चंद्रकला
इस्लाम हुसैन साहब से कई मौकों पर मुलाकात हुई। लेकिन उनकी हैसियत से मैं वाकिफ नहीं थी, कहानी की फनकारी से तो बिल्कुल भी नहीं। मेरी दीदी हेमलता से उनके बारे में तब जानकारी मिली जब “पहाड़ बेच डालो” कहानी संग्रह का प्रूफ पढ़ते हुए मैं कुछ कहानियों मसलन ” सा ब भैंस भाग गई, गांव में खडंजा, पहाड़ बेच डालो” से प्रभावित हुई और उनसे इन पर चर्चा हुई।
इन कहानियों में भ्रष्टाचार की बारीकियों को उजगार करते हुए लेखक का सामाजिक सरोकार जिस स्पष्टता से जाहिर होता है उतना ही यह भी कि उनका समाज को देखने का नज़रिया कितना विविध है। इस पुस्तक की कहानियों को पढ़ते हुए अवरोध नहीं आता बल्कि स्थानीय परिवेश की छोटी_ छोटी घटनाओं और समस्याओं को पिरो कर लेखक ने जिस तरह पाठकों के समक्ष रखा है उस प्रवाह में एक बार में ही पूरी क़िताब पढ़ी जा सकती है।
इस्लाम हुसैन साहब के इस कहानी संग्रह को समय साक्ष्य प्रकाशन देहरादून से प्रकाशित हुए लगभग पांच माह हो गए हैं। 113 पृष्ठों में सिमटी 17 छोटी _बड़ी कहानियां हमारे समाज की जड़ों तक पहुंच गए भ्रष्टाचार के कई आयामों को दिखाती हैं। वर्तमान व्यवस्था, विशेषकर सरकारी विभागों में मौजूद भ्रष्टाचार आज सीधे तौर पर हमारे जीवन को प्रभावित कर रहा है। जिसके अलग_अलग रूपों को उपरोक्त तीन महत्त्वपूर्ण कहानियों में देखा जा सकता है। यह काल्पनिक नही बल्कि सच्चे तथ्यों और घटनाओं पर आधारित लगती हैं। पहाड़ी समाज के जनजीवन में मौजूद अंतर्विरोधों को भी बखूबी व्यक्त करती है यह लेखनी, तभी तो पाठक खुद को जोड़ पाते हैं इसके पात्रों और घटनाओं से।
” पहाड़ बेच डालो” कहानी एक वास्तविक कथन है, जो अफसरशाही की लूट को ही बेनकाब नहीं करती बल्कि रिश्वतखोरी, बेईमानी के साथ ही वास्तव में पहाड़ को बेच डालने वाले पूरे ताने बाने पर ही प्रहार है यह कथ्य। “सा ब भैंस भाग गई” कहानी सरकारी लोन लेने की असंवेदनशील औपचारिकता पर व्यंग्य के साथ ही व्यवस्था का वह आइना लगती है जिसमें गांव का गरीब आदमी लोन वापस न करे तो भी फंसता है, कर दे तो भी…”गांव का खडंजा” तो पहाड़ी समाज की दुरूह परिस्थितियों के दर्शाता भ्रष्टाचार का सटीक उदाहरण है।
अधिकांश कहानियां पत्रकार बिरादरी के अंदरूनी उठापटक को उजागर करते हुए पत्रकारिता के क्षेत्र की सच्चाई को कई तहों में उघाड़ कर आम पाठक के समक्ष रखा गया है । जहां “इमेज को खातिर” में पत्रकारों और व्यवस्था की मिलीभगत का उल्लेख है तो ” खबरों का कत्ल और होली की मिठाई” पत्रकार की विवशता और संस्थान द्वारा विज्ञापन का दवाब बहुत ही शानदार ढंग से प्रस्तुत किया गया है। ” कमाऊ पूत”, ब्लैक मेलर” जैसी कहानियां भी अलग तरह से इनको व्यक्त करती हैं।
” जाहिद खां बराबर” के माध्यम से लेखक वर्गीय दंभ को समाने लाने में सफल हुआ है। ” समाज सेवक” कहानी जहां एनजीओ की राजनीति पर टिप्पणी है वहीं ” चने का दाना” एक छोटी सी कहानी उस विशाल मजदूर आबादी की वास्तविकता उजागर करती है जो इस दुनिया को रहने योग्य बनाते हैं लेकिन उनकी पूरी जीवन स्थितियां भूख और अभावों से जूझते हुए बीत जाती हैं। ” ईदीया की पोती” के माध्यम से लेखक ने ब्रिटिश समय के नैनिताल के जनजीवन का वर्णन करते हुए वर्तमान से जोड़ा है। इस जीवंत कहानी की मुख्य पात्र ईदीया और बिल्किस पितृसत्ता को चुनौती देती हैं। जिसको समाज स्वीकार नहीं कर पाता। ईदीया का बेटा उस्मानी अपनी मां के संघर्षमय अल्प जीवन की रोशनी में अपनी बेटी के स्वतंत्र व्यक्तित्व और उसको तौलने वाली निगाहों को जिस तरह महसूस करता है वह हमारे समाज का कटु यथार्थ है।
संग्रह की अंतिम कहानी ” ईजा इल्ल कम सुन” कहानी फौजी गजे सिंह का वह आत्मकथन है जिससे पहाड़ के जाने कितने पुरुष खुद से जोड़ सकते हैं। लेकिन इसकी शुरुआत जितनी रोचक और मार्मिक है बाद में वह दो भाइयों के आपसी झगड़ों और वन विभाग की लापरवाहियों से जुड़कर गड़मड़ हो गई। यदि ये दोनों अलग होती तो शायद ज़्यादा बेहतर होता। लेकिन उसके बाद भी लेखक ने पहाड़ी समाज की समस्याओं को बहुत संवेदनशीलता से उजागर क्या है।
इस्लाम हुसैन जी को सलाम और उनको अपनी लेखनी से और ऐसी कहानियां अपने पाठकों के समक्ष रखनी चाहिए यही आग्रह और उम्मीद है।
पुस्तक का नाम_ पहाड़ बेच डालो
लेखक_ इस्लाम हुसैन
मूल्य _ 125 रुपए
प्रकाशक _ समय साक्ष्य देहरादून