राजीव लोचन साह
हरेला उत्तराखण्ड, विशेषकर कुमाऊँ का प्रमुख त्यौहार है। यह अमन, हरियाली और खुशहाली का त्यौहार है, जिसकी लोग साल भर प्रतीक्षा करते हैं। हाल के दिनों में पहाड़ का अमन-चैन तो अफवाहों द्वारा पैदा की जा रही नफरत ने छीन लिया ही है, इस त्यौहार की खुशी भी साल दर साल बढ़ रही आपदाओं ने कम कर दी है। बरसात में होने वाली इन आपदाओं को यों तो सरसरी तौर पर प्राकृतिक आपदायें कह दिया जाता है, मगर वास्तविकता यह है कि हिमालय में बढ़ रहे मानवीय हस्तक्षेप और विकास के विनाशकारी मॉडल के कारण ये आपदायें आ रही हैं। हिमालय हमेशा से ही एक कमजोर और अस्थिर पहाड़ रहा है। जब से यहाँ मानव ने बसासत शुरू की, अपने पीढ़ी दर पीढ़ी प्राप्त ज्ञान से उसने प्रकृति के साथ रहना सीखा और अपने आप को यथा सम्भव सुरक्षित रखा। आपदायें तब भी आती थीं। लोग मरते थे। जान-माल का नुकसान होता था। मगर वह आज जैसा नहीं था। फिर मिट्टी और पानी को बाँधे रखने वाले जंगल तेजी से कटने लगे। सड़कें बनाने के लिये पहाड़ों को विस्फोटों से कमजोर किया गया, मलबा नदियों में फेंका जाने लगा। इससे आपदाओं का गति और वेग बढ़ने लगे। पिछली सदी के अन्तिम वर्षों में बननी शुरू हुई जल विद्युत परियोजनाओं ने तो इस तबाही को और अधिक विस्तार दे दिया। अनियंत्रित रूप से बढ़ते पर्यटन ने मानवीय हस्तक्षेप को अब तक निर्जन रहे दूरस्थ क्षेत्रों तक पहुँचा दिया। इन सबका दुष्प्रभाव हिमालयवासियों को ही नहीं, पूरे देश को झेलना पड़ा। वर्ष 2013 की केदारनाथ दुर्घटना का उदाहरण सामने है। मगर इस सबसे हमने कुछ नहीं सीखा। हमारा लालच हिमालय की सुरक्षा पर हावी होता रहा। इस सबने हरेले का आनन्द कम कर दिया। मगर यदि हमें हिमालय की हरियाली वापस लानी है, हरेले को पुनः अमन और खुशहाली का प्रतीक बनाना है तो अपनी दृष्टि और व्यवहार में आमूलचूल परिवर्तन करना पड़ेगा।