इस्लाम हुसैन
बनभूलपरा रेल बनाम बस्ती मामले में यह बात बार कहीं जा रही है कि हल्द्वानी रेलवे स्टेशन और उसके आसपास जमीन न होने/कथित अतिक्रमण होने से हल्द्वानी रेलवे स्टेशन का न तो विस्तार हो पा रहा है और ना ही नई सेवाएं आरंभ हो पा रही हैं।
इस बात को मौजूदा तथ्यों के आधार पर देखा जाए तो पता लगेगा यह एक जुमला है जिसे बस्ती हटाने के बहाने के तौर पर उछाला गया है।
मूल रूप से हल्द्वानी रेलवे का टर्मिनल कभी नहीं रहा, जितनी भी ट्रेनें यहां चली वो हल्द्वानी से 6 किमी दूर काठगोदाम के आखिरी स्टेशन तक या वहां से चली। दूसरा टर्मिनल लालकुआं है और वहां चार रेल लाइन का जंक्शन है। और वहां मौजूदा सुविधाओं से अभी और ट्रेनें चल सकती है। जो कि हल्द्वानी के आसपास और पहाड़ के यात्रियों के लिए ज्यादा सुविधाजनक है।
अभी काठगोदाम से दिल्ली की दो ट्रेन (आजकल एक ट्रेन सप्ताह में तीन/चार दिन चलाईं जा रही है), एक जैसलमेर और हावड़ा तक की दैनिक ट्रेनें हैं, जबकि लखनऊ देहरादून की तीन ट्रेनें सप्ताह में चार/पांच दिन तक है। सप्ताह में एक एक दिन कानपुर जम्मू और बम्बई (सीजनल) के ट्रेनें हैं।
जबकि मुरादाबाद जाने वाली दो पैसेंजर ट्रेनों को कोरोना काल में बंद कर दिया गया था जिनको कोशिश के बाद नहीं चलाया गया है, ऐसा लगता है रेल विभाग दोनों पैसेंजर ट्रेनों को बंद ही कर देगा।
अगर इन ट्रेनों का शेड्यूल और टाइमिंग देखी जाए तो पता लगेगा कि इसी सुविधाओं से अभी कई क्षेत्र में ट्रेनें चलाई जा सकती है। काठगोदाम कुमाऊं क्षेत्र के पर्यटन स्थलों के लिए अन्तिम रेल पहुंच स्टेशन है। पर्यटन सीजन के समय यहां पूरे भारत के लोग आते हैं तो रेलवे प्रशासन नई सेवाएं आरंभ करता है जैसे हाल के वर्षों में हावड़ा और मुम्बई के लिए विशेष ट्रेनें चलाई गईं। आमतौर पर इस तरह की ट्रेनें का संचालन यात्रियों की संख्या/सीजन त्योहार आदि समय पर होता है, और एक खास अवधि के लिए होता है।
काठगोदाम से अभी तक के इतिहास में हावड़ा के लिए एक साप्ताहिक स्पेशल/पूजा ट्रेन चली थी, पिछले साल मुम्बई के लिए भी कुछ दिनों के लिए एक साप्ताहिक ट्रेन चली थी जैसे ही यात्री ट्रैफिक/भीड़ खत्म हुई वैसे ही ट्रेन सेवा बंद कर दी।
इस तरह यहां जितने यात्रियों की संख्या है उसके हिसाब से ट्रेन चल रही है। रेलवे ने इस बारे में खूब सर्वे कराकर देख लिया है। और दूसरे रेलवे कोई ट्रेन आरंभ करने से पहले उसके आर्थिक पक्ष या लाभ हानि को पहले ही देख लेता है। इस बारे में एक दिलचस्प मामला उत्तराखंड बनने से पहले का है, जब उप्र के एक दबंग अफसर के दबाव में शताब्दी जैसी ट्रेन लखनऊ से शुरू करदी, क्योंकि उन साहब को किन्हीं कारणों से नैनीताल आना पड़ता था। रेलवे ने दबाव में ट्रेन तो चला दी लेकिन दो फेरों के बाद बंद कर दी दोनों फेरों में यात्रियों से एक डिब्बा भी नहीं भरा था।
इस तरह अगर देखा जाए तो कोई भी लम्बी दूरी की नई सेवा अधिकतम साप्ताहिक बारम्बारता में ही चल सकती है, जिसके लिए हल्द्वानी होकर काठगोदाम से सेवाएं चल रही हैं और आगे चल सकती हैं। जिसके लिए काठगोदाम में तीन प्लेटफार्म हैं पिट लाइन है लेकिन ऐसा कहा जाता है कि टाइम स्लाट खाली नहीं हैं। हालांकि रेलवे के पक्ष से लगातार कहा जा रहा है कि जगह की कमी से काठगोदाम और हल्द्वानी से अब कोई ट्रेनें नहीं चलाई जा सकती। यह और बात है कि काठगोदाम और हल्द्वानी से अब कहीं अधिक सुविधाजनक लालकुआं में न केवल ज्यादा जगह बल्कि वहां से ज्यादा ट्रेनें चल रही हैं। वैसे भी लालकुआं ट्रेन चलाने और यात्रियों को ट्रेन पकड़ने के लिए ज्यादा उपयुक्त है। ऐसे में जब कि सभी जगह रेलवे सेवाओं का विकेन्द्रीयकरण किया जा रहा हो तब हल्द्वानी में बस्तियां उजाड़कर सुविधाएं या सेवाएं बढ़ाने का आग्रह समझ में नहीं आता।
यह बात भी ध्यान रखने की है कि हल्द्वानी रेलवे स्टेशन के लिए पहुंच मार्ग/सड़क मार्ग बीच बाजार से है जो बहुत संकरा है। चार दशक पहले रेलवे स्टेशन के लिए सीधा रास्ता रेलवे बाजार होकर जाता था। लेकिन उसी दौर में काठगोदाम से आने वाली एक पैसेंजर के हल्द्वानी स्टेशन से पहले गिर जाने (डी रेल हो जाने) के कारण रेलवे स्टेशन के सामने एक बड़ी ठोकर लाइन बनाने के लिए दीवार बना दी गई थी, जिससे अब रेलवे स्टेशन का रास्ता मुड़कर जाता है। जो रास्ता और भी संकरा है जहां अक्सर जाम लगता रहता है। कुमाऊं के शहरों या लालकुआं रूद्रपुर से आने वाले या शहर के ही लोगों को अगर हल्द्वानी बाईपास से होते हुए हल्द्वानी रेलवे स्टेशन आना हो तो उसे पूरी चोरगलिया रोड से होकर और ताज चौराहे से मुड़कर रेलवे बाजार से होते हुए रेलवे स्टेशन आना पड़ेगा। जो किसी भी दृष्टि से एक अच्छा रास्ता नहीं कहा जा सकता। यह बीच बाजार का रास्ता है जहां अक्सर जाम लगा रहता है।
अगर कोई जबरदस्ती ही हल्द्वानी से रेल चलवाना चाहे तो उसकी सूचना के यही बताना काफी होगा कि 2007 में रेलवे ने बहुत हल्ला करवा कर हल्द्वानी रेलवे स्टेशन के आसपास 10 एकड़ जमीन खाली करा ली थी। तब यह कहा गया था कि रेल और रेल यात्रियों व्यापारियों के लिए नई सुविधाएं दी जाएंगी। लेकिन 2007 से 15 साल बीतने के बाद भी खाली कराई गई 10 एकड़ जमीन का उपयोग यात्री सुविधाओं के लिए रेलवे नहीं कर सका। सिवाए स्टेशन के सामने बाउंड्री दीवार खड़ी करने के।
रेलवे ने उस समय कथित अतिक्रमण से खाली कराई गई जमीन का एक जो हैरतअंगेज इस्तेमाल किया है उसे देखकर उन लोगों को मुंह छिपाना पड़ेगा जो टैक्सपेयर्स की गाड़ी कमाई को सरकारी संस्थाओं में लुटाने का रोना करते हैं।
2007 में रेलवे प्रशासन ने हल्द्वानी रेलवे स्टेशन के उत्तर में 300-400 मीटर दूरी पर राजपुरा क्रासिंग के पास रेल लाइन के किनारे कथित अतिक्रमण प्रशासन से हटवाया था, वहां चल रही दूकानें और गरीब लोगों की झोपड़ियां और मकान/दूकान तोड़ डाले थे। उस जमीन पर कहा गया था कि रेल से जाने आने वाले माल को रखने के लिए मालगोदाम बनेगा और व्यापारियों के लिए विश्राम गृह बनेगा। रेलवे ने वहां सालों से चल रही दूकानों को हटाकर जो अपनी हदबंदी की उससे वहां की सड़क ही संकरी हो गई जिससे वहां आएदिन ट्रैफिक की समस्या होती रहती है। रेलवे ने जमीन खाली कराई तो इसमें भी एक खेल हुआ। शहर के जिस बड़े व्यापारी की दूकान उस अतिक्रमण हटाओ अभियान में रेल फाटक के पास से हटाई गई, लेकिन उसी बड़े दूकान/व्यापारी का तुरंत पुनर्वास सड़क के दूसरी ओर रेलवे की जमीन पर ही क्या दिया गया। लेकिन वहां बरसों से छोटे छोटे फड़ दूकान लगाने वाले और रहने वालों का का कोई पुनर्वास हुआ हो ऐसी जानकारी नहीं है।
अब देखिए खाली कराई गई जमीन का क्या हुआ ? रेलवे ट्रैक के पूर्व में जहां से कथित अतिक्रमण हटाया था। वहां रेलवे ने करीब 100- 150 फिट का एकल भवन गुड्स कैरियर/माल परिवहन और व्यापारियों की सुविधा के लिए बनाया, जिसको बनाए हुए सालों बीत चुके हैं, बिल्डिंग में आजतक दरवाजे और खिड़कियां नहीं हैं, पूरी बिल्डिंग की बिना उपयोग के फूटफूट हो चुकी है। बिल्डिंग के खाली कमरे गंदगी से अटे पड़े हैं उनमें आवारा जानवरों का बसेरा बना हुआ है। बिल्डिंग खण्डहर बनने की ओर है। किसी रेल सम्पत्ति के हितैषी को कभी इसकी चिंता नहीं हुई। कमाल की बात यह है कि कुमाऊं के इस क्षेत्र में उद्योग व्यापार बढ़ रहा है लेकिन माल परिवहन की सुविधाएं लालकुआं और रूद्रपुर में सिमट गई हैं।
अगर ईमानदारी से कोशिश की जाती तो जिस जगह लाखों रूपए का बजट नई बिल्डिंग बनाकर उसे खण्डहर बनाकर फूंक दिया गया उसी जमीन में अतिरिक्त लाइनें/पिट लाइनें डालकर और रेलवे स्टेशन के सामने खाली पड़ी जमीन व रेलवे कालोनी को हटाकर स्टेशन के लिए जगह बनाई जा सकती थी।
नई रेल सेवाओं को आरंभ करने में रेलवे की इस समय सबसे बड़ी अखिल भारतीय समस्या स्टाफ की कमी है, जिसपर कोई बोलना नहीं चाहता। काठगोदाम और हल्द्वानी से नई ट्रेनें चलाई जाएं तो उसके लिए अतिरिक्त स्टाफ की ज़रूरत पड़ेगी जो रेलवे के पास नहीं है, बताते हैं कि रेलवे में ख़र्च कम करने के लिए कम से कम स्टाफ से काम चलाया जा रहा है। इसलिए कुमाऊं के लिए ही नहीं पूरे देश में रेल सुविधाओं के न बढ़ाने के पीछे स्टाफ ने बढ़ाने या नई भर्ती न करने का कारण है। इसीलिए रेलों को प्राइवेट कम्पनियों को दिया जा रहा है।
पूरे देश में 2-3 लाख कर्मचारियों के पद खाली पड़े हैं। रोज हजारों ट्रेनें रद्द की जा रही हैं। सबसे बुरा हाल पैसेंजर ट्रेनों का है, जिनके बंद होने से जहां गरीबों कमज़ोर लोगों और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है।
एक बार जब एक रेल यूनियन के नेता के सामने काठगोदाम से नई ट्रेनें न जानने का कारण जानना चाहा तो उन्होंने मुझसे कहा कि रेल स्टाफ की वजह से चलती हैं। नई रेल चलाने के लिए यहां ज़रूरी स्टाफ नहीं है। यह नहीं हो सकता कि स्टाफ को 12-18 घंटे काम लिया जाए।