अरुण कुकसाल
हम थैं द्यावा होली कू दान,
तुम थैं द्ययालू श्रीभगवान
’हमें होली का दान दो,
आपको श्रीभगवान देंगे’
देर रात तक तल्ली-मल्ली चामी से हारमोनियम और ढोलक की आवाज हम बच्चों को सुनाई देती रहती। अजीब तरह के गाने-‘अ अ आ आ ऽ ऽ’ हमारी समझ से परे। रात का खाना-पीना खाकर गांव के पुरुष बिचला खोला में तो महिलायें हमारी घर के उबरे में नाच-गाना करते। पर वैसा नहीं जैसा थाड़ में (गांव का सार्वजनिक स्थल) हम अक्सर उन्हें नाच-गानों में देखते थे। ’अरे छरडी आण वलि च रे‘ बच्चू ने बोला। अब कर लो बात। छरडी आण के मायने तब हम कटै (जबरदस्त दस्त लगना)/पेट खराब होना ही मानते थे। ‘अबे ऊ न’ तब क्य? जबाब किसी के पास नहीं। आजकल रोज शाम होते ही इन बैठकों की तैयारी शुरू हो जाती। हम कभी तल्ली-मल्ली चामी में मर्दों की महफिल में तो कभी महिलाओं की संगत में घुस जाते, बे रोक-टोक। बच्चे जो ठैरे। पर पल्ले कुछ पड़ता नहीं था।
ऐसे ही एक दिन गांव के बड़े भाई लोगों ने बांसेर/गधन से लम्बी-लम्बी बांस की लांग लाकर उसे हाथ भर की लम्बाई में बहुत से टुकड़ों में काट कर अपने-अपने चौक में सुखाने रख दिया। जगंल से न जाने कितने प्रकार के रंग-बिरगें फूल लाये हैं वो। ‘बांसल पिचकरी अर फूल्यूं स्य रंग बंणन, बल’ फिर बच्चू बोला। उसके बडे भाई लोग उसे बताते थे। इसीलिए हम बच्चों में ज्यादा ज्ञान रखने वाला हुआ वह। पर कीलियर वो भी नहीं कि आगे ऐसा क्या त्यौहार आ रहा है। अब तो कई रातों से थाड में भी थ्यड्या गीत और नाच होने लगा। मां और दीदियों के साथ रात को थाड़ में होलिका दहन देखा तो तब पता लगा कल होली है। थाड़ में होली जली कि पुरुष लोग वहां से अलग हो गए अब केवल महिलायें और हम बच्चों का राज है वहां। गोल घेरे में एक-दूसरे का हाथ-कमर पकडे़ गांव की महिलायें नाचती हुई होली के गीत गाती। हम बच्चे उनके आगे-पीछे केवल सामूहिक स्वर में हो, हो, हो ही चिल्लाते। अर बे रंग-रंगडु अर म्वाल भी लगंदिन भ्वाल’ हम बच्चों की बातचीत होती रहती। घर पर हम अपनी पिचकारी लेकर ही सोते। भाई-बहनों से चुरने का जो डर रहता था। दूसरे दिन सुबह से ही ढोलक की थाप की आवाज अपने ही गांव से ही नहीं वरन भेटी, कंडारपाणी, सीरों, बलिणगांव, सुरालगांव से भी सुनाई देती थी। हमें दादा जी और मां की सख्त हिदायत रहती कि गांव से बाहर नहीं जाना। फिर भी चोरी-छिपे गांव के बडे लडकों के साथ हमारे चिल्लर साथी होली गीत गाते हुए दूसरे गांवों की ओर भी चले जाते थे। अन्य गांव के लोग की टोली पर टोली के रूप में हमारे गांव के हर चौकों पर आ-जा रहे होते थे। ढोलक की थाप पर वे नाचते हुए गाते ‘हमथैं द्यावा होली कू दान, तुमथैं दैलू दयालू श्रीभगवान’ ‘ख्वल द्ववा स्यठ्य जी बट्टव का मुखः, दान दीण मा नि होंण दिक्य’ ‘होली कू दान स्वर्ग समान’। होल्यारों को दादा जी भेली के टुकडे देते जा रहे थे। दादा जी कहते ’ये साल त साब गजब ह्वे गाय 7 भ्यलि लगगिन भाय।’
गांव से पहली बार निकल कर पिताजी के साथ हमारे परिवार का रुद्रप्रयाग आना हुआ। होली का त्यौहार आते ही पिछले साल की गांव की होली याद आने लगी। पर यहां बाजारी पिचकारी और रंग हमें बहुत भाये। जब्तोली, बेलणी और मेन बाजार तक होली के जलूस में हम शामिल होते। एक से बढ़कर एक ढोलची और गाने वाले। क्या कहें लगता सब अपना गला आज ही फाड डालेंगें। अब होली का मतलब मुझे आने लगा था। पिताजी का ट्रांसफर जोशीमठ हुआ तो अब अगले साल की होली जोशीमठ में ही मनाना लाजिमी था। अमूमन फरवरी-मार्च महीने में होली होती तब बर्फ से पूरा जोशीमठ लदा रहता। पर होली तो होली है। क्या बर्फ और क्या ठंड। होली के दिन सुबह घर से निकले तो दोपहर बाद ही वापस घर आना होता हमारा। सिंहधार, पीएसी, नरसिंग बाडी, अपर और लोअर बाजार पूरे जोशीमठ का चक्कर हौल्यारों के साथ लगाना ही होता। हम हौल्यारों की टीम में एक घ्वजावाहक के तौर पर आगे रहता उसके पीछे-पीछे होली गाते हुए परिचित-अपरिचितों के घरों और विशेष कर मिलेट्री के बैरकों की ओर जाते। चाय-पकौडी और मिठाई खाने की तो बहार ही रहती। लोगों द्वारा हम बच्चों को चंदे में दिये अच्छे-खासे याने आठ-दस रुपये जमा हो जाते। तब वो महान धनराशि हम सबमें बंटती। कई दिनों का सेल-खस्ता खाने का जुगाड हो जाता।
जोशीमठ से पिताजी का लगभग 6 साल बाद सन् 1972 में स्थानान्तरण काशीपुर हुआ। पहला मैदानी नगर हम भाई-बहिनों ने काशीपुर ही देखा। पहाड़ से उतरकर पलैंस में रहने का रोमांच अदभुत था। हर चीज हमारे लिए नई और अनूठी। रिक्शा, रेलगाड़ी, पिक्चर हाल, सरदार, गन्ना, गोलगप्पे, आईसक्रीम और भी बहुत कुछ हमने देखा तो क्या सुना भी नहीं था। काशीपुर शहर और वहां के लोगों के प्रति कई महीनों तक जबरदस्त कौतूहल रहा। कटोराताल मौहल्ले के शक्ति सदन में हम रहते थे। होली आने को हुई तो बैठकी से लेकर खडी होली आने तक लोग होली की मस्ती में ही रहते। होली के गानों के सामूहिक स्वर दिन-दोपहर से लेकर देर रात तक हर नुक्कड़ पर सुनाई देते। ठेठ जैसे अपने गांव में बरसों पहले सुनाई देते थे। कुमाउंनी होली के पहले दीदार यहीं हुए। होली के एक से बड़कर एक कलाकार और नमूने। काशीपुर तब बहुत बड़ा नहीं था और मैदानी लोगों के आर्थिक वर्चस्व के बावजूद भी उसकी सांस्कृतिक पहचान कुमाउंनी ही थी। ‘झुकी आयो शहर में व्यौपारी’ और ‘तू कर ले अपनो ब्याह देवर, हमरौ भरोसो झन करिए’ होली गीत मैने पहले पहल काशीपुर में ही सुने।
काशीपुर दो साल रहना हुआ। मतलब काशीपुर की दो होलियों को खेलने के बाद पिताजी का ट्रांसफर टिहरी हो गया। टिहरी में पुराना बस अड्डा में हमारा परिवार रहता था। किशोरावस्था में टिहरी नगर का साथ मिलना, एक सुखःद संयोग ही रहा। टिहरी नगर जो अब धरती के भूगोल से हटा दिया गया, गजब का शहर था। राजनैतिक-सामाजिक संघर्षों की पहचान वाला टिहरी नगर विविध सांस्कृतिक हलचलों से हर मौसम में गुंजायमान रहता। यहां की होली की तो बात ही निराली रहती। दोबाटा से लेकर ’भादों की मगरी’ तक होली के कई रूप देखने को मिलते। होली के दिन घर से सुबह के निकले हम देर शाम तक ही वापस हो पाते थे। मांजी की कस कर डांट पडती। पर टिहरी की होली के नाच और मण्डाण के लिए कुछ भी त्यागा और सहा जा सकता था। पुराने टिहरी नगर की एक विशेषता यह रही कि इस नगर में उत्तराखण्ड के हर क्षेत्र की संस्कृति अपने मूल स्वभाव में ही जीवन्त रहती थी। होली के त्यौहार में लोगों की सांस्कृतिक विविधता हौल्यारों के उत्साह को और भी उकसाती थी। पूर्वियाणा मौहल्ले में कुमाउंनी होली तो दोबाटा में अठूर की रंगीली होली, बस स्टेशन-सुमन चौक में बाजारी होली तो भादों की मगरी में जाकर होली का एक अलग ही आनन्द आता। पुराना राजदरबार और राजमहल में होली की ठसक की बात ही कुछ और थी।
टिहरी में होली में बोझा ढोने का काम करने वाले नेपाली बहादुरों के रंग-ढंग देखने लायक रहते। वे अपने आप में ही नेपाली लोक-गीतों की धुन में मदमस्त रहते। शहर की तमाम होलियों को देखने और खेलने के बाद तीन धारा में स्नान के लिए हम सभी साथी जुटते। होली के मौके पर ही तीन धारा में अपने कपडे धोते तब एक नेपाली बहादुर ने बड़ी ऊंची आवाज में गा-गा कर अपनी जीवन व्यथा इन लाइनों में बताई थी, ‘ट्व्वपि मैलि घ्वति मैली ध्वे दिनो क्वी छयो ना। परदेश मा मरियूं ज्वल्या रूवै दिनो क्वी छयो ना।’ टोपी और धोती मैली है धोने वाला कोई है नहीं, परदेश में अगर मर भी जायेंगें तो रोने वाला भी कोई नहीं है।
टिहरी के बाद पिताजी के ट्रांसफर का अगला पड़ाव अल्मोड़ा रहा। मैं बडे भाई साहब के साथ पढने रानीखेत आ गया। चौबटिया गार्डन में हम रहते थे। उन दिनों वहां गढ़वाल रेजीमेंट तैनात थी। होली के मौके पर सेना के जवान और अफसरों की होली एक अलग ही अन्दाज में देखने को मिलती। और दिनों की कड़क और अनुशासन उस दिन कुछ ढीला रहता। सैनिकों में भी एक से एक होली गायक मिलते। एक साल तो होली के दिन बर्फ गिर रही थी। लगा होली का उत्साह कम होगा। पर कहां मानने वाले हुए हौल्यार। वही जोश-खरोश। ‘हो हो होलक रे, हो हो होलक रे’ ‘तुम जी रया लाख सौं बरीस’। तक धिना धिन में मस्त होने वाले हुए नये फौजी रंगरूट। तब बरफ में होली खेल कर उस साल जोशीमठ की बचपन वाली होली की याद आ ही गयी।
रानीखेत से हमारे परिवार का श्रीनगर आना वर्ष 1980 में हुआ। श्रीनगर में होली खेलने का आनन्द केवल परिवारजन तक ही सीमित रहा। श्रीनगर से मेरठ तो वहां से लखनऊ। लखनऊ कई साल रहना हुआ। लखनवी होली अपने आप में ही मशहूर रही है। पर यहां भी हम पहाड़ियों का ठेठ कुमाउंनी अंदाज में ही खेलने का रहा। होली के दिन लगता पूरा कुमाउं ही लखनऊ आ गया हो। उस दिन पता लगता कि पहाड़ के लोग बहुत बड़ी तादाद में लखनऊ में हैं। गिरि विकास के फैलो पी.एन. पाण्डे जी जब ‘उडि, उडि भवंरा उडि उडि’ करके होली गाते तो मन तर-बतर हो जाता। होली की मस्ती में उस दिन न जाने क्यों अपना पहाड़ ज्यादा ही याद आने लगता। कुछ तो होली का नशा और कुछ घुटक लगाये हुए पहाड़ी लोग तब पहाड़ की नराई में ही खोये रहते।
लखनऊ लगभग 11 साल रहने के बाद वर्ष 1996 में वापस सपरिवार श्रीनगर आया। तब से होली के मौके पर श्रीनगर ही रहना होता है। उत्तराखण्ड बनने को सीमा रेखा माने तो राज्य बनने से पहले होली का उत्साह बच्चों से लेकर सयानों तक में देखते ही बनता था। बच्चे होली के चंदे के लिए सारे घरों को छान मारते थे। होलिका दहन कितना बढ़िया और भव्य हो उनका ध्येय रहता। पर अब होली कब आयी और चली गयी, अहसास ही नहीं हो पाता। होली के दिन घर के आगंन से बाहर जाना भी नहीं हो पाता। बस दिन के दो बजने का इंतजार करते-करते मन कहता कि जिसे आना है, वो आए और टीका-पिठाई करके ‘होली है होली है’ की रस्म अदायगी करके वापस चला जाय। ‘होली है होली है’ की ध्वनि ही वाकई में हमें अहसास दिलाती है कि ‘हां आज होली है’। वरना होली का वो उत्साह और उमंग तो पता नहीं कौन-कब लूट कर ले गया अपने से। अपनी तो होली हो ही ली। ये किस बात का और कैसा सांस्कृतिक सूखापन हमारे जनजीवन में पसर गया है। मैं तो नहीं समझ पा रहा हूं आपने समझा हो तो जरूर बताना।
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