रमेश कृषक
बागेश्वर जनपद पिछड़ा हुआ जनपद है या उपेक्षित इस पर बहस होनी चाहिए। जब बहस पिछड़े और उपेक्षित शब्दों के बीच होगी तो निश्चित रूप में खनन उद्योग के क्षेत्र में बागेश्वर जनपद किसी भी मोड़ से पिछड़ा जनपद नहीं लगेगा। बागेश्वर जनपद में हाल फिलहाल शॉप स्टोन जिसे खड़िया कहा जाता है कि 12 दर्जन से अधिक खदाने चालू हालत में है, अतिरिक्त इसके बागेश्वर ही वह जनपद भी है जहां की मैग्नोसाइट खदाने भूगर्भ विज्ञान के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचानी जाती है। शॉप स्टोन और मैग्नीसाइट के अलावा बागेश्वर में पुराने जमाने में तंबाखानियों का होना भी माना जाता था। बागेश्वर जनपद की शॉप स्टोन और मैग्नीसाइट खदानों की बागेश्वर के विकास में क्या भूमिका है यह एक ऐसा सवाल है जिसका उत्तर नहीं के अलावा और कुछ नहीं है।
बागेश्वर की खड़िया खदानों से कौन अमीर हो रहा है और कौन गरीब इस पर कभी किसी तरह से चर्चा ना सत्ता की ओर से हुई ना प्रशासन की ओर से हुई और ना ही पंचायती व्यवस्था में हुई। बागेश्वर में स्थापित खनन कारोबार से करीब 20 करोड रूपया सालाना राज्य सरकार को राजस्व जाता है कुछ पैसा जिला पंचायत को भी मिलता है। कुछ वर्ष पूर्व तक खदान कम्पनियां खदान वाले गांवों में विकास व जन सेवा के कार्यों में भी अपने लाभांस का कुछ भाग नियमों के तहत खर्च करती थीं, सरकार द्वारा खनन न्यास बना कर उस मद को अपने कब्जे में कर लिये जाने के बाद गांव का वह कानूनी हिस्सा गोवों से छिन चुका है। राज्य सरकार और जिला पंचायत खनन कारोबार से अर्जित राजस्व को जनपद में किस रूप में और कहां खर्च करती हैं की कोई सांख्यिकी कहीं पर भी सार्वजनिक रूप से मौजूद नहीं है।
यहां यह बता दिया जाना जरूरी है कि बागेश्वर में खड़िया की खदानें उस नाप भूमि में है जो नाप भूमि राजस्व और सांख्यिकी विभाग की संख्या तालिकाओं में कृषि उपज भूमि के रूप में मौजूद है। खाता खतौनियों की यह मौजूदगी यह तो स्पष्ट करती है की नगद मुनाफे के रूप में खेत स्वामियों को वार्षिक रूप से पच्चीस तीस हजार रुपये या कुछ अधिक प्रति नाली के हिसाब से कंपनियां अगर दे भी रही है तो वह उन खेतों को पूरी तरीके से समाप्त करके दे रही हैं जो खेत गांव में कृषि उपज के मुख्य साधन थे और भविष्य में उस भूमि पर नए सिरे से उपज की गुंजाइश न के बराबर ही बचती है। जानकार बताते हैं कि खड़िया खुद जाने के बाद जब इस भूमि का कोई उपयोग नहीं रहेगा तब भूमि के मालिकों के पास जो वार्षिक आय पहुंच रही है यह भी रुक जाएगी। तब आने वाली पीढियों के लिए ना तो कृषि भूमि बचेगी और ना ही कृषि हेतु जल स्रोत ही बचेंगे।
कई संगठनों ने विभिन्न माध्यमों से नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल, पर्यावरण मंत्रालय, राज्य सरकार और तमाम समूह और संगठनों से समय-समय पर निवेदन किया है कि खनन क्षेत्र में खनन की वजह से जो विकार उत्पन्न हो रहे हैं उनकी जांच के लिए कानूनी कमेटी गठित की जाए । संगठनों के निवेदनों पर सरकार या प्रशासन, ग्रीन ट्रिब्यूनल, पर्यावरण मंत्रालय की ओर से इस संबंध में कोई पहल आज तक तो नहीं की है। बागेश्वर जनपद में खड़िया खदान की वजह से कितने जल स्रोत समाप्त हो चुके हैं कितने सदाबहार -गधेरे, छोटी-बड़ी नदियां मलवे से पट गई हैं और कितनी बड़ी नदियां खनन से निकलने वाले मालवे की वजह से प्रभावित हुई है के कोई आंकड़े बागेश्वर के जिले के प्रशासन के पास उपलब्ध नहीं है।
बागेश्वर जनपद में दुग नाकुरी नाम की नई तहसील अर्जित हुई है। इस नई तहसील में जो प्रमुख नदी है वह पुंगर नाम से जानी जाती है। जलागम के हिसाब से पुंगर का जलागम क्षेत्र गरीब 35 से 40 किलोमीटर की लंबाई में फैला हुआ है। बंगार पुगर की एक सहायक नदी है। बंगार नदी लंबाई में बहुत बड़ी नदी नहीं है लेकिन इसका जो मूल का क्षेत्र है वह बागेश्वर की सबसे बड़ी खड़िया खदानों वाला क्षेत्र है। 1980 से पूर्व इस नदी में जितने भी तालाब थे उन तालाबों में से अब एक भी तालाब शेष नहीं बचा है। इस नदी पर पांच घ्राट हमेशा चलते थे। पांच घ्राट हमेशा चलते थे का मतलब है कि यह क्षेत्र कृषि का क्षेत्र था जहां काफी मात्रा में अनाज पैदा होता था। आज की तारीख में यहां कोई घाट सुरक्षित भी है या नहीं इस और किसी का ध्यान नहीं है। बंगार नदी के सदावहार पानी पर कुछ नहरें भी बनी थी। अब कृषि विकास के लिये बनी नहरें नहीं की स्थिति में है। बंगार की भी एक सहायक नदी जुगापानी गधेरा है। ग्राम पंचायत पचार के धारों नौलों के पानी से बनने वाली जुगापानी नदी को एक खदान कम्पनी ने बकायदा सूखा रौला अपने खनन मानचित्र में दर्शाया हुआ है। दो अलग अलग खदानों ने इस नदी को पूरी तरह से पाट तो दिया हैं । पुंगर, कुलूर, भद्रावति, सरयू, जलागम क्षेत्र की नदियों में खनन के मालुवे की वजह से जो पारिस्थितिकी परिवर्तन हुए हैं वह भले ही प्रशासन को ना दिखते हों लेकिन लोगों की शिकायतों में मौजूद है।
विदित रहे की बागेश्वर जनपद में जितना भी खड़िया खनन का क्षेत्र है वह मुख्य रूप से सरयू नदी के जलागम क्षेत्र का भूभाग है। कपकोट में खीर गंगा, असों में निकलने वाला गधेरा, पुगर नदी, कांडा क्षेत्र से आने वाली कुलूर और भद्रवती नदी अपने साथ खड़िया खदानों की जो गाद बहा कर लाती हैं उस गाद को अपनी मुख्य नदी सरयु में विसर्जित कर देती हैं। चौमासे में बाड़ आने पर सरयू नदी का पानी सफेद गाद के रंग में दिखाई देता है जो सीधे-सीधे खड़िया की गाद होती है। कानूनी रूप से भले ही मानसून काल में खड़िया की खदानों में खदान पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा होता है लेकिन मानसून की बरसात खदानों से निकलने वाले अवशेष मालवे को बरसाती पानी के निकास के मार्गो के रास्ते छोटी-बड़ी नदियाँ में पहुंचाने का काम करती है।
खड़िया खनन क्षेत्र में पर्यावरण संरक्षण वन संरक्षण, भूमि संरक्षण, जल संरक्षण के कानून कोई मायने नहीं रखते ऐसी शिकायती आवाजें लगातार उठती रहती हैं लेकिन प्रदेश की विधानसभा में यह आवाज नक्कार खाने में तूती की आवाज बन कर रह जाती है। यहां यह भी बात ही दिया जाना चाहिए की बागेश्वर जनपद की कपकोट और कांडा विधानसभा से विधायक रहे बलवंत सिंह भौर्याल स्वयं खड़िया खदानों के स्वामी रहे हैं तथा वर्तमान विधायक श्री सुरेश गढ़िया भी खड़िया खदानों के स्वामियों और स्वामित्व के करीबी ही माने जाते है।
पुंगर नदी के जलागम क्षेत्र में दर्जनों खड़िया की खानों में खनन चल रहा है। खदानों से खड़िया पत्थर निकालने के बाद शेष बचने वाला अवशेष किसी न किसी रूप में पुंगर नदी में समा रहा है। नदियों, गधेरों बर्षाती रौलों में पहुंच रहे खदानों के मलुवे की वजह से नदी की प्राकृतिक अवस्था पूरी तरह से बर्बाद हो चुकी है। इस खतरनाक स्थिति की ओर विधाइका, कार्यपलिका न्यायपालिका ने ध्यान देना जरूरी नहीं इसमझा है । बागेश्वर में जो खड़िया की खदानें हैं उन खदानों के स्वामियों का लक्ष्य कम से कम समय में अधिक से अधिक दोहन करने का है। अपने इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए खनन स्वामियों द्वारा बड़ी-बड़ी मशीनों का उपयोग भी किया जा रहा है। ग्रामीण बताते हैं कि मशीनों से खड़िया पत्थर की खुदाई का काम होता है लेकिन प्रशासन के लोग अपना बचाव करते हैं कि मशीनों से मालवे को ही हटाया जाता है। अब यहां प्रशासन की बात मानी जाए या गांव वालों की यह हम अपने पाठकों पर छोड़ देते हैं।
बागेश्वर जनपद में वे तरतीब और मनमाने तरीके से किये जा रहे खड़िया खनन का असर अब दिखने लगा है। गांवों में दरारें पढ़ने की शिकायतें आने लगी है, कांडा गांव में के ऐतिहासिक कालिका मंदिर में दरारें पढ़ने और मन्दिर के एक तरफ झुकने की शिकायत भी अभी सार्वजनिक हुइ हैं।
बागेश्वर की खड़िया खदानों से कौन अमीर हो रहा है और कौन गरीब इस पर कभी किसी तरह से चर्चा ना सत्ता की ओर से हुई ना प्रशासन की ओर से हुई और ना ही पंचायती व्यवस्था में हुई। बागेश्वर में स्थापित खनन कारोबार से करीब 20 करोड रूपया सालाना राज्य सरकार को राजस्व जाता है कुछ पैसा जिला पंचायत को भी मिलता है। कुछ वर्ष पूर्व तक खदान कम्पनियां खदान वाले गांवों में विकास व जन सेवा के कार्यों में भी अपने लाभांस का कुछ भाग नियमों के तहत खर्च करती थीं, सरकार द्वारा खनन न्यास बना कर उस मद को अपने कब्जे में कर लिये जाने के बाद गांव का वह कानूनी हिस्सा गोवों से छिन चुका है। राज्य सरकार और जिला पंचायत खनन कारोबार से अर्जित राजस्व को जनपद में किस रूप में और कहां खर्च करती हैं की कोई सांख्यिकी कहीं पर भी सार्वजनिक रूप से मौजूद नहीं है।
यहां यह बता दिया जाना जरूरी है कि बागेश्वर में खड़िया की खदानें उस नाप भूमि में है जो नाप भूमि राजस्व और सांख्यिकी विभाग की संख्या तालिकाओं में कृषि उपज भूमि के रूप में मौजूद है। खाता खतौनियों की यह मौजूदगी यह तो स्पष्ट करती है की नगद मुनाफे के रूप में खेत स्वामियों को वार्षिक रूप से पच्चीस तीस हजार रुपये या कुछ अधिक प्रति नाली के हिसाब से कंपनियां अगर दे भी रही है तो वह उन खेतों को पूरी तरीके से समाप्त करके दे रही हैं जो खेत गांव में कृषि उपज के मुख्य साधन थे और भविष्य में उस भूमि पर नए सिरे से उपज की गुंजाइश न के बराबर ही बचती है। जानकार बताते हैं कि खड़िया खुद जाने के बाद जब इस भूमि का कोई उपयोग नहीं रहेगा तब भूमि के मालिकों के पास जो वार्षिक आय पहुंच रही है यह भी रुक जाएगी। तब आने वाली पीढियों के लिए ना तो कृषि भूमि बचेगी और ना ही कृषि हेतु जल स्रोत ही बचेंगे।
कई संगठनों ने विभिन्न माध्यमों से नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल, पर्यावरण मंत्रालय, राज्य सरकार और तमाम समूह और संगठनों से समय-समय पर निवेदन किया है कि खनन क्षेत्र में खनन की वजह से जो विकार उत्पन्न हो रहे हैं उनकी जांच के लिए कानूनी कमेटी गठित की जाए । संगठनों के निवेदनों पर सरकार या प्रशासन, ग्रीन ट्रिब्यूनल, पर्यावरण मंत्रालय की ओर से इस संबंध में कोई पहल आज तक तो नहीं की है। बागेश्वर जनपद में खड़िया खदान की वजह से कितने जल स्रोत समाप्त हो चुके हैं कितने सदाबहार -गधेरे, छोटी-बड़ी नदियां मलवे से पट गई हैं और कितनी बड़ी नदियां खनन से निकलने वाले मालवे की वजह से प्रभावित हुई है के कोई आंकड़े बागेश्वर के जिले के प्रशासन के पास उपलब्ध नहीं है।
बागेश्वर जनपद में दुग नाकुरी नाम की नई तहसील अर्जित हुई है। इस नई तहसील में जो प्रमुख नदी है वह पुंगर नाम से जानी जाती है। जलागम के हिसाब से पुंगर का जलागम क्षेत्र गरीब 35 से 40 किलोमीटर की लंबाई में फैला हुआ है। बंगार पुगर की एक सहायक नदी है। बंगार नदी लंबाई में बहुत बड़ी नदी नहीं है लेकिन इसका जो मूल का क्षेत्र है वह बागेश्वर की सबसे बड़ी खड़िया खदानों वाला क्षेत्र है। 1980 से पूर्व इस नदी में जितने भी तालाब थे उन तालाबों में से अब एक भी तालाब शेष नहीं बचा है। इस नदी पर पांच घ्राट हमेशा चलते थे। पांच घ्राट हमेशा चलते थे का मतलब है कि यह क्षेत्र कृषि का क्षेत्र था जहां काफी मात्रा में अनाज पैदा होता था। आज की तारीख में यहां कोई घाट सुरक्षित भी है या नहीं इस और किसी का ध्यान नहीं है। बंगार नदी के सदावहार पानी पर कुछ नहरें भी बनी थी। अब कृषि विकास के लिये बनी नहरें नहीं की स्थिति में है। बंगार की भी एक सहायक नदी जुगापानी गधेरा है। ग्राम पंचायत पचार के धारों नौलों के पानी से बनने वाली जुगापानी नदी को एक खदान कम्पनी ने बकायदा सूखा रौला अपने खनन मानचित्र में दर्शाया हुआ है। दो अलग अलग खदानों ने इस नदी को पूरी तरह से पाट तो दिया हैं । पुंगर, कुलूर, भद्रावति, सरयू, जलागम क्षेत्र की नदियों में खनन के मालुवे की वजह से जो पारिस्थितिकी परिवर्तन हुए हैं वह भले ही प्रशासन को ना दिखते हों लेकिन लोगों की शिकायतों में मौजूद है।
विदित रहे की बागेश्वर जनपद में जितना भी खड़िया खनन का क्षेत्र है वह मुख्य रूप से सरयू नदी के जलागम क्षेत्र का भूभाग है। कपकोट में खीर गंगा, असों में निकलने वाला गधेरा, पुगर नदी, कांडा क्षेत्र से आने वाली कुलूर और भद्रवती नदी अपने साथ खड़िया खदानों की जो गाद बहा कर लाती हैं उस गाद को अपनी मुख्य नदी सरयु में विसर्जित कर देती हैं। चौमासे में बाड़ आने पर सरयू नदी का पानी सफेद गाद के रंग में दिखाई देता है जो सीधे-सीधे खड़िया की गाद होती है। कानूनी रूप से भले ही मानसून काल में खड़िया की खदानों में खदान पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा होता है लेकिन मानसून की बरसात खदानों से निकलने वाले अवशेष मालवे को बरसाती पानी के निकास के मार्गो के रास्ते छोटी-बड़ी नदियाँ में पहुंचाने का काम करती है।
खड़िया खनन क्षेत्र में पर्यावरण संरक्षण वन संरक्षण, भूमि संरक्षण, जल संरक्षण के कानून कोई मायने नहीं रखते ऐसी शिकायती आवाजें लगातार उठती रहती हैं लेकिन प्रदेश की विधानसभा में यह आवाज नक्कार खाने में तूती की आवाज बन कर रह जाती है। यहां यह भी बात ही दिया जाना चाहिए की बागेश्वर जनपद की कपकोट और कांडा विधानसभा से विधायक रहे बलवंत सिंह भौर्याल स्वयं खड़िया खदानों के स्वामी रहे हैं तथा वर्तमान विधायक श्री सुरेश गढ़िया भी खड़िया खदानों के स्वामियों और स्वामित्व के करीबी ही माने जाते है।
पुंगर नदी के जलागम क्षेत्र में दर्जनों खड़िया की खानों में खनन चल रहा है। खदानों से खड़िया पत्थर निकालने के बाद शेष बचने वाला अवशेष किसी न किसी रूप में पुंगर नदी में समा रहा है। नदियों, गधेरों बर्षाती रौलों में पहुंच रहे खदानों के मलुवे की वजह से नदी की प्राकृतिक अवस्था पूरी तरह से बर्बाद हो चुकी है। इस खतरनाक स्थिति की ओर विधाइका, कार्यपलिका न्यायपालिका ने ध्यान देना जरूरी नहीं इसमझा है । बागेश्वर में जो खड़िया की खदानें हैं उन खदानों के स्वामियों का लक्ष्य कम से कम समय में अधिक से अधिक दोहन करने का है। अपने इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए खनन स्वामियों द्वारा बड़ी-बड़ी मशीनों का उपयोग भी किया जा रहा है। ग्रामीण बताते हैं कि मशीनों से खड़िया पत्थर की खुदाई का काम होता है लेकिन प्रशासन के लोग अपना बचाव करते हैं कि मशीनों से मालवे को ही हटाया जाता है। अब यहां प्रशासन की बात मानी जाए या गांव वालों की यह हम अपने पाठकों पर छोड़ देते हैं।
बागेश्वर जनपद में वे तरतीब और मनमाने तरीके से किये जा रहे खड़िया खनन का असर अब दिखने लगा है। गांवों में दरारें पढ़ने की शिकायतें आने लगी है, कांडा गांव में के ऐतिहासिक कालिका मंदिर में दरारें पढ़ने और मन्दिर के एक तरफ झुकने की शिकायत भी अभी सार्वजनिक हुइ हैं।