चिपको
प्रभात कुमार उप्रेती
{अपने ढंग के अनोखे लेखक प्रभात कुमार उप्रेती की पिछले दिनों एक महत्वपूर्ण किताब आई है, ‘सियासत-ए-उत्तराखंड’। उसी पुस्तक में से यह लेख हम यहाँ दे रहे हैं। पिछली आधी सदी के उत्तराखंड की राजनीति को गहराई से समझने के लिये यह इस किताब का पढ़ा जाना बेहद जरूरी है। -सम्पादक}
छोटे से अनजाने क्षेत्र में पनपा, प्रतियोगिताओं में पूछा जाने वाला ‘चिपको’ पर्यावरण के नाम पर अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति और इनामात कैसे पा गया और इसका परिणाम सत्ता के इच्छाधारी सांप की तरह जनता को कैसे डँस गया, आइये इसकी जाँच करें।
उत्तराखंडियों की जीवन रेखा जंगल स्वाभाविक रूप से थी। यहां के निवासियों ने जंगलों का प्रबंधन शानदार लट्ठ पंचायत व्यवस्था से किया। पत्रकार दीवान नगरकोटी अपने लेख ‘उत्तराखंड की लट्ठ पंचायतें’ में लिखते हैं- ‘‘ब्रिटिश वन व्यवस्था पारस्परिक प्रबंध के अन्तर्गत ग्रामीण समुदायों के हाथ में रही। इसे लोग विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग नामों से जानते थे। परंतु अपनायी जा रही पद्धतियां लगभग समान थीं। मूलतः वनों की रक्षा हो रही थी। वन लगाने व बचाने के कार्य लोगों में परम्परा व संस्कार के रूप में था। प्रत्येक गांव समुदाय अपने लिए किसी एक प्रजाति, बीज या चौड़ी पत्ते को अपनी बजाणी मानकर लगाते और उनकी रक्षा करते थे।’’ वन गांव की संचायत (सम्पदा) माने जाते थे। वह गांव की भूमि की मिली जुली धरोहर थे। (पहाड़ हिमालय, पेज 260)। अंग्रेजों के समय में यह व्यवस्था जो टूटी फिर राज्य बनने तक अभी तक न जुटी।
चिपको आंदोलन की कहानी पर्यावरण, राजनीति, संस्कृति के संबंधों का दर्शाती है कि कैसे मीडिया, बुद्धिजीवी, राजनीतिज्ञ मिल कर एक सामान्य जंगल हकोहकूक की मांग को पर्यावरण आंदोलन बनाकर इतिहास का सबसे बड़ा झूठ लिख देते हैं। चिपको को राजनीति ने अपने बैंक में लिया और जनता को उसे प्रकृति के साथ जीने के बचे-खुचे अधिकार से कानून वंचित कर दिया।
शक्ति का खेल जब राजनीति में आ जाता है तो इसका सारा ढांचा, इसका सिस्टम जटिल हो जाता है और जिसके लिए यह सिस्टम बना है उसकी पूर्ति वह नहीं करता और कई सिस्टम इस मूल सिस्टम में घुस लेते हैं। प्रतियोगिता में बहुत से सिस्टम धराशायी हो जाते हैं। अगर शरीर के सिस्टम में एक मच्छर या वाइरस का सिस्टम आ जाता हैं तो सारा शरीर ही अझेल हो जाता है।
आजादी के बाद वनों की लूट नये बाजार द्वारा देश के सारे वनवासियों के खिलाफ करायी गयी। एक फौजी रिटायर्ड अफसर कहते हैं- ‘‘नार्थ इस्ट चार खम्भों पर खड़ा है। सरकार, नौकरशाह, पूंजीपति, विद्रोही…. सब गुट सब मौज में हैं। अरुणाचल में इटा नगर में जब मैं गया तो एक शोरूम देख के अचरज में पड़ गया। उसमें इटली का फर्नीचर मिल रहा था। एक छोटा स्टूल पांच हजार, एक कुर्सी तीस हजार। मैंने दुकानदार से पूछा यह बिकता है ? तो वह बोला-आज शाम यह सब खत्म हो जायेगा। कल हवाई जहाज से सारा माल फिर आ जायेगा।’’
ग्लेडसन डुंग डुंग अपने ‘इण्डियन एक्सप्रेस’ के मई 16, 2016 के लेख ‘आस्क नो क्वेशचन्स’ में लिखते हैं कि आदिवासी क्षेत्रों में मैं घूमता हूँ। मैंने पाया राज्य ने आदिवासियों को अविकसित रखने का फैसला किया है। 100 हजार निर्दोष आदिवासी फेक इनकांउटर में मारे गये हैं। 500 महिलाओं का बलात्कार हुआ है। उनकी जमीन को मल्टीनेशनल द्वारा कब्जाने के दौर में 3 लाख आदिवासी 644 गांवों से बेघर हुए हैं। सारे नेहरू के सपनों के प्रोजेक्ट यहां के आदिवासियों के खेतों में बने हैं। 80 प्रतिशत लोग इस राष्ट्र हित में बेघर हुए हैं। आंदोलनों के बाद सरकार ने यह माना है कि फॉरेस्ट राइट एक्ट 2006 के अन्तर्गत आदिवासियों पर अन्याय हुआ है। मार्च 2016 तक मिनिस्ट्री ने 3,620 हे. जंगल की जमीन को उद्योग के उद्देश्य से बेदखल किया है। कौन उन्हें बतायेगा कि इकॉलाजी की कीमत पर इकॉनामी नहीं बढ़नी चाहिए ? हर हाल में इंसानियत बची होनी चाहिए।
उत्तराखंड का तापतान प्रकृति के बीच रहने, अधिक आर्थिक असमानता न होने और फौजी पेशे के कारण कूल है। राष्ट्र भक्ति के भाव से माहौल कभी उग्र नहीं हुआ। चीनी हमले के बाद कुछ विकास की मजबूरी ने कुछ विनाश सा किया। बाजार ताकतों का विरोध मुणि-मुणि (थोड़ा-थोड़ा) अहिंसक तरीकों से तो हुआ। जैसे पैप्सी कोला, जो करोड़ों लीटर आदमी के पीने का पानी पी जाता है उसका विरोध विकासनगर में हुआ।
स्टार पेपरमिल्स, बाजोरिया जैसी ताकतों ने यहां जंगल लूटे। हमारे जो भ्रम थे आजादी और विकास के, वह हौले-हौले टूटे।
इस सारे सीन में विश्व पटल पर जब सारे ध्रुवों की बर्फ पिघलने लगी, ओजोन लेयर में छेद होने लग गया, सागर गंदगी से पटने लगे तो विकसित राष्ट्रों को हुआ- ‘‘अरे ये क्या हुआ! क्यों हुआ ?’’ तो उन्होंने विकासशील राष्ट्रों (जिनके कारण वह विकसित बने थे ) से कहा, ‘‘इसका कारण तुम हो। इसलिए पर्यावरण बर्बाद करने का जिम्मा तुम्हारा, तुम इसकी भरपाई करो।’’ इस चिंता को हमारी सरकार ने हम उत्तराखंडियों पर लाद दिया, सारा जंगल कानून से बांध दिया। यह राजनैतिक ट्रांसफर सापेक्षिक रूप से मजबूत से कमजोर को होता रहता है। यानी एक अपनी प्राकृतिक सम्पदा का उपभोग मौज से करे और अगला इसकी भरपाई को कमजोर से वसूल करे।
विकास के पीछे पूंजीवादी उपभोग है। उपभोग होगा तो प्रकृति खुदेगी, दुनिया बर्बादी की ओर बढ़ेगी। कमी होगी तो बाजार को भी संकट है, इसलिए इस संकट को आम आदमी के उपभोग से कटौती की जाती है, सब्सिडी पूंजीपति को दी जाती है।
देव भूमि-देव भूमि कह हमें भांग के पेड़ चढ़ा दिया गया। गंगा, यमुना, बद्रीनाथ का यह क्षेत्र आबाद से बर्बाद करा दिया गया।
टिहरी रियासत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी उत्तरकाशी के रामचंद्र उनियाल जी ने मुझे बतलाया कि जंगल के लिए जनता और प्रशासन के बीच हमेशा टकराव रहा। एक के लिए अस्तित्व का सवाल था तो एक के लिए रेवेन्यू और कमाने का साधन था। उनकी टिहरी, उत्तरकाशी जिलों की वनसंबंधी समस्याओं की 31 जनवरी 1975 की रिपोर्ट का सारांश है कि जनता और वन विभाग के संबंध आजादी के बाद नहीं सुधारे गये। वन समस्या का एक ही समाधान है कि वनों के अधिकार जनता को जिम्मेदारी के साथ सौंप कर इसे स्वरोजगार से जोड़ा जाये। वन उपज में गांव वालों को सांझा हक दिया जाये। वनश्रमिकों की दशा सुधारी जाये। गांववासियों को वन उपज से लघु उद्योग बनाये जायें। चीड़ के लीसा दोहन पर रोक लगायी जाये। इस प्रदेश की खेती सारे भारत में अपने उपजाऊपन से नाम कमा चुकी है। पर अब उसकी उर्वरकता कम होती जा रही है। उसमें फॉस्फोरस की कमी नजर आयी। इसमें यह भी दर्शाया है कि रवाँई के आम आदमी को जंगल का हक न देने से राजा के कर्मचारियों ने तिलाड़ी कांड कर कितने ही लोग गोली से मार दिये और उस क्षेत्र की रीढ़ तोड़ दी गयी। जब रवाँई वाले राजा के वन विभाग से अपनी मांगों के लिए मिले तो कहा गया कि तुम्हारी गाय-बच्छियों के लिए सरकार नुकसान नहीं उठा सकती। जाओ उन्हें पहाड़ से नीचे गिरा दो या कसाइयों को दे दो।
आज भी वन विदोहन का पूरा लाभ ठेकेदार लेता है और मूल निवासियों को उनकी जरूरत के मुताबिक भी वन उपज नहीं मिलती। जनता से प्रश्नावली से जो प्रश्न पूछे गये उस पर रिपोर्ट कहती है कि गांव वालों को उनके परम्परागत हक जंगल के दिये जायें, नया वन प्रबंधन किया जाये, जिसमें वन से संबंधित सभी व्यक्तियों की भागेदारी हो। जन, प्रशासन, विकास के बीच संतुलन जब तक न होगा, खतरा बना रहेगा। न विकास होगा, न पर्यावरण बचेगा। ‘आप डूबे बामना ले डूबे जजमान’ का सत्य इस दुनिया के बचे रहने, खत्म होने का सच है।
उत्तराखंड हो या दुनिया कोई भी जंगल, स्थानीय आम जन ने कभी पर्यावरण को लेकर आंदोलन नहीं किया। न किसी को इसकी फुर्सत थी, न वह पागल थे कि जंगल रहते ‘पर्यावरण खराब है’ कह कर आंदोलन करते। पर्यावरण चालाक पॉलीटिकल शब्द है। अपनी ऐयाशी को बोझ दूसरे पर उडेल देना।
अंग्रेजों ने जनता, जो जंगल से ही अपनी जिंदगी जीती थी, को उससे ही वंचित कर दिया। तब हुआ कि ‘मैं नहीं तो तू नहीं’ के अंदाज में खांडव वन की तरह जंगह जला दिये। हजारों जीव मारे गये। मैंने बाहर से आये जंगल के ठेकेदारों की लूट के खिलाफ लगभग पचास आंदोलन हक-हकूक के देखे। उत्तरकाशी में 12 दिसम्बर 1972 को
यह आंदोलन कमलाराम नौटियाल ने चलाया। उनके प्रयासों से ही उत्तराखंड वैली ‘रैड वैली’ कहलायी। एक बार उन्हें गुंडा एक्ट में गिरफ्तार करने को पुलिस ने उस छोटे से इलाके में ‘फ्लैग मार्च’ किया। फ्लैग मार्च क्या होता है, दहशत कैसे फैलायी जाती है, यह वहां की जनता ने पहली बार देखा। तब मैंने भी छत से देखा। सत्ता ऐसे ही प्रदर्शन करती है। सुना गया कि कमलाराम जी का एनकाउंटर होने वाला है। दूर-दूर गांव से आये लोगों के नरमुंड ही नरमुंड दिख रहे थे। सत्ता का आतंक, उससे ऊपर जनता का मर मिटने, मुकाबला करने का दम मैंने पहली बार देखा था। पर कमला रात जी का कर्म ‘वन मैन शो’ ही बना रहा।
चिपको कवि घनश्याम सैलानी ने उत्तरकाशी में आंदोलन 15 दिसम्बर 1972 को चलाया। स्वंतत्रता संग्राम सेनानी कुर्मानन्द डिमरी का चमोली में वन आंदालन हुआ तो टिहरी में सुंदरलाल बहुगुणा भी जंगलों को लेकर आंदोलन कर चुके थे। गोपेश्वर में सुदर्शन सिंह कठैत वह व्यक्ति थे, जिन्होंने सीपीएम का आगाज चमोली में किया था और घाट में आपातकाल में वन आंदोलन किया। तब चिपको के दावेदार, सर्वोदयी चुप रहे। यह भी समझने वाली बात है कि सुदर्शन कठैत भी बाद में सर्वोदय खेमे में चले गये। सारे आंदोलनों का सार था, मुझे जीने दो। फिर एक घटना चमोली में घटी। सरकार ने इलाहाबाद की साइमन कम्पनी को अंगू के पेड़ को, जिससे बल्ला बनता था और हल का पाट बनाता था, को तो काटने का ठेका दिया और ग्रामवासियों के उसे काटने पर रोक लगा दी और कहा कि हल पाटा चीड़ के पेड़ से बनाओ जो कि बैल के कंधे को उधेड़ दे। इस बदतमीजी से जनता आक्रोशित हुई और शुरू हुआ परम्परागत हक-हकूक के लिए विश्वविख्यात, कम्पटीशनों में पूछा जाने वाला ‘चिपको आंदोलन’!
इस आंदोलन पर एक हस्तलिखित लेख उसके ही एक एक्टिविस्ट ने दिया। उसका कुछ अंश पेशे खिदमत है- ‘‘पहले समस्या के निराकण के लिए आनन्द सिंह बिष्ट सदस्यों के साथ मुख्यमंत्री, वनमंत्री के पास गये। पर नतीजा जीरो रहा। इस पर 24 अप्रैल 1973 को चमोली में तुंगनाथ के पास मंडल गांव में एक मीटिंग आलमसिंह बिष्ट, प्रधान ग्राम सभा, चमोली की अध्यक्षता में हुई। उद्देश्य तत्काल कटने वाले अंगू को काटने से बचाना था। सुझाव आये की वन विभाग में धरना दिया जाये, लकड़ी भरे ट्रकों के सामने लेटा जाये। बचनलाल जी, मंत्री हरिजन काठ कला उद्योग, मंडल ने कहा अपने पाले-पोसे वनों से अंगू की लकड़ी के अन्य कृषियंत्र एवं स्थानीय कुटीर उद्योगों के लिए कच्चा माल पाना हमारा जन्मसिद्ध अधिकर है। शासन से हम भीख नहीं मांग रहे। आज वन सम्पदा का नीलाम होता जा रहा है। यदि कच्चा माल यहाँ की जनता को नहीं मिलता तो हमें अहिंसक आंदोलन हो या हिंसक मार्ग, मंडल की जनता किसी भी मूल्य पर अंगू के वृक्षों को काटने नहीं देगी।
‘‘यदि पर्वतीय किसानों के बैलों के लिए जुआ नहीं तो खेलकूद कम्पनी को भी अंगू नहीं। जंगल हमारे हैं हम जंगल के हैं।’’
गांव-गांव संदेश पहुंचाया गया। गांव वालों ने कहा कि अगर पेड़ कटे तो हम अंग्वाल डाल देंगे। इस प्रकार यह आंदोलन उत्तरकाशी के तिलाड़ी के वन अधिकारों के लिए टिहरी राज्य के मारे जाने वाने शहीदों की याद व उनकी ललकार के साथ शुरू किया गया। वनाधिकारी से शिष्ट मंडल अपने इस निर्णय के लिये मिला तो उन्होंने यह कटान यहां से स्थगित कर वहां से दूसरी जगह रामपुर फाटा जंगलों से पेड़ काटने का आदेश दिया। 2 मई 1973 से प्रथम चिपको यात्रा प्रारम्भ हुई। 3 मई 1973 को घनश्याम रतूड़ी, उत्तरकाशी, सुंदरलाल बहुगुणा, चमोली के ग्राम प्रधान दिलबर सिंह मजाढ़ी, आनन्द सिंह बिष्ट गोपेश्वर, कुदंन सिंह लाखी, मनवर सिंह, चिरंजीलाल भट्ट के साथ उत्तरकाशी के घनश्याम सैलानी और चमोली के मुरारीलाल के गीतों के साथ गांव-गांव घूमे। सारे प्रचार का मूलाधार ‘जंगल क्षेत्रीय लोगों के लिए’ ही था। उस समय कोई पर्यावरण का नाम तक न जानता था। इसमें मोटा चश्मा पहनने वाले श्री चिरंजी लाल भट्ट ने अपना मोटा चश्मा लगाते, कंधे पर चैलेंजर लेकर गांवों में धूम मचा दी। ढोल दमाऊ से क्षेत्रीय एकांत गूंज गया।
5 मई 1973 के दूसरे आंदोलन में केदारघाटी के रामपुर फाटा की महिलाओं की भागेदारी रही तो 27 दिसम्बर 73 को केदार सिंह जी ने मोर्चा सम्भाला। गोपेश्वर में अनुसूया प्रसाद भट्ट के नेतृत्व में श्रीमती श्यामा देवी, इन्द्रा देवी, पार्वती देवी, जुठली देवी आदि ने नारे गुंजाये। तभी एक सेमीनार में यह खुलासा हुआ कि जिन पेड़ों को, जैसे चमखड़ीक को ग्रामीण व्यर्थ समझते थे, उसके ठूंठ के ठूंठ जंगल में बचे हैं, व्यापारिक नजर में बहुमूल्य हैं। जैसे चमखड़ीक ‘शटल कॉक’ बनाने के काम आता है। इसका भाव 150 रुपये प्रति क्विंटल था, जबकि गेहूं का भाव 100 रुपये प्रति क्विंटल था। फिर जंगल निरीक्षण से पता चला कि सैकड़ों पेड़ों के ठूंठ इस जंगल में हैं और जनता को पता ही नहींं है। गांववासियों को इसके उपयोग की जानकारी ही नहीं थी। वह इन्हें दूषित पेड़ मानते थे। कांचूला लकड़ी भी ऐसी ही थी।
दूसरा आंदोलन केदार घाटी में 5 मई 1973 को उखीमठ क्षेत्र में हुआ। सरकारी परवाने की सूचना दी गयी कि वहां पेड़ कटने वाले हैं। इस पर विकास खंड के कनिष्ठ प्रमुख केदार सिंह की अगवानी में 27 से 29 जून तक केदार क्षेत्र में जनसभाएँ हुईं और नारे लगे। इन आंदोलन की प्रमुख मांग इस तरह थी : (1) वन और वनवासियों को तबाह करने वाली ठेकेदारी एवं नीलामी प्रथा तुरंत समाप्त कर योजना आयोग के निर्देशानुसार वन श्रामिक सहकारी समितियों के माध्यम से वन सम्पदा का उपयोग हो। (2) वन सम्पदा के कच्चे माल का निर्यात वन क्षेत्र से बाहर न हो, इनके ऊपर आधारित छोटे-छोटे उद्योगों के लिए वनवासियों को कच्चा माल व तकनीकी सहायता दी जाये। (3) बढ़ती हुई जनसंख्या के आधार पर ग्रामवासियों के हकों में वृद्धि के लिए नया बन्दोबस्त हो। (4) वनों की तबाही से सूखते जनस्रोतों बहती मट्टी रोकने के लिए वृक्षारोपण हो। (5) वन समस्या एवं वन प्रशासन में वनों की सुरक्षा के लिए वनवासियों को सम्मिलित किया जाये।
इन मांगों में पर्यावरण की कहीं भी छाया तक नहीं थी। सीधे वन ऊपज को पहाड़ के आदमी के रोजगार से जोड़ने की मांग है। चिपको के सर्वोदयियों की चमोली में आरा मशीनें थी। सबसे ज्यादा लीसा उन्हें सप्लाई होता था। यह तो बाहर से आये ठेकेदार की अंदर के ठेकेदार से लड़ाई थी। यह अंदर के ठेकेदार का संकट न होता, तो कभी चिपको न होता।
बाद में यह प्रचार यात्राएँ 25 अक्टूबर 73 को दीपावली के दिन टिहरी नगर में वेदांत संत स्वामी रामतीर्थ की निर्माण स्थली से प्रारम्भ हुइंर्, जिसका प्रारम्भ चिदानन्द स्वामी महाराज, अध्यक्ष जीवन संघ, शिवानन्द आश्रम मुनि की रेती ने किया। उद्देश्य सर्वोदय के परम्परागत लक्ष्य शराब बंदी, ग्राम स्वराज्य, स्त्री जागरण आदि थे, जिसमें चिपको भी समा गया था। कभी-कभी साधु जन भी अपनी आध्यात्मिक खोह से निकल कर गंगा के लिए आते हैं। वह इस बार चिपको लिये आये थे। इस बार आनन्द सिंह बिष्ट, सुंदरलाल बहुगुणा 120 दिन की यात्रा में निकले। बिष्ट जी 12 दिन ही रहे। यह 100 किलोमीटर की यात्रा थी, जिसमें 215 गांवों में 201 सभाएँ हुईं। 200 सर्वोदयियों व सामाजिक कार्यकर्ताओं से संबंध बना। मजदूर सभा भी की गयी। हल्दूखाता कोटद्वार से सरला बहन के जन्मदिन पर 24 सर्वोदयी 6 जून 73 तक यात्रा में रहे। फिर पौड़ी में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को भी 2 अक्टूबर 1973 को ज्ञापन पौड़ी में दिया गया। इससे कुछ वन कानून परिवर्तन किये गये। रिंगाल उद्योग के विकास के लिए गांव वालों को रिंगाल देने, रैणी जोशीमठ में हुए चिपको आंदोलन की समस्याओं के निराकरण के लिए एक उच्चस्तरीय कमेटी का गठन किया गया। रेंगी पेंग से लेकर नन्दप्रयाग तक के वनक्षेत्र में दस साल के लिए कटान बंद इस कमेटी ने कर दिया। टिहरी उत्तरकाशी वन क्षेत्र में उच्च स्तरीय अध्ययन के लिए काम की बात की। पर्वतीय क्षेत्र में स्थापित लीसा इकाइयों को 100 क्विंटल वार्षिक कोटे के बजाय 400 क्विंटल दिये जाने को निर्णय किया गया। स्थानीय उद्योगों व ठेकेदारों के बड़े लॉट के स्थान पर छोटे-छोटे लॉट बना कर विक्रय करना और आपसी समझौते पर जंगल देना और जंगल के वनवृत्तों का स्थानान्तरण भी किया गया। पर यह सारे मामले कुछ समय बाद हवा हो गये। यह बोत्याने (पटाने) भर का खेल था। यह प्रशासन का खेल था, जो योजना बनाता है पर उसे लागू नहीं करता। यथा 1957 की कुजजास की इतनी मेहनत से की गयी रिपोर्ट को लागू करने में हवा कर दिया गया। यह लागू होता तो आज का यह छटपटाहट का दर्द न होता।
एक दिलचस्प वाकया हुआ। आनन्दसिंह बिष्ट बतलाते थे- 1978 में चिपको कार्यकर्ताओं ने एक मोटे वृक्ष के अंदर खोखले (ढोर) के अंदर से एक व्यक्ति के हाथ का चित्र खींचा, जिसमें लिखा कि मुझे मत काटो, चित्र वनाधिकारी के पास आया। उन्होंने झट से उसे लिखा, मैं बहुत बूढ़ा हो चुका हूं। मुझे सड़ने से बचाइये और मेरा उपयोग उद्योगों के लिए कीजिये।’’ उक्त भावना में स्पष्ट है कि वनों की विनाश होने वाली वन सम्पदा का सदुपयोग न करने से बढ़ती हुई बेरोजगारी का बढ़ावा देना और गरीबी की रेखा से नीचे धकेलना है।
इस सुन्दर लेख में सुन्दर लाल जी व चंडी प्रसाद भट्ट जी ने बढ़ते मतभेदों का भी जिक्र हैं। इसमे लिखा है कि चंडीप्रसाद भट्ट जी ने बढ़ती बेरोजगारी के लिए यहां के लोगों को चिरान-गिरान का प्रशिक्षण देने की भी बात की।
लेख में लेखक का नाम गायब है। पर जहां तक मुझे याद है यह प्रमुख चिपको आंदोलनकारी आनन्दसिंह जी का लिखाया लेख है, जिसे उन्होंने मेरे द्वारा साक्षात्कार लेने पर दिया था और कहा था इससे आप इसे समझ जायेंगे। वह चंडीप्रसाद जी के साथ उनके समकक्ष ही थे पर धीरे-धीरे मतभेदों के रहते उनसे विमुख हो गये थे। उन्होंने अपना एनजीओ खोल लिया था। उन्होंने अपने मरते दम तक महत्वपूर्ण कार्य वननिर्माण व राम बांस पर किया था। वह मस्त जीव थे। उनसे तब मैंने साक्षात्कार लिया तो उन्होंने किसी की आलोचना तो नहीं की, पर मुस्कुरा कर कहा- ‘‘गुरु जी! बिना मठाधीश बने इनामात नहीं मिलते। आगे बढ़ने के लिए राजनीति चाहिए। वह हमें कभी आयी नहीं। हम तो पहाड़ के ढाल में अटके ढूंगे हैं। कब जायें पता नहीं। पर इतना जरूर है कि चिपको अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति तो प्राप्त कर गया, इनामात भी दे गया पर अंगू का पेड़ नहीं दे पाया जिसके लिए यह लड़ा गया।’’
नटशैल में यह चिपको की एक सूत्र में कमाल की समीक्षा है। आइये इस कथन की जांच करें।
सियासत-ए-उत्तराखंड / लेखक : प्रभात कुमार उप्रेती / प्रकाशक : समय साक्ष्य, 15 फालतू लाईन, देहरादून 248001 / मूल्य : 350 रु.