राजीव लोचन साह
पिछले एक दशक में देश के जिन क्षेत्रों में सबसे ज्यादा बदलाव आये हैं, उनमें से एक है मीडिया। इससे पहले मीडिया सरकार से लगातार सवाल पूछता हुआ, उसके कामकाज को निर्मम होकर तौलता हुआ लोकतंत्र का एक मजबूत चौथा स्तम्भ था। जिस व्यक्ति को कहीं भी न्याय नहीं मिलता था, वह उम्मीद करता कि कम से कम अखबार वाले तो उसकी बात सुनेंगे ही। वह स्थिति अब पूरी तरह बदल गई है। अब मीडिया का काम सरकार की गलतियों को नजरअंदाज करना, उसकी वाहवाही करना, उससे जरूरी सवाल पूछ कर उसे असहज न करना और कई बार तो एक कदम और आगे जाकर ऐसे नैरेटिव तैयार करना, जिससे सत्ताधारियों को सहूलियत हो; करना रह गया है। इस मीडिया को एक नाम भी दे दिया गया है, ‘गोदी मीडिया।’ यानी ऐसा मीडिया जो सरकार की गोद में बैठ कर काम कर रहा हो। यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि देश इस वक्त जिन समस्याओं का सामना कर रहा है और उनसे पार पाने का कोई रास्ता नहीं निकल पा रहा है, उसके पीछे मीडिया का यह बदला हुआ चरित्र ही जिम्मेदार है। यदि मीडिया ईमानदार हो जाये तो जनता सजग हो जायेगी और उसकी सक्रियता से चीजों के ठीक होने का क्रम भी शुरू हो जायेगा। चिन्ताजनक बात यह है कि मीडिया की यह स्थिति एकदम निचले स्तर पर भी आ गई है। इसी एक दशक में डिजिटल मीडिया का जबर्दस्त विस्तार भी हुआ है। शहरों, कस्बों, यहाँ तक कि गाँवों में भी डिजिटल मीडिया स्वरोजगार की तरह खड़ा हुआ है। छोटी से छोटी जगह में भी पन्द्रह-बीस ब्लॉग्स का होना सामान्य बात हो गई है। जिन प्रोफेशनल पत्रकारों के लिये व्यावसायिक मीडिया के दरवाजे बन्द हो चुके हैं, उन्हें इस विधा में आश्रय मिला है तो जिनके लिये पत्रकारिता एक ग्लैमरस रोजगार है, उनके लिये एक नया रास्ता खुला है। इस विधा को सरकारी विज्ञापन तो मिलने ही लगे हैं, ये पत्रकार अपने पुरुषार्थ से छोटे-छोटे विज्ञापन लेकर जिलावार पन्नाबदल दैनिक अखबारों के लिये चुनौती भी पैदा कर रहे हैं। मगर इन ब्लॉगों को सरकारी विज्ञापन मिलने की शर्त यह है कि वे सरकार के विरोध में कुछ नहीं बोलेंगे। अतः ये ब्लॉग्स प्रदेश सरकार और जिला प्रशासन के प्रेस नोट ही छापने को मजबूर हैं। फर्जी विकास के दावे और सनसनीखेज क्राइम की घटनायें ही इनमें मिलती हैं। जनता के दुःख-दर्दों और असली समस्याओं से ये भी उसी तरह कट गये हैं, जैसे राष्ट्रीय स्तर का गोदी मीडिया।