दीपक नौगाई ‘अकेला‘
यात्राएं सदा मानव को आकर्षित करती रही है, लेकिन यात्रा यदि पहाड़ की ऊंची नीची पगडंडियो पर हो तो रोमांच अपने चरम पर होता है । हिमालय की सुदूर पर्वत चीटियां सदैव से मनुष्य को अपनी ओर बुलाती रही है । कभी मनुष्य इन पहाडों की चोटियों पर विजय प्राप्त करने निकलता है तो कभी शांति व सुकून की तलाश में । युवा पीढी भी आज रहस्य व रोमांच की तलाश में इन दुर्गम पर्वत शिखरों की जोखिम भरी यात्रा पर जा रही है। अपने कालेज के दिनो मे 1990 मे NCC के तहत मुझे देश भर के कैडटों के साथ बागेश्वर जिले मे स्थित पिंडारी व काफनी ग्लेशियर की पैदल थका देने वाली सप्ताह भर की यात्रा में जाने का अवसर मिला । इस यात्रा ने न सिर्फ प्रकृति के सुन्दर खजानों से परिचित कराया बल्कि यात्रा मार्ग से जुड़े गांवो के लोगों की जीवन शैली तथा उनकी पहाड़ जैसी समस्याओं से भी साक्षात्कार कराया।
कुमाऊं रेजीमेंट द्वारा संचालित इस आल इंडिया ट्रेकिंग की शुरुआत काठगोदाम इंटर कालेज के मैदान से होती है। ट्रेकिंग दस्तों को आठ भागों में बाँटा गया था और मैंने एम बी कालेज के नौ साथियों ( दसवां मै) के साथ सातवें दल में शामिल होकर यात्रा पूरी की थी । इस दल मे मेरे गांव के साथी मित्र प्रकाश ब्रजवासी, बंशीधर बुढलाकोटी और चंचल पाण्डे भी शामिल थे । तब मैं BSc प्रथम वर्ष का छात्र था, युवा और असंख्य सपनों से भरा हुआ ( पर कई सपने पूरे न हो पाए )।
सात बजे सुबह काठगोदाम से केमू की बसो से यात्रा की शुरुआत हुई । हमे 213 किलोमीटर दूर सोंग पहुंचना था, जो हमारी यात्रा का पहला पड़ाव था । सोंग मे एक दिन विश्राम और हल्की पैदल पहाड़ी यात्रा का अभ्यास करने के बाद हमें पिंडारी की ओर निकलना था । यात्रा को लेकर मन में कई तरह की आशंकाएं थी और डर भी ।दरअसल पांचवे दल मे शामिल पंजाब के एक साथी कैडेट की मृत्यु की खबर हमने सुनी थी । अत्यधिक ठंड सहन न कर पाने के कारण उसके स्वास्थ्य पर असर पड़ा और जो उसकी दुखद मृत्यु का कारण बना ।
कोहरे भरी शाम व रिमझिम फुहारो के बीच अल्मोड़ा और बागेश्वर, कपकोट, भराडी होते हुए देर शाम हम सोंग पहुँचे । 1400 मीटर की ऊंचाई पर स्थित सोंग पहाडियों के बीच में अटका हुआ एक सुन्दर गाँव है । दूर दूर तक छितरे मकान, जहाँ से यदि मौसम साफ हो तो हिम आच्छादित श्रृंखलाएं साफ नजर आती है। सोंग और बागेश्वर दोनों ही सरयू नदी के किनारे है । हरे भरे पहाडों से घिरे इस छोटे से गांव में बाल सुलभ क्रीड़ा करती यह नदी मुझे जैसे हमेशा के लिए अपने मोहपाश में बांध लेती है ।
एनसीसी की ड्रेस पहने हम युवाओं को सोंग वासी बडी ही कौतूहल से देख रहे थे । कुछ बुजुर्ग हमसे बातें करने लगते है । ज्यादातर पहाड़ी बोली मे जो हमे तब समझ तो आ जाती थी , पर बोल नहीं पाते थे । पता चला गाँव के कुछ लोग फौज में है । बाकी गाँव में ही रहकर खेती और पशुपालन का काम करते हैं । सड़क किनारे गाँव होने के कारण यह लोग आसानी से अपने उत्पादों को कपकोट भराडी और बागेश्वर के बाजार तक पहुंचा देते है । गौरतलब है कि तब सोंग तक ही रोड थी । अब तो पता चला है कि काफी आगे तक सड़क बन गई है और पिंडारी की पैदल यात्रा कुछ ही किलोमीटर की रह गई है ।
अगले दिन सुबह पांच बजे हम सोंग से आगे की ओर चल पड़ते हैं । लगभग उन्नीस किमी का सफर तय कर आज हमे अपने दूसरे पड़ाव धाकुरी पहुंचना था ।उबड़-खाबड़ डरावने पहाड़ी रास्ते पर चलते हुए मन में यह आशंका घर जाती है कि इस कठिन यात्रा को हम पूरी कर भी पाएंगे या नहीं । पांच किलोमीटर बाद हम लोहारखेत पहुंचे । छोटा सा गाँव । तब जनसंख्या 250 के आसपास होगी । गाँव के बीच मे कुमाऊँ मण्डल विकास निगम का रेस्ट हाउस भी है, जहा अल्प विश्राम के बाद हम लोग आगे को निकल पड़ते हैं ।
लोहारखेत में ‘ गरुड़पंजा ‘ नामक पौधे बहुतायत में पाए जाते हैं । सांप के फन की तरह दिखते इस पौधें को यहाँ के लोग सब्जी के रुप मे प्रयोग करते हैं । यहां से शुरू होती है सीधी चढाई । रास्ते में हमे एक बाबा मिले ।नाम पूछा तो बोले ‘ हिमालय बाबा ‘ । उन्होंने अपने झोले से इलायची निकालकर हमें दी और बताया कि पन्द्रह सालों से वे पिंडारी की ओर जाने वाले यात्रीयो को इलायची देकर अपने अनुभव साझा करते हैं । उनसे थोड़ी देर बात करने के बाद हम आगे बढ़ जाते है ।
इस रास्ते मे मुझे जंगल की वो सघनता नजर नहीं आई जिसकी मुझे आशा थी । वन्य जीव भी बहुत कम नजर आए । कुछ पक्षी जरुर चहकते हुए दिखे । शायद इनमें मोनाल भी रहा होगा जो अब राज्य पक्षी तो है पर इनकी संख्या बहुत कम है । वनस्पतियों तथा वन्य जीवों का हमारे जंगलों से गुम हो जाना चिंता का विषय है । पता चला यहाँ तस्करों की आवाजाही आम है जो गाँव वालो को डरा धमकाकर अवैध रुप से जीवों को मारने के अलावा जड़ी बूटियों की खुदाई और पेड़ो का कटान करते हैं । धाकुरी के आसपास का इलाका इसका उदाहरण है ।
हाथ में डंडा, पीठ पर पिटठू और कैमरा लटकाए ( तब कैमरा गिने चुने लोगों के ही पास था ) दोपहर दो बजे के करीब धाकुरी पहुंचते हैं । सोंग से धाकुरी तक की यात्रा एक कठिन परीक्षा है । पन्द्रह किलोमीटर का सफर तय करने मे हमें छह घंटों से अधिक का समय लगा। भूख के मारे हाल बेहाल था, पर मेरे कुछ साथी अभी पीछे ही थे । उनके इंतजार मे मैं पेड़ की छाया में बैठकर प्रकृति को निहारने लगा । ठीक सामने हमारे ठहरने के लिए टेंट लगे थे और पीछे नजर आ रही थी मकतोली और नंदाकोट की खुबसूरत सफेद हिम चीटियां ।
धाकुरी सुन्दर चित्रों वाले एलबम का प्रथम पृष्ठ सरीखा है । अत्यंत ही ठंडी जगह । साल भर गहन नींद में सोए रहने वाला धाकुरी यात्रा के दिनों में चहक उठता है । एक अस्थायी आवास गृह है । दो चार मकान भी नजर आए । गाँव शायद कहीं पहाडियों के पीछे होगा । धाकुरी से एक रास्ता सुन्दरढुंगा ग्लेशियर की तरफ जाता है तो दूसरा पिंडारी और काफनी की ओर ।
तडके अपने अपने टैंटो को छोड़कर हम ठंडी सर्द हवाओं के साथ अपने तीसरे पड़ाव की ओर चल पड़ते है । धाकुरी को छोड़कर जाने का मन तो नहीँ करता लेकिन नए सौदंर्य की तलाश में आगे बढ़ना जरुरी है । धाकुरी से संपूर्ण उत्तर दिशा मे फैली हिम चीटियां ऐसी प्रतीत होती है मानो देवी संपदा की सुरक्षा के लिए एक सिपाही की तरह नियुक्त हो । एक कदम पहले तक कुछ भी सामने नहीं होता, दूसरे ही कदम पर एक के बाद एक सुन्दर दृश्य ऐसे सामने आते हैं मानो किसी नववधु ने खुद ही अपना घूंघट पलट दिया हो और देखने वाला पूर्ण चन्द्र की तरह दमकते उसके सुन्दर मुखड़े को अभिभूत सा एकटक देखता ही रह जाए ।
लेकिन अब तक जो सुन्दर था सहसा भयावह व रोमांचकारी हो उठा । धाकुरी से आगे घना जंगल है । कभी सीधी चढाई तो कभी ढलान । पहाडों पर उतरना भी उतना ही खतरनाक है जितना चढ़ना । रास्ते भर छोटे छोटे गधेरे आपका स्वागत करते हैं । कुछ विदेशी यात्रीयो से भी मुलाकात होती है । इसी रास्ते मे हमें पिंडर नदी अपनी पूरी गति और यौवन के साथ बहती हुई मिली । पानी बर्फ़ की तरह ठंडा । रास्ता इतना संकरा कि एक बार में एक ही कैडेट आगे बढ सके वरना जरा सी असावधानी पर नीचे नदी में गिरने का डर
रास्ते में एक जगह है धौर । यहां हम सुस्ताने के लिए थोड़ी देर रुकते हैं । एक छोटी सी चाय की दुकान और एक बुजुर्ग । गाँव के कुछ और लोग भी है जो गपशप मे मशगूल हैं । सामने सीढ़ीदार खेतों मे महिलाएं काम कर रही है । चाय की चुस्कियां लेते हुए मै गाँव के कठिन जीवन संघर्ष के बारे मे सोचने लगता हूँ । जहां न शिक्षा की सुविधा है और न ही स्वास्थ्य की । यही संघर्ष इन लोगों को मजबूत बनाता है । खैर हम यहाँ ज्यादा देर रुक नहीं सकते । धौर से आगे झूला पुल द्वारा नदी पार कर हम अब दाई ओर दूसरी पहाड़ी पर चढने लगते है ।एक ओर आकाश चूमता पहाड़ है तो दूसरी ओर पिंडर की लय से बंधी आवाज । कुछ कैडेट गीत गा रहे है । प्रकृति के नैसर्गिक एकांत में गायन के स्वर मधुर लगते है । चिड़ियों की चहचहाट तथा पत्तों की सरसराहट इस सौदंर्य लोक में जैसे रंग भरने का काम करती है ।
कुछ किलोमीटर चलने के बाद हम पहुँचते है खाती गाँव ।शायद पन्द्रह बीस मकान होंगे । गाँव बहुत सुन्दर है । प्रकृति की गोद में रहने का आनंद । खाती में सुन्दरढुंगा और पिंडार धाराओं का संगम है । खाती मे जल प्रपातों का जो सिलसिला शुरू होता है वो उतरोतर बढ़ता ही गया । कुछ झरने तो इतने ऊंचे है कि पूरा प्रपात एक नजर में नही देखा जा सकता । यहां से नदी हम से लगातार लुकाछिपी करती है । कभी हम उसके साथ चलते है तो कभी दूर हो जाते हैं । यहां से हम कैडटो मे अपने अंतिम पड़ाव ‘ द्वाली ‘ तक जल्द से जल्द पहुंचने की होड़ शुरु हो जाती हैं । दोपहर ढलते ढलते हम अंतिम पड़ाव पहुँच जाते हैं ।
समुद्र सतह से लगभग 2575 मीटर की ऊंचाई पर स्थित द्वाली मे पिंडार व काफनी धाराओं का संगम है । बहुत ही ठंडी जगह है यह। हांड कंपकपाती ठंड । बर्फ के पहाड़ बिलकुल पास नजर आ रहे हैं । वहां पहुंचते ही देखा कि एक छोटे से मैदान में हमारे ठहरने के लिए तंबुओ की नगरी उभरी पड़ी है । एक तंबु मे आठ से दस लोग । इतनी ऊंचाई पर भी फौजी भाईयों द्वारा खाने का अच्छा इंतजाम । फौजी भाईयों के साथ उन खच्चरों को भी सलाम जो अपनी पीठ पर बोझा उठाए कई किमी चलकर यहाँ पहुँचते हैं ।
शाम को मैं तंबू से बाहर निकल पड़ता हूँ । रात चांदनी है । चंद्र ज्योतसना उस हिम प्रदेश के सौन्दर्य को और भी तरल बना देती है । कभी पारदर्शी धुंध के प्रकाश में उभरते हुए हिम शिखरों को देखता हूँ तो कभी नदी किनारे चट्टान पर जा बैठता हूँ । लेकिन चाकू की धार से भी तीखी हवा बार बार मुझे टैंट के भीतर धकेल देती है । टैंट के द्वार सख्ती से बंद कर दिए गए । हालांकि बार बार मन में बाहर झांकने की उत्सुकता जन्म लेती हैं पर भयानक ठंड व तेज हवाएं लक्ष्मण रेखा का काम करती है और हम कल की यात्रा के बारे में सोचते हुए अपने स्लीपिंग बैग में घुस जाते हैं ।
अगले दिन सुबह पांच बजे हम उठ जाते हैं । मन उत्सुकता से हिलोरे मार रहा है । आखिर आज उस जगह के दर्शन करने है, जिसके लिए कई परेशानियों को पार कर हम मंजिल के समीप पहुँचे है । छह बजे हम पूरी तरह से पैक होकर निकल पड़ते हैं पिंडारी की ओर जो 12 किलोमीटर दूर है । साथ मे जरुरी निर्देश देते कुमाऊं रेजीमेंट के जवान । रास्ता काफी जोखिम भरा है । धीरे-धीरे पाँच किलोमीटर चलने के बाद हम पहुँचते है ‘ फुरकिया ‘ । एक तरफ हिमालय तो दूसरी तरफ तेज शोर के साथ बहती नदी ।फुरकिया मे एक विश्राम गृह बना है, जिसके एक कमरे में लाग बुक रखी है । यात्री इसमे अपने संस्मरण दर्ज करते हैं । रास्ते भर दुर्लभ भोज वृक्ष भी नजर आते है पर इनकी संख्या बहुत कम है । पता चला गाँव के लोग ईंधन के लिए इन वृक्षों को काट देते है । इसे रोकने के लिए वन विभाग का कोई कर्मचारी इतने दुर्गम स्थान पर है भी नहीं । फुरकिया से आगे हिमनद का संसार शुरु हो जाता हैं । दोनों ओर की पहाडियों से हिमस्खलन का डर बना रहता है । तभी हमने देखा कि हम ग्लेशियर द्वारा निर्मित पुल के ऊपर से गुजर रहे हैं । प्रकृति अनजाने ही मनुष्य की मदद करती है पर हम उसके दोहन में कोई कसर नहीं छोड़ते ।
फुरकिया मे अल्प विश्राम और हल्का नाश्ता करने के बाद हम बढ चलते हैं और एक बजे के करीब पिंडारी पहुँच जाते हैं । चारो तरफ जहाँ तक नजर जाए बर्फ का आवरण ओढ़े धरती नजर आती है । बहुत ज्यादा ठंड, साथ ही आक्सीजन की कमी भी महसूस होती है । निरभ्र आकाश सी ऊंचाई पर हिम श्रेणियों के अद्भुत दर्शन को मैं कभी भूल नहीं सकता । यात्रा को तीन दशक से अधिक का समय हो गया पर यादें आज भी जेहन मे इस तरह ताजा है, जैसे कल ही की बात हो । ग्लेशियर के उच्चतम शिखर ट्रेलपास (5400 मी) से निम्नतम बिंदू जीरो पाइंट (3810 मी ) तक हिमनद के अवतरण का दृश्य अविस्मरणीय है । इस विपुल हिमराशि के नीचे से ही पिंडर नदी का उदगम है । लुभावने दृश्यों को मन मस्तिष्क में कैद करते हुए देर शाम हम वापस अपने टैंटो में पहुँचे ।
देर रात तक हम पिंडारी की सुंदरता पर चर्चा करते रहे । एक कभी न भूलने वाली यात्रा । अगले दिन सुबह साढ़े पांच बजे मै और कुछ साथी कैडेट जवानों के साथ काफनी ग्लेशियर की ओर जल्दी निकल पड़ते हैं क्योकि हमे ‘ बयालीगर ‘ नामक जगह पर कैडटो के लिए चाय बनाने का इंतजाम करना है । चाय काफी हद तक थकान हर लेती है और इतनी ऊँचाई पर यह किसी संजीवनी से कम नहीं । आखिर तीन घंटों की चढाई चढ़ने के बाद हम पहुँच जाते है- काफनी । एक बड़ा बर्फ का मैदान पर पिंडारी से कम खतरनाक । यहा पर अलग-अलग राज्यों से आए हम सभी कैडेट ग्रुप फोटो लेते है, अपनी यादों को संजोये रखने के लिए क्योकि फिर पता नहीं कभी दोबारा यहाँ आना हो पाएगा या नहीं । यहां पर हम एक घंटा ही रुकते हैं । हम सभी ने ट्रेकिंग का भरपूर लाभ उठाया । एक बात बता दूं कि हमने कहीं पर भी रत्ती भर भी कूडा नहीं छोड़ा । पर आजकल ट्रेकिंग जगहों पर लोग टनों कूडा छोड़ आते है ।
दस दिनों की इस रोमांचक यात्रा की वापसी तक हम हर राज्य से आए कैडेट से परिचित हो गए थे । ऐसा लगता था जैसे मिनी भारत इन पहाडियों पर सिमट आया हो। भाषा संबंधी दिक्कतें अवश्य थी, पर भावनात्मक लगाव अधिक महत्वपूर्ण था । लंबे समय तक कई कैडेट मित्रों के पत्र आते रहे । आज इस यात्रा वृतांत को लिखते हुए पुनः मन बरबस ही जैसे बादलों के पार इन ग्लेशियरों की यात्रा पर चला गया है ।