ताराचंद्र त्रिपाठी
इतिहास के बारे में जब भी हम बात करते हैं तो प्रायः हमारी दृष्टि किसी कालखंड और किसी क्षेत्र-विशेष तक ही सीमित होती है. हम यह भूल जाते हैं कि कोई भी इयत्ता केवल अपने आप में ही पूर्ण नहीं होती, अपितु वह अनेक इयत्ताओं के संयोग और सहयोग से ही निर्मित होती है. उदाहरण के लिए सिन्धुघाटी सभ्यता को ही लें, हमारी दृष्टि केवल उस नगर तक सीमित रह जाती है. हम यह भूल जाते हैं कि नागर सभ्यता का विकास तभी सम्भव होता है, जब उस की आधारभूत कृषि और पशुपालन परक ग्रामीण सभ्यता भी फलफूल रही होती है. हम इस तथ्य पर भी ध्यान नहीं देते कि नागर सभ्यता का यह मूलाधार नागर सभ्यता के ध्वस्त होने के साथ ही ध्वस्त नहीं होता, केवल संक्रमित होता है. ये संक्रमणशील जन जिस नये क्षेत्र में बसते हैं, उन क्षेत्रों में अपने पुराने क्षेत्र के स्थान-नामों, अपनी धार्मिक आस्थाओं के प्रतीकों आदि को पुन: स्थापित करते हैं. इस प्रकार ऐतिहासिक युगों के अन्तराल में सांस्कृतिक नैरन्तर्य बना रहता है, पर अपनी खंड दृष्टि के कारण हम इस सांस्कृतिक नैरन्तर्य का अवगाहन नहीं कर पाते.
इसी खंडदृष्टि और बहुलांश में जातीय या राष्ट्रीय अहंकार के कारण भी हम मानव इतिहास के उस मानवता के महासागरीय स्वरूप का अवगाहन नहीं कर पाते हैं, जो संस्कृति के विकास की अन्तर्धारा है. इस महासागर में किस सांस्कृतिक चेतना की लहर कहाँ उपजी और संक्रमणशील मानव वंशियों के साथ कहाँ तक पहुँच गयी, पूर्वग्रहों से मुक्त हुए बिना इस वास्तविकता को समझना सम्भव नहीं है.
उदाहरण के लिए हमारे पुराणों में जिस महाप्रलय का वर्णन हुआ है, उसके अवशेष ब्रिटिश पुरातत्वविद जार्ज वुली ने मेसोपोटामिया (ईराक) में खोज निकाले, जिससे पता लगा कि सुनामी की यह घटना आज से लगभग 5 हजार साल पहले मेसोपोटामिया में हुई थी. इस जलप्रलय का विशद वर्णन असुर बनीपाल (800 ई.पू.) के पुस्तकालय से प्राप्त ईंटों की पट्टियों पर नुकीली कीलों से अंकित गिलगिमेश नामक सुमेरियन महाकाव्य में हुआ है. यह सुनामी तो आयी थी मेसोपोटामिया में, पर उसकी यादें संक्रमणशील मानववंशियों, व्यापारिक सार्थवाहों के साथ एशिया महाद्वीप के अनेक क्षेत्रों की प्रजातियों के आख्यानों में अलग-अलग नामों से व्याप्त हो गयीं, कथा वही रही, केवल उसकी पृष्ठभूमि और नायक का नाम बदल गया। कहीं वैवस्वत मनु नायक हो गये, तो कहीं हजरत नूह, कहीं नोवा, कहीं जियसद्दू, कहीं कोई और….यही नहीं, यह धारणा भी सर्वत्र व्याप्त हो गयी कि इस प्रलय से पहले जो देव सभ्यता थी, उसमें लोग हजारों साल तक जीवित रहते थे… हमारे शिव 84 हजार वर्ष तक समाधि लगाते हैं. नरेशों की राज्यावधि दस हजार वर्ष निर्धारित हो जाती है. राजा दशरथ को भी सन्तान न होने की चिन्ता तब सताती है, जब उनकी अवस्था साठ हजार साल हो जाती है. राम ग्यारह हजार वर्ष तक राज्य करते हैं, 10 हजार वर्ष अपने और एक हजार वर्ष अपने पिता के राज्यकाल के शेष. राजा सागर के साठ हजार पुत्र हैं, और तो और दान में दी गयी भूमि को छीनने वाला भी साठ हजार साल तक अपनी ही विष्टा में कीड़े रूप में रहने के लिए अभिशप्त होता है।
हजारों वर्ष पर्यन्त जीवन का औचित्य सिद्ध करने के लिए मानववर्ष और देववर्ष के अन्तर की कल्पना की गयी. सुमेरियन परंपरा में एक देववर्ष (सार) मानव के 3600 वर्षों के बराबर माना गया तो भारतीय परंपरा में देववर्ष का एक दिन मानव के एक वर्ष के बराबर मानते हुए एक देव वर्ष मानव के 360 वर्ष के बराबर कल्पित किया गया।
भारत में ही नहीं सुमेर (मेसोपोटामिया) के आख्यानों में भी स्वर्ग से अवतरित प्रथम राजा अलुल्मि 8 सार (28800 वर्ष) पर्यन्त राज्य करता है तो उसका उत्तराधिकारी अलनगर 10 सार (36 हजार वर्ष) और राजा अनमेन दुराना तो 20 सार (72 हजार साल) तक राज्य करता है. शायद बाद के लेखकों को हजारों साल की अवधि अतिशयोक्ति लगी, फलतः उन्होंने हजार के स्थान पर सौ का प्रयोग करना आरंभ कर दिया. हिब्रू परंपरा में नूह, आदम और हौवा का राज्यकाल क्रमशः 950, 940, 930 वर्ष तक सीमित हो गया तो, फिरदौसी के शाहनामा के शाहंशाहों में जहक बारह सौ वर्ष तक और जमशेद सात सौ वर्ष ही राज्य करते हुए अंकित किये गये.
सच तो यह है कि गाथाएँ काल्पनिक नहीं होतीं. उनका उत्स कहीं न कहीं होता है. पर यह उत्स किस भूगोल में प्रस्रवित हुआ यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है. गाथाओं के कथानक अनुश्रुतियों के क्रम में अगली पीढ़ियों की ओर संक्रमित होते हैं. प्रायः हर पीढ़ी उसमें कुछ न कुछ नया जोड़ देती है. परिणाम यह होता है कि लोक मानस को झंकृत कर देने वाली किसी भी घटना के वर्णन में निरन्तर नयी उदभावनाएँ जुड़ती चली जाती हैं. क्षेपक जुड़ते चले जाते हैं. नये पात्रों का समावेश होता जाता है. घटनाओं के विवरणों में बदलता सामाजिक परिवेश, मानसिकता, आचारविचार और गाथाकार का भौगोलिक परिदृश्य भी गाथाओं में जुड़ता चला जाता है. इसका सबसे अच्छा उदाहरण दक्षिणपूर्वी एशिया के विभिन्न समाजों में व्याप्त रामकथा के विभिन्न रूप हैं. जिनमें किसी में राम केवल एक महान राजपुरुष (वाल्मीकि) हैं, तो किसी में धर्म की रक्षा के लिए अवतरित ईश्वर (तुलसी और कम्बन). तो किंरसपुंसपा (तिब्बती रामायण) में असंख्य दानवों के दलन के पाप के कारण कलियुग में बुद्ध के रुप में अवतरित होते हैं.
यही नहीं रावण के घर एक रुपवती कन्या का जन्म होता है, किंतु ऐसा संकेत मिलता है कि लंका में उसके रहने से दानवों का विनाश हो सकता है. इसलिए उसे तांबे के बक्से में बंद कर जल में फेंक दिया जाता है. वह कन्या एक कृषक को मिलती है. वह उसका नाम रौलरेंडमा रख देता है. उसका विवाह राम से होता है, तब उसका नाम सीता रख दिया जाता है.
रावण कहीं क्रूर असुर है तो कहीं एक जैन सन्त (जैन गाथाओं में), और कहीं एक ऐसा प्रेमी है जो सीता को पाने के लिए अपना सर्वस्व दाँव पर लगा देता है. (थाई रामायण). किसी में सीता राजा जनक को खेत में हल जोतते समय मिलती है तो कन्नड लोककथा में रावण द्वारा भूल से सन्तान देने वाले फल को खा लेने के कारण उसकी छींक (कन्नड़ में सीता छींक का पर्याय है) से पैदा हुई है. कहीं वह रावण के अत्याचार से पीड़ित नारी का प्रतिशोध भरा पुनर्जन्म है. यही नहीं कुमाऊँ में ’भीणी’ के अन्तर्गत गायी जाने वाली रामकथा में तो वह (सीता) बिना मांस के भोजन ही नहीं करती, इसलिए राम को मृग का आखेट करने के लिए पर्वत शिखर पर स्थित वन में (’धुरि का शिकार’) जाना पड़ता है.
वाल्मीकि की पौलस्त्यवध (रावण वध) तक सीमित गाथा रामायण में रूपान्तरित हो जाती है. कौरव और पांडवों के बीच हुए युद्ध की मात्र आठ हजार श्लोकों तक सीमित गाथा ’जय’ पीढ़ियों के अनुक्रम में विस्तरित होती हुई ’भारत’ और एक लाख श्लोकों के ’महाभारत’ में बदल कर यह घोषित करने लगती है कि जो कुछ इसमें है वह सारे संसार में है और जो इसमें नहीं है वह विश्व में नहीं है. इसलिए यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि किसी गाथा से जुड़ी मूल घटना या घटनाओं का उत्स किस भूगोल में था. यह भी नहीं कहा जा सकता कि जिस मूल पुरुष को लेकर गाथा आरंभ हुई है, गाथा में वर्णित घटनाएँ केवल उसके जीवन से ही संबन्धित हैं या किसी अन्य लोकविश्रुत व्यक्ति के जीवन की घटनाएँ भी उसके जीवन से जोड़ दी गयी हैं.
जैसे नदी अपने प्रवाह पथ में अनेक जलधाराओं को समाहित करती स्थानीय भूगोल के अनुसार रूप बदलती जाती है, उसी प्रकार लोकगाथाएँ भी अनेक नये आख्यानों को समाहित और स्थानीय परिवेश को समंजित करती हुई हम तक पहुँची हैं.
हमारे धर्मशास्त्र भी मानव सभ्यता के महासागरीय स्वरूप को प्रतिबिम्बित करते हैं. उदाहरण के लिए हर सभ्य समाज में जीवन की आधारभूत सुविधाओं को उपलब्ध कराने वाला वर्ग, श्रमजीवी और नारी, उपेक्षा और उत्पीड़न के लिए अभिशप्त रहे हैं. मिस्र के पिरामिड हों, या मेसोपोटामियायी सभ्यता के जिग्गूरत, अथवा सिन्धु सभ्यता के नगर या भारत के विशाल मंदिर, सब के सब कुली बेगार से ही निर्मित हुए हैं. पूरा सामन्तवाद यहाँ तक कि सामन्ती व्यवस्था का मूलोच्छेदन करने वाला पूँजीवाद भी,’जिसको जहाँ लाभ लगे वहाँ काम करने के लिए और जिसको काम पर रखने में लाभ लगे, उसे काम पर रखने के लिए स्वतंत्र है’ कह कर दुर्बल के शोषण को मान्यता देता है. स्वतंत्रता की यह व्याख्या अपनी वास्तविकता में निजी प्रतिष्ठानों द्वारा विपन्नों के अन्तहीन शोषण की पटकथा है. सच पूछें तो सभी समाजों के धर्मशास्त्रों का केन्द्रीय तत्व समर्थों को सुविधा देने और असमर्थों पर अंकुश लगाने तक सीमित रहा है और आज भी जो विधान बनते हैं उनमें भी इन्हीं धर्मशास्त्रों की ही छाया आभासित होती है.
श्रमजीवी वर्ग समाज की बाहरी सुविधाएँ जुटाता है तो स्त्री, पुरुष के लिए घर के भीतर सुख, विलास और आराम का साधन है. अतः पुरुषप्रधान समाज ने उस पर सामान्य श्रमजीवी वर्ग से भी अधिक अंकुश लगाये. उसकी दैहिक और प्रजननगत विवशताएँ एक और बाधा थीं. परिणामतः अपने लिए पूर्ण स्वच्छन्दता को समेटते हुए पुरुष ने नैतिकता का सारा दायित्व उस पर थोप दिया वह ’रानी’ होने पर भी नौकरानी ही है. उसे हर तरह से पुरुष से हेय दिखाया जाता रहा है. प्राचीन मिस्र की मूर्तियों में उसका आकार इतना छोटा दिखाया जाता है कि वह फराओं के घुटने की ऊँचाई तक सीमित रहे. यदि वह सम्राज्ञी भी बने तो उसके लिए दाढ़ी लगाना आवश्यक है. उसकी अपनी इच्छा का कोई महत्व नहीं है. वह पुरस्कार में दी जा सकने वाली वस्तु मात्र है. इस पुरस्कार के लिए कभी धनुषयज्ञ आयोजित होते हैं तो कभी धनुर्विद्या की परीक्षा होती है.
सभी प्राचीन समाजों में ही नहीं आज भी उसकी सबसे बड़ी अर्हता गृहकार्य में दक्ष होना है. (दुहितुः पांडित्यं गृहतंत्रविषयमेव वेदेऽनधिकारतात्, वृहदारण्यक उप. चतुर्थ ब्राह्मण श्लोक 17) किसी भी प्राचीन समाज ने उसे शिक्षा की अधिकारिणी नहीं माना है. प्राचीन संस्कृत नाटकों में ही नहीं है अपितु उन से लगभग 2 हजार साल पहले के सुमेरी महाकाव्य गिलगिमेश में भी सामान्य मानवी को ही नहीं अपितु देवी इनाना को भी अभिजातों की भाषा में बोलने का अधिकार नहीं हैं. उनके संवादों के लिए भी जनभाषा का ही प्रयोग हुआ है.
गाथाएँ, कथाएँ, परम्पराएँ प्रायः विजय अभियानों और व्यापार के विस्तार के सहारे संक्रमित होती हैं. हर समाज का सम्पन्न वर्ग अपने हितों की रक्षा के लिए विजेताओं के साथ निकटता और तादात्म्य स्थापित करने के लिए उनके आचारविचार और व्यवहार के तरीकों को अपनाने का प्रयास करता है. वह अपनी जीवन पद्धति में जिन नये तत्वों का समावेश करता है, समाज के अन्य वर्ग भी उसका अनुसरण या अनुकरण करते हुए उन तत्वों को अपनी जीवन शैली का अंग बना लेते हैं.
यह सांस्कृतिक संक्रमण केवल विजेता से विजित की ओर ही नहीं होता, विजित से विजेता की ओर भी होता है. उसका कारण यह है कि हर समाज एक दूसरे की विशिष्ट पद्धतियों में कुछ नवीनता पाता है और सहज ही उन्हें अंगीकार करने का प्रयास करता है. इस प्रकार दो विभिन्न समाजों में सांस्कृतिक समन्वय स्थापित होने लगता है. यह प्रक्रिया निरंतर गतिमान रहती है. उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति के जन्म दिन के अवसर पर हिन्दू परिवार घर के भीतर के देवस्थल में दिया जला कर मार्कंडेय पूजा करने की परंपरा की अपेक्षा शाम को दिया बुझा कर केक काटने और ’हैप्पी बर्थ डे’ का गुंजार करने लगे हैं तो कुछ सनातनी परिवारों में प्रातः मार्कण्डेयपूजा और सायं केक काटने की प्रथा गतिमान है. दूसरी ओर विश्व में भारतीय परंपराओं को अपनाने वालों की संख्या भी अनुदिन बढ़ रही है. योग और सत्संगों के प्रति लोगों का रुझान बढ़ रहा है. यह केवल आज ही नहीं हो रहा है. आज से लगभग दो हजार साल पहले यवन आक्रांता हैलियोदोर वैष्णव धर्म अपना कर विदिशा में गरुड़ स्तंभ स्थापित करता है तो मध्यकाल में पठान रसखान ब्रज के ग्वालबालों के बीच ही बसे रहने की कामना करने लगते हैं. बादशाहों के हिन्दू सामन्त हिन्दू रहते हुए भी मुस्लिम खानपान, वेशभूषा और परंपराओं को अपनाने लगते हैं तो इस्लाम को अपनाने वाले दलित पीढ़ियों तक अपनी पुरानी परंपराओं के मुरीद बने रहते हैं. यही स्थिति आज भी है. भारतीयता भाषा और परंपराओं का पालन केवल अभावग्रस्तों तक सीमित है और सम्पन्न समाज यूरोपीय समाज का प्रतिरूप बनता जा रहा है.
ऐतिहासिक युगों के घटनाचक्रों के रुझान में भी मानव इतिहास के महासागरीय रूप का निदर्शन होता है. रोमन साम्राज्य, ईरान के हखमनी साम्राज्य, मैसीडोनियाई साम्राज्य, मगध साम्राज्य और चीन का हान साम्राज्य एक ही युग में उदित और अस्त होते हैं. बुद्ध और महावीर का युग चीन मे कन्फ्यूसियस और ग्रीस में सुकरात का युग भी है. वह कृषि प्रधान ग्रामीण अर्थ व्यवस्था से व्यापार प्रधान नागर व्यवस्था की उन्मुख साम्राज्यों के उदय का युग है तो प्राकृतिक और स्थानीय कबीलाई देवोपासना को नकारते हुए एक परम सत्ता की कल्पना की ओर उन्मुख चिन्तन का युग भी है.
हमारे अपने युग में ही साम्राज्यवाद के उदय और अवसान, और वयस्क मताधिकार पर आधारित शासनतंत्र की पटकथा युगपत अंकित हुई है आतंकवाद की लहर भी किसी एक देश तक सीमित नहीं है. सच तो यह है कि विश्व के इतिहास में प्रत्यक्ष होने वाले संघर्ष और समन्वय का यह क्रम दो जल धाराओं के टकराने, कुछ दूर तक अपने विशिष्ट प्रवाह को बनाये रखने और अन्ततः बहुलांश में एकाकार होने सा परिलक्षित होता है.
दिगदिगन्त तक व्याप्त यह क्या है, मैं कौन हूँ, जगत कैसे बना, जीवों की उत्पत्ति कैसे हुई. मरने के बाद जीव कहाँ जाता है, यह सोच किसी एक संस्कृति तक सीमित नहीं है. हमारी पौराणिक धारणाएँ, विश्वास, अंधविश्वास, संख्याओं, पशुपक्षियों, वृक्षों, से सम्बन्धित अवधारणाएँ, कायान्तरण, मानवेतर प्राणियों का मानव की बोली में बोलना, स्वप्नों के निहितार्थों का अनुमान लगाना, सार्वभौमिक और सार्वकालिक और संस्कृतियों के बीच सोच की समानता को प्रतिबिम्बित करते हैं. अंकों के प्रति अवधारणा भी लगभग एक सी है. एक ही अंक किसी परंपरा में शुभ है तो किसी में अशुभ. तीन का अंक तो अधिकतर समाजों में पूर्णता या पक्के वचन का पर्याय है. कहने का तात्पर्य यह है कि रूप, रंग, भाषा, आर्थिक विकास के स्तर और सामथ्र्य के बाहरी तामझाम के भीतर मानव मनीषा में एकात्म्य है.
जब भी हम अतीत को उसके सही परिप्रेक्ष्य में समझने से विचलित होते हैं, हमारा मिथ्या अहंकार, औरों से विशिष्ट इकाई होने की भ्रान्ति पनपने लगती है. हमें अपनी संस्कृति महानतम और अन्य संस्कृतियाँ हेय लगने लगती हैं. तो दुनिया के किसी कोने से कोई हिटलर, कोई तालिबान, कोई सनातन संस्था कोई बोकोहरम, मानव सभ्यता के विनाश के बीज बोने लगता है तो इस महाशून्य में जीवन की ज्योति को अपनी शैतान संतति (मानव) से बचा कर किसी तरह को बनाये रखने का प्रयास करती धरा के अपने जीवन पर ही प्रश्नचिह्न लग जाता है.
मेरी पुस्तक ‘ इतिहास और सच’ का एक अध्याय.
फोटो इंटरनेट से साभार