राजीव लोचन साह
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के व्यक्तित्व की दो परस्पर विरोधी विशेषतायें हैरान करती हैं। एक ओर वे वाचाल हैं और आकर्षक ढंग से बिना रुके घंटों धाराप्रवाह बोल सकते हैं। मुख्यधारा का मीडिया, जिसे सामान्य बोलचाल में आजकल ‘गोदी मीडिया’ कहा जाने लगा है, भी उनके वक्तव्यों को बहुत कौशल से प्रकाशित-प्रसारित करता है। उनके वक्तृत्व के कारण उनके करोड़ों प्रशंसक हैं और सोशल मीडिया पर दुनिया के बड़े-बड़े राजनेताओं से अधिक उनके फॉलोवर्स हैं। इनमें से बहुत सारे, जिन्हें आजकल की राजनैतिक शब्दावली में ‘अंधभक्त’ कहा जाने लगा है, बिना शक-शुबहा किये उनकी हर बात पर आँख मूँद कर विश्वास करते हैं। इसीलिये पिछले नौ सालों में, जब से राष्ट्रीय फलक पर मोदी का आविर्भाव हुआ है, वे अपवादस्वरूप एक-दो स्थानों को छोड़ कर सर्वत्र अपनी पार्टी भाजपा को जिताते आ रहे हैं। मगर उनके व्यक्तित्व का दूसरा हिस्सा वह है, जहाँ वे चुप्पी मार जाते हैं और कई तरह से उकसाने पर भी मुँह नहीं खोलते। न बोलना या कम बोलना भी राजनेताओं का एक गुण है। पूर्व प्रधानमंत्रियों, पी. वी. नरसिंहाराव और डॉ. मनमोहन सिंह, को भी कभी-कभी मजाक में ‘मौनी बाबा’ कह दिया जाता था। मगर नरेन्द्र मोदी तो अपनी चुप्पी में अनेक बार अपने इन पूर्ववर्तियों से भी आगे निकल जाते हैं। इस चुप्पी से उनके कट्टर समर्थक भी भ्रमित हो जाते हैं। हाल की कुछ घटनायें लें। विपक्षी नेता एकजुट होकर हफ्तों तक अडानी के साथ उनके सम्बन्धों का खुलासा करने की माँग करते रहे। संसद ठप्प रही। मगर प्रधानमंत्री नहीं बोले तो नहीं बोले। अभी दिल्ली में महिला पहलवाल धरने पर बैठी हैं। उनके प्रशंसक होने के बावजूद प्रधानमंत्री इस बारे में चुप हैं। पूर्वोत्तर में जबर्दस्त जातीय हिसा हुई है। मगर इस मामले में भी उनका कोई वक्तव्य सामने नहीं आया है। सरकार की ओर से कुछ मंत्री अवश्य इन मामलों में कुछ बोलते हैं। मगर जनता का उन पर विश्वास नहीं है, क्योंकि जनता तो मोदी को वोट देती है, किसी एैरे-गैरे को नहीं।