सी पी राजेन्द्रन
‘डाउन टू अर्थ’ से साभार
उत्तराखंड के जोशीमठ में आपदा रातों-रात नहीं आई है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा हाल ही में साझा की गई सैटेलाइट तस्वीरों सहित अन्य कई अध्ययनों में पाया गया कि यह शहर पिछले कुछ समय से दरक रहा था। दिसंबर-जनवरी के केवल 12 दिनों में लगभग 5 सेंटीमीटर दरकने से पहले यहां की जमीन अप्रैल से नवंबर के बीच लगभग 9 सेंटीमीटर धंस चुकी थी।
यदि हमने आपदा से पहले भू-धंसाव की निगरानी की होती, तो हम उसके लिए तैयार हो सकते थे। यह उन कारकों की पहचान करने में भी हमारी मदद करता, जिसके कारण यह स्थिति पैदा हुई। निगरानी करने के लिए हमारे पास सभी सुविधाएं हैं, फिर भी हमने कुछ नहीं किया। जोशीमठ क्यों धंस गया, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह समझने में हमारी चूक हुई।
अभी के लिए हमारे पास बस अटकलें हैं कि वहां क्या हो सकता था। आमतौर पर जमीन तब दरकती है, जब जलभृत (एक्विफर) में जमा भूजल (ग्राउंडवाटर) रिसने लगे। टनलिंग और अन्य इंजीनियरिंग परियोजनाएं जलभृत को नुकसान पहुंचाती हैं, जिससे भारी मात्रा में पानी की निकासी होती है। नतीजतन भूछिद्रों का दबाव कम हो जाता है और मिट्टी सिकुड़ने लगती है।
भूजल की कमी दुनिया भर में अब आम है। यहां जोशीमठ में हमें यह समझने की जरूरत है कि किन कारणों से भूजल का नुकसान हुआ है। अब उन घटनाओं को समझने और अधिक विस्तृत अध्ययन के लिए विशेषज्ञों की नियुक्ति की जा रही है।
10 जनवरी, 2023 को केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह ने कहा कि सरकार जोशीमठ में कई सूक्ष्म-भूकंपीय अवलोकन प्रणाली स्थापित करेगी ताकि तीन से कम तीव्रता वाले छोटे भूकंपों का पता लगाया जा सके। लेकिन मुझे नहीं लगता कि इस घटना का भूकंप से कोई लेना-देना है। निस्संदेह जोशीमठ सहित विभिन्न हिमालयी क्षेत्रों में भूकंप सहित सभी प्रकार की भूगर्भिक गतिविधियों की निगरानी आवश्यक है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि सूक्ष्म भूकंपीय गतिविधियों को इस घटना के मामले में दोष दिया जाना चाहिए।
हां, बड़े भूकंप भूस्खलन में योगदान कर सकते हैं। भूकंप तब आता है जब पृथ्वी के दो प्लेट एक-दूसरे के ऊपर या नीचे गति करते हैं। जोशीमठ में प्लेटों के विरूपण की ऐसी कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं की गई है। हालांकि लंबे समय तक चलने वाली सूक्ष्म भूकंप गतिविधियां भी भूस्खलन में योगदान देती हैं। केवल सेंसर से ही ऐसी गतिविधियों को पता चल सकता है। लेकिन अगर सूक्ष्म भूकंप इस घटना के जिम्मेदार होते तो जोशीमठ और आसपास के इलाकों को भी ढह जाना चाहिए था। लेकिन धंसाव की यह घटना सिर्फ एक कस्बे तक ही सीमित है। इसरो भी ऐसी घटनाओं के लिए किसी सूक्ष्म भूकंप गतिविधि को जिम्मेदार नहीं मानता है।
इस आपदा को एक आश्चर्य के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। हम लंबे समय से जानते हैं कि जोशीमठ धंसने की स्थिति में है। गढ़वाल के तत्कालीन कलेक्टर एमसी मिश्रा की 1976 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि जोशीमठ एक पुराने भूस्खलन क्षेत्र पर स्थित है। उन्होंने चेतावनी दी थी कि अगर होने वाला विकास अनियंत्रित रहा, तो शहर दरक सकता है। उन्होंने सिफारिश की थी कि कस्बे में निर्माण कार्यों पर रोक लगाई जाए। हमारे पास रिपोर्ट थी, हमारे पास चेतावनियां थीं। हमें और सावधान रहना चाहिए था, क्षेत्र की वहन क्षमता को मापा जाना चाहिए था। अगर हमने ऐसा किया होता तो जोशीमठ शायद धंसने से बच जाता।
हिमालयी क्षेत्र में नदियां, खड़ी ढलानें और जंगल सभी होते हैं। रास्तों का निर्माण करने से पहले हमें यह समझना चाहिए कि कोई विशेष क्षेत्र उक्त निर्माण के लिए उपयुक्त है या नहीं। हम पहाड़ों में मैदानी इलाकों की तरह इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं बना सकते। सड़क निर्माण टिकाऊ होना चाहिए और इससे भूस्खलन नहीं होने चाहिए। यहां पर बाढ़ के मलबे के ऊपर कई इमारतों का निर्माण किया गया है। इससे बाढ़ आने का खतरा और बढ़ता है। हिमालयी क्षेत्र ने कई आपदाएं देखी हैं और हम यह भी जानते हैं कि इन आपदाओं का कारण क्षेत्र में हुईं कुछ बड़ी इंजीनियरिंग परियोजनाएं हैं। ये हमारे पर्यावरण को प्रभावित कर हिमालयी ढलानों को अस्थिर करती हैं। 2021 में चारधाम यात्रा में 5,09,503 पर्यटक आए थे। यदि हम इस क्षेत्र को हाई-स्पीड रेलवे और मोटर ट्रैफिक के लिए खोल दें तो लाखों लोग और आएंगे। इन्हें विनियमित करना आसान नहीं होगा।
इसके अलावा हिमालय एक सक्रिय भूकंपीय क्षेत्र है, जो कि एक अतिरिक्त खतरा है। भविष्य में बड़े और भयानक भूकंप इस क्षेत्र में आ सकते हैं। हम अभी भविष्यवाणी नहीं कर सकते कि यह कब होगा लेकिन वहां काम कर रहे वैज्ञानिकों का कहना है कि हमें इस तरह की घटनाओं के लिए तैयार रहने की जरूरत है। इसरो द्वारा डेटा जारी करने के बाद 13 जनवरी को राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) ने सरकारी संस्थानों के वैज्ञानिकों को जोशीमठ की घटना से संबंधित मामलों पर मीडिया के साथ बातचीत करने या सोशल मीडिया पर डेटा साझा करने से मना कर दिया। इस तरह के प्रतिबंध खतरनाक हैं। मेरा मानना है कि इस समस्या का समाधान तभी और बेहतर ढंग से हो सकेगा, जब लोगों के पास इससे संबंधित जानकारी हो और मीडिया इस जानकारी को फैलाने में मदद कर सकता है।
इस खतरे से लड़ने के लिए हमारा वर्तमान रास्ता टिकाऊ नहीं है। 2013 की केदारनाथ आपदा आंखें खोलने वाली थी। उस समय लोगों ने खतरे पर ध्यान दिया और विकास की टिकाऊ रणनीति बनाने पर चर्चा की थी। हमें भूमि उपयोग की उचित रणनीति बनाने और उसे सख्ती से लागू करने की जरूरत है। साथ ही हमें वहां सदियों से रह रहे लोगों की भी बातें सुनने की जरूरत है।
हिमालयी क्षेत्र में बहुमंजिला इमारतों के निर्माण में हमारे नए इंजीनियरिंग तरीके प्रतिकूल साबित हो सकते हैं। इलाके की वहन क्षमता को ध्यान में रखकर बनाई गई एक कार्यान्वयन योजना समय की जरूरत है। हमें इस क्षेत्र की निगरानी जारी रखनी चाहिए और पिछली दुर्घटनाओं व आपदाओं से सीखना चाहिए।
हमें संवेदनशील हिमालयी क्षेत्रों में मानवीय हस्तक्षेप को कम करने के लिए योजनाएं तैयार करनी चाहिए। विकास के नाम पर हम जो कर रहे हैं, उसे भी रोकना होगा। सरकार का तर्क है कि ढांचागत विकास से रोजगार बढ़ेगा, लेकिन इस क्षेत्र में इसके विपरीत प्रभाव पड़ रहे हैं। लोग अपनी आजीविका और घरों को खो रहे हैं। बिना सोचे समझे किए गए विकासात्मक गतिविधियों के गंभीर परिणाम होते हैं और हमें उनके बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए।
इलस्ट्रेशन: योगेन्द्र आनंद
(रोहिणी कृष्णमूर्ति से बातचीत पर आधारित)