भुवन पंत
देवभूमि उत्तराखण्ड के वाशिंदे प्रकृति के उपासक रहे हैं । यों तो उत्सवधर्मिता सनातन की संस्कृति रही है, लेकिन देश में मनाये जाने वाले प्रमुख पर्वों के इतर देवभूमि के कुछ अपने विशेष लोकपर्व भी हैं- जैसे फूलदेई, हरेला, ओगिया, खतड़ुवा, हई दशैरा (जो अब लगभग विलुप्त सा हो चुका है) और उतरैणी या घुघुतिया आदि। ये सभी पर्व किसी न किसी रूप में प्रकृति से निकट का रिश्ता दर्शाते हैं। पर्व ही क्यों, हमारे तो धार्मिक संस्कारों में प्रकृति पूजा केन्द्र में रही है। पीपल, बरगद, तुलसी आदि जो भी वनस्पतियां पर्यावरण के लिए जितनी उपयोगी हैं, उन्हें धर्म का चोला पहनाकर संरक्षण व संवर्धन की बात कही जाती है। यहां तक की अन्तिम संस्कार के समय भी बारहवें दिन मृतक के नाम का पीपल का वृक्ष रोपित करने की परम्परा है क्योंकि पीपल सबसे अधिक प्राणवायु उत्सर्जित करता है। सच कहें तो यह मृतक के द्वारा अपने जीवन पर्यन्त उपभोग की गयी प्राणवायु को प्रकृति को उसका ऋण लौटाने की अनूठी परम्परा है। ये बात अलग है कि आज इस मौके पर भी पीपल की एक टहनी रोपित कर रस्म अदायगी की जा रही है लेकिन उस टहनी को भी क्षति पहुंचाकर एक तरह से यह प्रकृति के प्रति उपकार नहीं अपकार कहा जायेगा।
हरेला लोकपर्व भी एक तरह से प्रकृति के प्रति संवेदनाशीलता प्रदर्शित करने का पर्व है। यह लोकपर्व कर्क संक्रान्ति यानि श्रावण माह के प्रथम दिन मनाया जाने वाला त्यौहार है। इसी दिन सूर्य का कर्क राशि पर संक्रमण होता है और दक्षिणायन यानि सूर्य का दक्षिण की ओर प्रस्थान जो मकर संक्रान्ति पर्यन्त माघ के महीने की शुरूआत तक जारी रहता है। यों तो हरेला चैत्र व आश्विन माह की नवरात्रियों में भी बोया जाता है। चैत्र व आश्विन नवरात्रि का हरेला सभी बोते हों, ये भी जरूरी नहीं। यह पारिवारिक परम्परा पर निर्भर करता है और इसका संबंध सांस्कृतिक व प्रकृति संरक्षण से अधिक धार्मिक पक्ष से है, जब कि सावन माह का हरेला हर उत्तराखण्डी के घरों में बोया जाता है, बशर्ते कि इस त्योहार पर किसी के घर में कोई अप्रिय घटना न घटी हो।
चैत्र व आश्विन के हरेले का बोने का एक नियत दिन प्रथम नवरात्रि निश्चित है, जब कि सावन का हरेला अपनी पारिवारिक परम्परा के अनुसार 9, 10 व 11 दिन का बोया जाता है, लेकिन हरेला काटने का दिन नियत है ,जो श्रावण माह के पहले दिन कर्क संक्रान्ति को काटा जाता है। उत्तराखण्ड से इतर अन्य लोगों की जानकारी के लिए यह बताना आवश्यक है, कि हरेला बोने की रस्म क्या है। हरेला बोने से पूर्व अपने घर के आस-पास के खेतों की साफ-सुथरी मिट्टी को लाकर और सुखाकर कर चलनी से छाना जाता है, ताकि उससे कंकड़-पत्थर अलग हो सकें। अपनी परम्परानुसार नियत दिन को छोटी टोकरी, स्थानीय तिमिल के पत्तों के बने दोने अथवा किसी भी ऐसे डिब्बे में पहले से तैयार मिट्टी भरकर हरेले के बीज बो दिये जाते हैं, जिस पात्र में पानी निकासी की सुविधा हो। यह भी मान्यता लोकजीवन में प्रचलित है कि हरेले को बोने व काटने का कार्य प्रायः पुरुषों द्वारा किया जाता है, इसके पीछे के कारणों पर भी चर्चा इसी लेख में आगे की जायेगी। इसमें मुख्यतः सात अनाजों को बोया जाता है – जिसमें मक्का, धान, गेहूं, जौ, सरसों, तिल, उड़द, भट, गहत में से कोई सात अथवा पांच अनाजों के बीज बोये जाते हैं। इसे घर के किसी अन्धेरे कोने में रखा जाता है, ताकि हरेले की पौध का रंग पीला हो। हरेले के त्यौहार तक यानि 9, 10 व 11 दिन तक आवश्यकतानुसार पानी दिया जाता है और हरेले पर्व की पूर्व संध्या पर हरेले की निराई-गोड़ाई की जाती। गांव देहातों में इसे गोड़ने के लिए तीन मुंह वाले लोहे के तार से बने ’ताव्’ को उपयोग में लाया जाता है। यह ’ताव्’ पहाड़ों में पारम्परिक उपचार के लिए भी प्रयोग किया जाता रहा है। हरेले पर्व के दिन नित्यकर्म पूजा आदि के बाद घर के मन्दिर में गृहस्वामी द्वारा हरेले के सम्मुख धूप-दीप नैवेद्य अर्पण कर प्रतिष्ठित किया जाता है और फिर हरेला काटकर पहले घर के देवताओं को और उसके बाद घर के बुजुर्गों द्वारा सुख, सम्पन्नता, आरोग्य एवं दीर्घायु की कामना के साथ पूरे परिवार के सिर में आशीष रूप में हरेले के तिनड़े रखे जाते हैं। इसके लिए एक प्रचलित आशीष – ’’ जी रयै, जागि रयै ………..’’ आशीर्वचन देने की परम्परा है। हरेले के तिनड़े घरों के द्वारों पर भी लगाने की पुरानी परम्परा थी, जो अब देखने को कम ही मिलती है। अन्य त्योहारों की तरह विभिन्न पकवानों के साथ हरेला पर्व सम्पन्न होता है।
हरेला पर्व मनाने की इस परम्परा से तो लगभग हर उत्तराखण्डी वाकिफ है लेकिन इसको मनाने के पीछे क्या उद्देश्य रहा होगा इस पर लोग अपनी-अपनी सोच के अनुसार तर्क देते हैं। यद्यपि हरेला पर्व के संबंध में कोई पौराणिक साक्ष्य नहीं है, जाहिर है कि यह पर्व पर्वतीय समाज की अपनी सोच है। दरअसल यह उस समाज की परम्परा का हिस्सा है, जब बहुसंख्यक लोग कृषि पर निर्भर थे और गांवों में रहते थे। आज की तरह न उनके पास उन्नत तकनीक थी और न ऐसी मृदा परीक्षण जैसी प्रयोगशालाऐं, लेकिन उन्होंने अपने सीमित साधनों से मृदा परीक्षण का यह नायाब तरीका ढूंढ निकाला कि कोन सी मिट्टी किस फसल के लिए उपयुक्त साबित होगी। इसका परिक्षण हरेले में बोये जाने वाले विभिन्न अनाजों के पौधों की बढ़त से साबित होता। हरेले में जिस बीज की पौध सबसे अच्छी उगती है वह मिट्टी उस फसल के लिए उपयुक्त मानी जा सकती है। दूसरी ओर हरेले में प्रयुक्त होने वाले अनाज के बीजों का भी यह एक बीज परीक्षण का साधन था, कि बोये जाने वाले बीज ठीक तरह से जम रहे हैं अथवा नही ? वे भण्डारण करने के उपयुक्त हैं अथवा नही ? है ना, हमारे पूर्वजों की अनोखी सोच जिन्होंने इस परीक्षण के बहाने ही एक पर्व की ही परम्परा शुरू कर दी।
हरेला पर्व मनाने के पीछे एक और कारण से भी इन्कार नहीं किया जा सकता। आपने बड़े-बूढ़ां का यह कथन अवश्य सुना होगा कि हरेले पर रोपित पौधे आसानी से जड़ पकड़ लेते हैं। गांवों में अधिकांश लोग पेड़ों की कटिंग(टहनियों) इस दिन रोपते हैं, जो कुछ समय बाद पौध बन जाती है । कारण, हरेले के मौसम में पर्याप्त बारिश होती है और जमीन में नमी बनी रहती है। इसलिए हमारे पूर्वजों ने हरेले के बहाने वानिकी व पौधारोपण के लिए अनुकूल समय का चयन किया होगा।
हरेले को बोने एवं काटने के लिए पुरुष को ही अधिकृत क्यों किया गया है, यह सवाल दिमाग में उठना स्वाभाविक है। हमारे सनातन दर्शन में पुरूष व प्रकृति का उल्लेख है। हालांकि यह एक व्यापक विषय है, प्रकृति जड़ है और पुरूष चेतन। लेकिन यदि हम आम भाषा में समझें तो शिव, पुरुष स्वरूप है और प्रकृति, शक्ति यानि स्त्री स्वरूप। जड़ प्रकृति स्वयं अपना संरक्षण नहीं कर सकती, इसलिए इस निमित्त पुरुष को यह दायित्व दिया गया प्रतीत होता है।
भले ही आज हम महानगरों की बहुमंजिली ईमारतों में रहते हों, जिनका कृषि से कोई वास्ता नही है, लेकिन फिर भी हरेला बोने की परम्परा पर्वतीय समाज के लोगों में बदस्तूर जारी है, इसके पीछे यह भी मान्यता है कि हरेला बोना किसी वर्ष छोड़ा नहीं जाता। पर्वों और अपनी संस्कृति व परम्पराओं के प्रति सम्मान एक अच्छी बात है, भले हम कहीं भी रहें ताकि आने वाली पीढ़ियों को हम अपनी परम्पराओं से परिचित करा सकें और हमारी यह गौरवमयी संस्कृति यों ही फलती-फूलती रहे। हरेला पर्व की सभी को शुभकामनाऐं।