटता रहता है । आज उम्र के इस पड़ाव पर जब वह एक चर्चित विज्ञान कथाकार , साहित्य अकादेमी पुरस्कार सहित कई प्रतिष्ठित साहित्य पुरस्कारों से पुरस्कृत और 30 से भी अधिक पुस्तकें लिख चुका है , उसे अतीत अपनी ओर बुलाता है, तो वह 60 साल पुरानी अपनी स्मृतियों को संजोकर पुस्तक लिख डालता है । बात हो रही है विज्ञान कथा लेखक देवेद्र मेवाड़ी की आत्मकथात्मक संस्मरण पर आधारित पुस्तक ’’ छूटा पीछे पहाड़ ’’ की ।
इसी वर्ष संभावना प्रकाशन मेरठ से प्रकाशित लेखक की पुस्तक ’’ छूटा पीछे पहाड़’’ लेखक की संघर्षयात्रा का एक जीवन्त दस्तावेज है । उच्च शिक्षा के लिए अपने गांव से नैनीताल और फिर करियर की तलाश में विभिन्न शहरों को प्रस्थान, दर-दर की ठोकरें , जिन्दगी के खट्टे-मीठे अनुभव , कहीं प्यार कहीं दुत्कार और कहीं व्यवस्था की मार झेलते, लेखक ने भले पहाड़ छोड ़दिया हो , लेकिन पहाड़ कब लेखक से रिश्ता तोड़ने वाला । वह तो साये की तरह उसके साथ चलता रहा है, चाहे पूसा इन्स्टीट्यूट दिल्ली हो अथवा पन्तनगर विश्वविद्यालय , गोधरा में बिताये दिन हों अथवा हैदराबाद में बीता समय, मन में तो वही पहाड़, वही गांव और वही अपना परिवेश उमडता़-घुमड़ता रहा । आज उम्र के 78वें बसन्त पर भी पहाड़, लेखक के अन्दर बिल्कुल वैसा ही रचा बसा है, जैसा बचपन में भोगा ।
’’ मैं जब अकेला होता, ऑखें मॅूदकर इस तरह कल्पना के पंखो पर उड़ने का अभ्यास करता । सोने से पहले तो मैंने धीरे-धीरे इस तरह उड़ने की आदत ही बना ली । मैं उड़ता और पहाड़ जाकर आकाश से अपने नीचे अपने गांव की ओर झांकता , घर और खेतों को देखता, अपने गांव के सिरमौर धूरे के जंगल को निहारता । लौटते हुए आसपास के गांवों, पहाड़ों की चोटियों को पार कर भीमताल और नैनीताल की डबाडब भरी झीलों को देखते हुए वापस लौटता । ’’ (पृष्ठ 120)
पहाड़ की मधुर यादों के साथ जिन्दगी के विभिन्न सोपानों में भोगे अतीत को ’’ छूटा पीछे पहाड़’’ मैं लेखक ने बहुत शिद्दत और जिस रोचकता से पिरोया है कि एक बार पुस्तक खोलने पर, हर प्रसंग को पढ़ने को बरबस अंगुलिया खुद-ब-खुद पन्ने पलटती जाती हैं और लेखक के अतीत में आप स्वयं को भी उसी में शामिल पाते हैं । वर्ष 2013 में लेखक के प्रारंभिक जीवन के संस्मरण पर आधारित पुस्तक’’ मेरी यादों का पहाड़’’, जिसे पाठकों का बेशुमार प्यार मिला, उसी से प्रेरित होकर इसे उसी पुस्तक का दूसरा भाग कहें तो ज्यादा उपयुक्त होगा, जो पिछली पुस्तक के घटनाक्रम को आगे बढ़ाते हुए उच्च शिक्षा, नौकरी तथा साहित्य यात्रा की कई दिलचस्प प्रसंगों को समाहित किये हैं । किस्सागो में देवेन्द्र मेवाड़ी जी की ऐसी पकड़ है कि लगता है , यह सब कुुछ मेरे ही सामने घटित हो रहा है । यत्र-तत्र संवाद शैली में कहे गये संवाद, बिना भाषाई लाग-लपेट के उसी लहजे और शब्दावली में जैसे असल जिन्दगी में वे संवाद करते हैं । अगर आपने लेखक को असल में अथवा वर्चुअल में कभी सुना हो तो लेखक का वही चेहरा व भाव भंगिमा उभरकर आ जाती है । जब छात्रजीवन में नैनीताल में साथ के रूम पार्टनर ने कमरा छोड़ने को कहा तो परस्पर संवादों की एक बानगी देखिये –
’’ मैने कहा – ’’ डेरा बदल रहा हॅॅू ’’
’’ क्यों ?’’
’’ आप ही ने तो कहा था, छुट्टियों के बाद यहां नही रहने देंगे ।’’
’’चाहो तो कुछ समय और रह सकते हो ’’।
’’ नहीं, अब मुझे नहीं रहना है ।’’(पृष्ठ 28)
अगर आपका नैनीताल शहर से वास्ता रहा है, तो पुस्तक आपको आज से 50-60 साल पुराने नैनीताल व वहॉ के लोगों से रूबरू करायेगी , जब लेखक अपने गांव से उच्च शिक्षा के लिए अपने ददा (बड़े भाई) के साथ नैनीताल पहुंचता है, तो लगता है , एक नई दुनियां में है ।
’’………मालरोड पर लोग आ जा रहे थे और नीचे की रोड पर कभी कोई आदमी घोड़ा दौड़ाता हुआ निकल जाता । मालरोड के किनारे -किनारे मोटे तारों की रैंलिंग झूल रही थी । कहीं कहीं कोई बेंच भी रखी हुई थी । मालरोड पर चिनार के पेड़ों की लम्बी कतारें थी । उनके नीचे भी बैठने के लिए दो-एक बेंचें थी । सामने दो होटल थे – इण्डिया और ऐवरेस्ट । आगे सेन्ट्रल होटल और फिर सड़क से थोड़ा ऊपर ’लक्ष्मी टाकीज’ । अगले मोड़ पर ’ नारायन बुक स्टोर’’, उससे आगे कतार में दुकानें फिर एक चर्च । हम सीधे आगे बढ़ते रहे । मल्लीताल चौराहे के पास पहुंचे । उसके पीछे थोड़ा ऊपर कतार में दुकानें थी । पहले मॉडर्न बुक डिपो , फिर किसी चीनी जूतेसाज की दुकान आगे ’कोहली ब्रदर्स फोटोग्राफर ’ । ददा ने कहा – ’’आओ , यहॉ खिंचा लेते हैं फोटो ।’’ दीवाल पर एक से एक बढ़िया फोटो टंगे थे । मैं तो पहली बार दुकान में फोटो खिंचा रहा था , इसलिए सकपकाया हुआ था । फोटोग्राफर साब ने कहा – ’’ यहॉ भीतर आकर बैठो , इस स्टूल में ।’’ और, फिर फोटो खींच लिया । कैमरा चम्म चमका । उन्हें एडमीशन के बारे में बताया तो बोले – ’’यह फिल्म पूरी होने वाली है । कल दिन में ले लीजिएगा । ’’ वहॉ ददा मुझे मल्लीताल बाजार के पीछे, कतार के आखिरी मकान में ले गये , वह एडवोकेट प्रताप भैया का घर था । ददा ने मुझे उनसे मिलाया । ’’(पृष्ठ 17)
किस्सागो लेखक यदि अपने संस्मरण बेवाकी व साफगोई से व्यक्त करे, तो पाठक को वह हकीकत के और करीब महसूस होती हैं । अक्षरसः होता यह है कि आत्मकथात्मक संस्मरणों में भी प्रायः लेखक अपने उजले पक्ष को आगे करते हुए, स्याह पक्ष को नेपथ्य में धकेल देते हैं । लेकिन लेखक की इस दिलेरी की दाद देनी होगी कि उन्होंने अपनी दीनता, हीनता, नादानी व कमियों को बिना छुपाये,जस का तस पाठकों के सामने परोस दिया है । इससे लेखक के किसी गलत कृत्य/आदत के प्रति नफरत अथवा असहमति का नहीं अपितु श्रद्धा एवं सम्मान का भाव ही उमड़ता है । फिर चाहे मदिरा सेवन की बात हो अथवा उनके पिताजी का गांव से पहली बार पन्तनगर में दीन-दीन अवस्था में आ जाना।
’’ अच्छा , अपनी बीयर खत्म करो । असली मजा तो तीसरी बोतल में आयेगा ।’’ आगे रखी बीयर को देखकर मैंने कहा ।
तभी न जाने क्या हुआ, कैसे हाथ लगा , अचानक भट् की आवाज हुई और हमने देखा , तीसरी बोतल का मजा बुलबुलों व झाग की शक्ल मंे हमारी ऑखों के सामने फर्श पर फैल गया । हमारा सुरूर काफूर और हम दोनों घुटने टेक कर फर्श पर होंठ लगाने को झुके ही थे कि पत्नी ने कीचन से आकर पूछा – ’’ क्या है ?’’ और वहां का दृश्य देखकर बोली – ’’ रूको-रूको ।’’ जब तक हम बीयर चूसने को होंठ नीचे लगाते , वह झाड़ू लेकर आ गई और तीसरी बोतल के फर्श पर पड़े मजे पर झाड़ू फेर दिया । डांट कर बोली -’’ क्या कर रहे हो तुम लोग ? उसमें कांच के टुकड़े भी हैं ।’’(पृष्ठ 189)
’’नगला में मेरे साले पान सिंह की बेकरी थी । वे जगत ’पनदा ’कहलाते थे और सभी छात्रावासोें मे बेकरी का सामान भेजते थे । रिक्शे में नगला की ओर आते पनदा ने सड़क पर चलते पिताजी को पहचान लिया । देखकर वे चौंके- पिताजी के बदन पर एक पुरानी कमीज और घुटनों तक वैसी ही धोती । रूक कर प्रणाम करके पूछा – ’- किलै सौरज्यू यॉ कसिक ?’’ (क्यों सुसुर जी , यहॉ कैसे )।
’’ देबी से मिलने उसके आफिस जा रहा हॅू । अच्छा हआ जमाई तुम मिल गये । तुम्हें पता ही होगा उसका ऑॅिफस ?’’
’’ वह तो पता है, लेकिन ऑॅिॅस क्यों , घर चलिये । उनके क्वार्टर का पता है मुझे । बैठिये रिक्शे में ।’’
’’ नैं-नैं रिक्शे में सिर घूमता है मेरा । पैदल ही चलते हैं ।’’
शाम को घर पहुंचा तो पिताजी से भेंट हुई । बिना खबर किये इस तरह अचानक उन्हें आया देखकर भी आश्चर्य हुआ कि ऐसी दीन-हीन हालत में कैसे आये होंगे । क्या हुआ होगा ? घर की ऐसी हालत तो नहीं है । ’’ ( पृष्ठ 202-203)
साहित्य की कोई भी विधा हो, पाठकों को वही आकर्षित करती है, जिसमें सहज,सरल भाषा और भावों के साथ प्रवाह हो , बोझिल न हो । पढ़ते समय दिल और दिमाग बराबर गति करे, ऐसा न हो भाषा व भाव समझने में दिमाग , दिल से पिछड़ जाय । यह भी कि जिन बातों को हम मामूली या गैरजरूरी समझकर उपेक्षित कर देते हैं , वास्तव में वे ही छोटी-छोटी बातें ही उस माहौल को सजीव करने में मुफीद होती हैं और पाठक के सम्मुख उसका पूर्ण विम्ब उभरकर आ जाता है । लेखक ने ऐसी छोटी-छोटी बातों को बड़ी बारीकी से उकेरकर हर घटना को जीवन्त बना दिया है ।
पुस्तक में आत्मकथात्मक वृतान्त को 211 पृष्ठों में समेटा गया है और 19 उपशीर्षकों के अन्तर्गत संघर्षयात्रा के विभिन्न सोपानों को इस क्रम में संजोया गया है कि एक प्रसंग समाप्त होते ही, लेखक अगले वृतान्त को सुनाने के लिए आतुर दिखते हैं और ’ औं ’ के हुंगुर के साथ संस्मरण पाठक को बांधे रखते हैं । प्रसंग व अन्तर्प्रसंगों के बीच पाठक को कभी वे हंसाते हैं, कभी रूलाते हैं,कभी लेखक के साथ सहानुभति का रिश्ता बन जाता है तो कभी जीवन की दुश्वारियों के बीच पाठक को संघर्षरत रहने को प्रेरित करती हैं । सच कहें, तो यह आत्मकथात्मक संस्मरण एक लघु कहानियों का संग्रह सा प्रतीत होता है, फर्क बस इतना है कि ये गल्प नहीं बल्कि असल जिन्दगी की हकीकत बयां करती दास्तां है । आज से लगभग छः दशक पूर्व की व्यवस्था की खामियों को उजागर करता प्रसंग है , जब लेखक का दो बार वन सेवा के लिए अन्तिम रूप से चयन हो जाने के उपरान्त भी नियुक्ति पत्र की प्रतीक्षा लेखक को आज तक है ।
’’ ………………. हताशा में मुख्य अरण्यपाल, उत्तर प्रदेश को एक लम्बा भावुक पत्र लिखा । लिखा कि मेरी क्या गलती है ? दो बार मेरिट में पास होकर भी मुझे क्यों नहीं बुलाया गया है ? उत्तर प्रदेश के मुख्य अरण्यपाल कोई सोनी जी थे । उन्होनें उत्तर दिया -’’ वन विभाग में मुझे आप जैसे ही युवक चाहिये । आपकी फाइल मैं शासन को भेज रहा हॅू । ’’ फिर भी कोई उत्तर नहीं आया । मुझ गांव के बच्चे की इतनी पहंुच-पहचान थी नहीं कि कुछ और पता लग पाता । ……. खैर, जो हुआ सो हुआ । लेकिन अब क्या करूंगा ? हार तो मानॅूगा नहीं । तू नहीं, तो और सही । दो बार धोखा खा चुका था । कुछ लोगों ने अफसोस जताते हुए कहा भी – आज यदि नेता या ऊॅचा अधिकारी पहचान का होता तो काम बन जाता । ’’ ( पृष्ठ-47-48)
अपने सफर में लेखक हरफनमौला का किरदार निभाने को आतुर दिखता है । विज्ञान के प्रति रूचि और साहित्य के प्रति भी उतना ही रूझान, इन दो परस्पर विपरीत चाहतों के साथ लेखक देश सेवा के जज्बे को लेकर उच्च शिक्षा के दौरान विज्ञान का छात्र होते हुए भी एन0सी0सी0 कैडिट बनता है , तैराकी में भी हाथ आजमाता है और नयी-नयी नौकरी के दौरान महानगर में रहते हुए वहॉ के एटिकेट्स सीखने को जब कोई प्रेरित करता है , तो डांसिंग स्कूल में भी दाखिला ले लेता है । लेकिन डांसिंग स्कूल की हकीकत पता चलते ही इससे तौबा भी कर लेता है ।
’’ मैं वहॉ एक सप्ताह तक डांस सीखने गया था । ’’ मैंने कहा ।
इन्सपैक्टर बोला – ’’ कोई डांस-वांस का स्कूल नहीं । साला भ्रष्टाचार का अड्डा है ।’’…………….खुफिया इन्सपैक्टर ने कहा -’’ साढ़े नौ बजने वाला है । वहॉ सामने देखो । पैसे वाले लोग आने लगे हैं । …………पीछे गली से डांस बालाएं नीचे उतरकर आने लगी हैं । एक कार ने हैड लाइट जलाकर ईशारा किया । वह उसमें बैठकर चली गई । एक और बाला आई, दूसरी कार में बैठकर चली गई । ……………….पत्रकार मित्र से इन्सपैक्टर ने कहा – ’’ देखा , यह है यथार्थ । तुम लेखक लोग यों ही लिख देते हो । बड़ी घिनौनी है यहॉ रात की दुनियां । ’’ (पृष्ठ 112-13)
लेखक के इस सफरनामे में कई विचित्र चरित्र भी प्रवेश करते हैं । इन्हीं में एक है सईद । गोया कि है तो ये लेखक का बचपन का मित्र , लेकिन उसकी अजीबोगरीब हरकतें लेखक के मनोविज्ञान को भी एक अनबूझ पहेली की तरह उलझाकर रख देती हैं ।
’’ हॉ तो, उन्हीं दिनों एक दिन नैनीताल से मेरा दोस्त सईद आ गया । बोला -’’ इलाहाबाद जा रहा था , देवेन ! तुम्हारी याद आई तो पहले दिल्ली चला आया । ……………… मैंने पूसा गेट पर अपने होटल बिष्ट भोजनालय में उसका नाम लिखाकर होटल मालिक देबी सिंह बिष्ट को बता दिया कि आज से मेरा दोस्त भी यहीं खाना खायेगा । इसका हिसाब भी रजिस्टर में मेरे नाम ही चढ़ाना । दोस्त साथ रहने लगा । ………………………..दिन बीतते गये धीरे-धीरे मित्र तल्ख टिप्पणियां करने लगा । उसके बाद उसने मौन धारक कर लिया । एक ही कमरा साथ रहना ,साथ खाना, साथ घूमना, लेकिन कोई बातचीत नहीं । केवल जब सुबह लैब को निकलता तो आवाज आती -’’ सिगरेट के लिए पैसे रख जाना !’’ ………………………. ढेड़ माह बाद मित्र तो एक दिन मेरी ओर देखकर कहा – ’’ अब इलाहाबाद जाना चाहता हॅू , टिकट तो दे ही दोगे ? ’’
मैंने कहा – ’’हॉ , क्यों नहीं कब जाना है ?’’
’’कल’’ उसने कहा ।
…………………अगले दिन रविवार था । उसे लेकर स्टेशन गया । उसके लिए इलाहाबाद का टिकट खरीदा । उसे प्लेटफॉर्म पर छोड़ कर मैं अपने मैं बस से अपने एक साथी के पास लौट आया । ……………….दोपहर का खाना खाकर हम आराम से घूमते घामते घर पहुंचे तो देखा मित्र क्वार्टर के नीचे चहलकदमी करते हुए मेरा इन्तजार कर रहा है । मैंने पूछा -’’ क्यों ट्रेन छूट गयी क्या ?’’
’’ नहीं देवेन , असल में तुम्हारे जाने के बाद मुझे लगा कि नहीं अभी मुझे तुम्हारे पास ही रहना चाहिये और मेरे सामने ही ट्रेन चली गई । ’’………………. उसने मुझे समझाया -’’ देखो देवेन , तुम गलती से यह मत सोचना कि तुमने मेरे लिए लिए कुछ किया । ’’ (पृष्ठ 106,107 व 108)
ऐसे ही कई विचित्र किरदारों के किस्से भी आपको कई मिलेंगे इस किताब में । ऐसे मित्र भी हैं , जो लेखक के लिए तोहफे लाता है और कुछ दिन बाद रात को जब वह लेखक के घर से वापस जाता है, तो दिये गये तोहफे को वापस मांग लेता है , इस तोहफे को लौटाने के लिए लेखक को रात में अपना दफ्तर तक खोलना पड़ता है ।
लेखक नैनीताल को अपनी साहित्यिक यात्रा की प्रथम प्रयोगशाला मानते हैं , जहॉ बटरोही जैसे मित्रों की शागिर्दगी में एक माहौल मिला और नैनीताल से प्रकाशित होने वाले ’’दैनिक पर्वतीय’’ मे अक्सर आना-जाना रहा । संयोगवश दिल्ली प्रवास के दौरान देश के वरिष्ठ साहित्यकार भीष्म साहनी,राजेन्द्र यादव , मनोहर श्याम जोशी ,श्रीमतीकृष्णा सोबती , प्रयाग शुक्ल , शैलेश मटियानी , अजीज मित्र कैलाश साह आदि, ये सूची बड़ी लंबी है । पन्तनगर प्रवास के दौरान गजलकार दुष्यन्त कुमार से मुलाकात व उनके साथ बिताये पलांे की यादों के बहाने, नामचीन साहित्यकार की निजी जिन्दगी में झांकने का मौका भी यह किताब आपको देगी ।
किताब के संबंध में कहने को तो और भी बहुत कुछ है । एक से एक रोचक, प्रेरक व रोमांचक प्रसंग है, जो किताब के साथ ही आप आनन्द ले पायेंगे । यकीन मानिये, एक बार पढ़ने से दिल नहीं भरेगा और कुछ समय बाद इसे दोहराने में भी उतने ही आनन्द की अनुभूति होगी । सहज अन्दाज में रसीली यादों को सहेजने के लिए लेखक के प्रति साधुवाद तो बनता ही है । प्रतीक्षा रहेगी, लेखक की अगली पुस्तक की ।
पुस्तक का नाम ’’ छूटा पीछे पहाड़ ’’
लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी
प्रकाशक संभावना प्रकाशन, रेवती कुॅज हापुड़
प्रथम संस्करण 2022
पृष्ठ संख्या 211
मूल्य 300 रूपये
प्राप्ति स्थान अमेजन इण्डिया ।
One Comment
बटरोही
बहुत सुंदर परिचय दिया है भुवन ने। किताब बेहद पठनीय है। मुझे लिखना है, शायद जल्द ही।