हेमचंद्र सकलानी
आज ही के दिन 9 मई 1939 को टिहरी रियासत के सावली गांव में योगेश बहुगुणा जी का जन्म हुआ था। प्रारंभ में गांव के स्कूल में फिर प्रताप इंटर कॉलेज में फिर देहरादून में आपने शिक्षा ग्रहण की। बचपन छूटा था तभी से कुछ ना कुछ, नया करने की भावना आपके अंदर रहती थी। यही वजह थी कि प्रताप इंटर कॉलेज में एक वाद विवाद प्रतियोगिता में राष्ट्रीय स्तर पर प्रथम पुरस्कार आपको मिला। निरंतर पुस्तकों को पढ़ने से आप बहुत कुछ सीखने अनुकरण करने के लिए प्रेरित हुए।फिर अनेकों पैदल यात्राएं प्रारंभ कीं। यह भी आश्चर्य है कि लोग नेताओं मंत्रियों से मिलने को आतुर रहते हैं लेकिन बहुगुणा जी लखनऊ में रहते हुए भी उत्तर प्रदेश के अपने ही मंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा जी से कभी भी किसी कार्य के लिए नहीं मिले, शायद यही भावना रही जो कुछ हासिल करूंगा अपनी मेहनत से हासिल कर लूंगा यह भावना निरंतर जारी है।अल्मोड़ा में गांधी जी के विचारों से प्रभावित होकर आपका लाइब्रेरी खोलना, चंबा में स्वराज् संघ संस्था बनाई ताकि गांधी जी के विचारों का प्रचार-प्रसार किया जा सके।
आपने अपने गांव सावली के निकट स्कूल खोला क्योंकि जो स्कूल थे उस समय वह बहुत दूर थे। खुशी की बात है कि वही स्कूल आज इंटर कॉलेज में परिवर्तित हो गए हैं। छुआछूत के बारे में उसके विरोध में लोग बहुत बातें करते हैं लेकिन बहुगुणा जी ने अपने जीवन में इसे उतारा और ऐसे लोगों के निकट रहे। काश्तकारों के शोषण के विरुद्ध हमेशा आपने आवाज उठाई। आप चिपको आंदोलन से जुड़े और कार्य किया, पेड़ों को राखी साथियों के साथ बांधने का आंदोलन चलाया, पेड़ों की नीलामी रुकवाने, वनों की रक्षा के लिए भी आंदोलन चलाया जैसे अनेक महत्वपूर्ण कार्य आपने किए या उनमें अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
यही नहीं गुमानीवाला में आपने स्कूल खुलवाया और अपनी 3 बीघा जमीन इसके लिए दान स्वरूप दी। आपने अवैध शराब की दुकानों को बंद कराने के अनेक प्रयास किए। महिलाओं की समस्याओं के हल के लिए महिला जन नवजागरण समिति का गठन किया। पर्यावरण पर पाठ्यक्रम बनाने जैसे अनेक सामाजिक हित,जनहित के कार्यों से आपका अतीत भरा पड़ा है। हम लोग इसलिए नहीं जान पाए क्योंकि आपने कभी अपने प्रचार प्रसार की दृष्टि से कार्य नहीं किया। आपको आपके लेखन को देखकर उनका अध्यन कर अनुभव हुआ की लिखा हुआ तभी सार्थक होता है जब उस लेखन को जिया भी गया हो।
आपकी पुस्तक “अतीत के बिखरे पन्ने” आपके अनुभवों और संघर्षों की गाथा कहती नजर आती है जिसमे जीवन के खट्टे मीठे अनुभवों के दर्शन होते हैं। वैसे भी अनुभवों से बढ़कर देखा जाए तो कोई सत्य नहीं होता और ऐसी पुस्तकें पाठकों को संदेश देती हैं उनका निर्देशन मार्ग दर्शन करती हैं। ऐसी पुस्तकों को छात्र छात्राओं को पढ़ने के लिए प्रेरित भी किया जाना चाहिए।
प्रसिद्ध लोकप्रिय पत्रिका ‘लोक गंगा’ के अतिरिक्त, जागृत युवक पत्रिका, हिमालय दर्शन, हिमालय और हम, उत्तराखंड स्मारिका,जौनसार बाबर में एक माह,अंतर यात्रा,उत्तराखंड में शराब बंदी जन आंदोलन की कहानी, उत्तर के शिखरों में चेतना के अंकुर, उत्तर के शैल शिखरों से, नए समाज की दिशा जैसी पुस्तकों के संपादन के बाद ‘अंतर की उड़ान’ ‘ अतीत के बिखरे पन्ने’ जैसी साहित्यिक कृतियां जैसे, स्वयं योगेश बहुगुणा जी का परिचय हमें देती हैं। यह भी बहुत बड़ी उपलब्धि होती है जब लेखक का परिचय उसकी कृतियां देती हों। सन 2004 से बिना विज्ञापन के ‘लोक गंगा’ जैसी पत्रिका का प्रकाशन जारी रखना दुर्लभ कार्य जैसा लगता है। वह भी तब जब देश के नामचीन लेखक साहित्यकार इससे जुड़े हों।
यह न धन अर्जन करने की दृष्टि से निकाली जा रही है न ही अपने नाम के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से। इतने वर्षों से आपको देख देख रहा हूं आपके कार्यों का अवलोकन किया और पाया किसी धीर गंभीर ऋषि पुरुष की तरह आपको। जैसे सागर तट से बहुत दूर मध्य सागर में सागर अथाह जल राशि लिए होता है उतना ही गहरा होता है उतना ही शांत होता है उतना ही सुंदर होता है। इसलिए जहाज भी मध्य सागर में आसानी से विचरण करते हैं ऐसा ही आपका व्यक्तित्व नजर आता है। आपको देख कर यह सत्य उजागर होता है जो अच्छे लेखक होते हैं वह कम बोलते हैं और काम ज्यादा करते हैं।
एक प्रश्न मन में अवश्य उठता है की इतने महान रचनाकारों का यह प्रदेश है फिर ‘लोक गंगा’ जैसी पत्रिका या गत वर्ष उत्तराखंड के साहित्यकारों पर केंद्रित ‘लोक गंगा’ जैसी पुस्तक कोई और संपादक,कोई और लेखक,कोई और साहित्यकार क्यों नहीं निकाल पाया। आदरणीय योगेश बहुगुणा जी के बारे में एक ऐसी विभूति के बारे में कुछ कहने के लिए बहुत चिंतन मनन मंथन की आवश्यकता है। कुसुम रावत जी ने स्वीकार किया कि मेरे वश में नहीं है कि योगेश बहुगुणा जी के बारे में कुछ लिख सकूं। आप ही क्या बहुत से लोगों के वश में नहीं होगा शायद उनके बारे में कुछ लिखना। पर यह कटु सत्य है उत्तराखंड ने कभी योग्यता प्रतिभा का सम्मान नहीं किया सिर्फ ढोल का सम्मान किया अन्यथा हरिदत्त भट्ट शैलेश,मोहनलाल बाबूलकर,सत्यप्रसाद रतूड़ी,गिरिजा शंकर त्रिवेदी जैसे साहित्य के अमिट हस्ताक्षर आज कहीं खो न जाते। अंत में चलते-
चलते सच बताऊं तो हमने बहुगुणा जी को केवल थोड़ा बहुत देखा, थोड़ा बहुत पढ़ा है, पूरी तरह देख नहीं पाए पूरी तरह पढ़ नहीं पाए। उनका जितना धीर गंभीर शांत उनका लेखन रहा है उतना ही स्वभाव भी है शायद यही कारण रहा। किसी ने सही कहा भी है संकट, परेशानियां, अभाव, दुख – दर्द, लेखन और साहित्य की उर्वर जमीन होती है।आपको देख कर महसूस कर किसी की यह पंक्तियां उभर कर आती हैं – “जिस दिन से चला हूं मेरी मंजिल पे नजर है आँख ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा, यह फूल मुझे विरासतों में नहीं मिले तुमने मेरा कांटों से भरा बिस्तर नहीं देखा।” अंत में आपकी सुखद दीर्घायु की कामना करता हूं।
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