राजीव लोचन साह
उम्र के 72 साल बीत जाने पर अब किसी की मौत ज्यादा चौंकाती नहीं। मगर इसके बावजूद कुछ मौतें ऐसी होती हैं, जो अभी भी दुखी कर जाती हैं। इस बार भी दीवाली से ठीक पहले दो ऐसी ही मौतें हुईं। संयोग से इन दोनों का रिश्ता गिरदा से जुड़ता है।
31 अक्टूबर को गिरदा की बड़ी भाभी तारा तिवारी का अल्मोड़ा में देहान्त हो गया। यह एक सामान्य मौत थी क्योंकि उनकी आयु लगभग 85 वर्ष की हो चुकी थी। गिरदा लोग तीन भाई थे। सबसे बड़े प्रकाश चन्द्र तिवारी, उनके बाद रजनी कुमार तिवारी और फिर गिरदा। तारा तिवारी प्रकाश चन्द्र जी की पत्नी थीं। उनका लड़का कंचन उनका श्राद्ध सम्बन्धी कर्मकाण्ड करने हरिद्वार गया था कि पीछे अल्मोड़ा रानीधारा स्थित घर में रजनी कुमार तिवारी जी के पुत्र कुणाल का भी देहान्त हो गया। यह कुणाल की मृत्यु थी, जिसने बहुत दुखी किया।
कुणाल, जिसे घर में कुनकुन कहते थे, की मौत अनपेक्षित नहीं थी। हम कई महीनों से इस खबर का इन्तजार कर रहे थे। एक प्रतिभासम्पन्न और मेहनती युवक के घोर हताशा में चले जाने की कहानी है कुणाल की मृत्यु। पहले पहल उस पर ध्यान तब गया, जब वह गिरदा के अन्तिम दिनों में उसकी देख-रेख में लगा था। उन दिनों उसने गिरदा की बहुत सेवा की। गिरदा के देहान्त के बाद भी वह काफी समय नैनीताल में रहा और कम्प्यूटर हार्डवेयर में रोजगार ढूँढने में जुटा रहा। उसमें ज्यादा सफलता नहीं मिली तो वह अल्मोड़ा वापस चला गया और थोड़ी-बहुत ठेकेदारी करने लगा। गिरदा की विरासत पर उसे गर्व था और वह उसका महत्व भी समझता था। इसीलिये गाहे-बगाहे गिरदा की कवितायें सोशल मीडिया पर शेयर करता था। खुद भी कवितायें लिखा करता था। संगीत में उसकी बहुत रुचि थी और अक्सर वह शास्त्रीय संगीत में ढले भजनों की क्लिपिंग भेजा करता। अपना शरीर हृष्ट-पुष्ट बनाने का उसे शौक था और वह जिम में खूब पसीना बहाता। साइक्लिंग करता। एक-दो बार तो वह साइकिल चलाता हुआ नैनीताल ही पहुँच गया। डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट के नेतृत्व में गठित उत्तराखंड लोक वाहिनी का वह सक्रिय सदस्य था और उसके हर कार्यक्रम में उत्साह से शामिल होता।
फिर क्या हुआ कि रोजगार का कोई स्थायी जरिया न ढूँढ पाने और संयुक्त परिवार में बढ़ते हुए आन्तरिक संघर्ष के कारण वह हताशा में जाने लगा। जमीन बहुत थी, रानीधारा में भी और उनके पैतृक गाँव ज्यूँली में भी। मगर उसके बँटवारे और व्यवस्था की कोई सूरत नहीं निकल पा रही थी। कोसी नदी के किनारे, हवलबाग के पास ज्यूँली में उसने एक बार कैम्पिंग शुरू करने की भी योजना बनाई। वह एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल बन सकता था। मगर व्यापार के लिये पूँजी जुटाना उसके लिये सम्भव नहीं हुआ। उसकी हताशा बढ़ती गई और वह शराब में डूबने लगा। अनेक बार समझाने पर भी उसका हौसला वापस लाना हमारे लिये सम्भव नहीं हुआ। अन्ततः 4 नवम्बर को कुणाल का देहान्त हो गया। उसकी उम्र पचास साल के आसपास रही होगी। शादी उसकी हो नहीं पायी थी।
5 नवम्बर को हल्द्वानी में प्रमोद प्रकाश साह के देहान्त की सूचना मिली। अफसोस इस बात का रहा कि वह दो साल से बीमार था और हमें खबर नहीं थी। कभी उससे मिल कर आने का सुयोग ही नहीं बना।
प्रमोद भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के गीत एवं नाटक प्रभाग में गिरदा के साथ ही आर्टिस्ट था। जिस वक्त गिरदा के साथ मेरी पहली मुलाकात हुई, गिरदा उसी के साथ उसके रॉयल होटल कम्पाउण्ड वाले घर में रहता था। तब तक गिरदा प्रमोद के घर का सदस्य ही बन गया था और उसकी माँ को ही ईजा कहता था। प्रमोद गिरदा को अपना बड़ा भाई मानता और उसका बहुत ख्याल रखता। गिरदा उन दिनों बहुत उच्छृंखल और अराजक होता था और प्रमोद उसकी कमजोरियों को ठीक करने की कोशिश करता। एक बार उसने क्रुद्ध होकर गिरदा की पिटाई कर दी और फिर ग्लानि में डूब गया कि उसे ददा पर हाथ उठाना पड़ा। गिरदा उस वक्त तक एक अच्छा कवि और रंगकर्मी अवश्य था, मगर था वह ‘गिरीश’ ही और गिरदा बनने की प्रक्रिया में से गुजर रहा था। गिरदा वह तब बना, जब 28 नवम्बर 1977 को होने वाली वनों की नीलामी का विरोध करने के लिये वह और मैं एक ही दिन सड़क पर उतरे। उसके बाद हमारी शादियाँ हुईं। प्रमोद और मेरे विवाह में एक ही दिन का फर्क था। हम दोनों एक दूसरे की शादी में शामिल नहीं हो सके। गिरदा नैनीताल क्लब के डाँठ पर गधेरे के किनारे के कमरे में रहने लगा और वहीं से उसकी ख्याति फैलने लगी।
उस दौर में गीत एवं नाटक प्रभाग के बहुत से नाटक नैनीताल में होते थे। भारी संख्या में दर्शक उन नाटकों को देखकर मंत्रमुग्ध होते। प्रमोद लगभग हर नाटक में एक प्रमुख भूमिका में होता। प्रभाग की रामलीला में वह राम का रोल करता। वरिष्ठ रंगकर्मी जितेन्द्र बिष्ट बताते हैं कि प्रमोद ने 32 साल तक इस प्रोडक्शन में राम की भूमिका निभायी। वह एक बेहतरीन बैले नर्तक था। जब वह नाचता तो ऐसा लगता मानो समुद्र उसके शरीर में हिलोरें ले रहा है। बहुत बाद में जब बढ़ती उम्र के साथ शरीर में लोच बहुत कम हो जाता है, प्रमोद उसी कौशल के साथ नृत्य करता। उसकी सामान्य चाल भी ऐसी थी, मानो नाचता हुआ चल रहा हो। वह अल्मोड़ा में रहने वाले चिरंजी लाल साह, जो उदयशंकर अकादमी में उनके साथ रहे थे, का भांजा था। हो सकता है नृत्य के संस्कार उसे ननिहाल से मिले हों। युगमंच के अध्यक्ष और प्रख्यात रंगकर्मी जहूर आलम बतलाते हैं कि उन दिनों प्रमोद का आभामंडल ऐसा था कि हम लोग उससे आतंकित रहते थे। वह तो ‘अंधायुग’, ‘अंधेर नगरी’ और ‘नगाड़े खामोश हैं’ जैसे युगमंच के नाटकों के साथ रिश्ते सामान्य हुए। वे बताते हैं कि प्रमोद नये कलाकारों की हिचक दूर करने और उन्हें रंगमंच की बारीकियाँ सिखाने में बहुत रुचि लेता था। उसका व्यक्तित्व ही इतना मोहिला था। स्टेज के अतिरिक्त प्रमोद का बैकस्टेज का योगदान बहुत महत्वपूर्ण होता। वह न सिर्फ मेकअप करने में निष्णात था (मल्लीताल की रामलीला में भी वह सालोंसाल मेकअप करता रहा), बल्कि स्टेज प्रापर्टीज का भी पूरा ख्याल रखता। कई बार तो वह पात्रों की कॉस्ट्यूम्स को रस्सी पर टाँग कर हरेक पर नाम लिख देता कि आखिरी वक्त पर हबड़-तबड़ न हो। नाटक के सफल मंचन के लिये वह इतना डूबा रहता कि कई बार स्वयं नाटक देख ही नहीं पाता। जहूर बतलाते हैं कि एक बार मैं ‘जिन लाहौर नहीं वेख्या’ को सामने से पूरा देखना चाहता हूँ। दरअसल असगर वजाहत की इस प्रस्तुति को युगमंच ने देश के अनेक शहरों में मंचित किया, मगर प्रमोद का बैकस्टेज काम इतना अधिक होता था कि वह कभी नाटक देख ही नहीं सका।
ऐसा था प्रमोद प्रकाश, जिसे शेखर पाठक के नामकरण के बाद हम प्रमोद लला कहते थे, का रंगमंच के प्रति समर्पण।
रविवार, 5 नवम्बर को अपनी पत्नी, बेटी भूमिका और बेटे मानव को पीछे छोड़ कर प्रमोद लला अनन्त यात्रा पर निकल गया।