प्रकाश चन्द (11th)
नानकमत्ता पब्लिक स्कूल
दीवार पत्रिका उस वक़्त नन्हीं सी थी जब जन्म हुआ था। समझदार भी नहीं थी। सिर्फ बोलना जानती थी लेकिन हमारी आवाज़ से। वक़्त के साथ बड़ी होती गई। नए-नए लेखों के साथ समझदार होती गई। बोलने के साथ सुनना भी सीख गई और सुनते हुए बेहतर होने लगी। जब इस पत्रिका ने मोबाइल मैगज़ीन का रूप लिया तब इसने चलना भी सीख लिया। दी एक्स्प्लोरर अब स्कूल के सभी शिक्षार्थियों के घर भी पहुँच चुकी थी। बच्चे भी इस मैगज़ीन को अपने आसपास बांटने लगे थे। दी एक्स्प्लोरर की कहानी ने हमारे स्कूल की कहानी की सड़क पर नया मोड़ जोड़ा।
आज इस मोड़ से बच्चे इतनी मात्रा में गुज़रने लगे हैं की इसे स्कूल में सीखने-सिखाने का एक महत्वपूर्ण केंद्र बना डाला है। पत्रिका के इर्द-गिर्द बच्चे अपने आइडियाज़ और नवाचार का प्रयोग कर इसे अनोखा बनाने का प्रयास करते रहते हैं। बेहतर बनने की यह दौड़ कब आसमान में उड़ने लगी पता ही नहीं चला! कब एक्स्प्लोरर के पंख निकल आए पता ही नहीं चला! कब हमारी पत्रिका उड़ते हुए मुंबई पहुँच गई पता ही नहीं चला! सच में, एक्सप्लोरर वक़्त के साथ बड़ी हो चुकी है और पंछी बन चुकी है जिसने उड़ना सीख लिया। उम्मीद है यह पंछी मुंबई से मौकों के बीज लाकर नानकमत्ता में उगाएगा।
नानकमत्ता पब्लिक स्कूल लगभग एक वर्ष पहले ग्रामीण भारत की कहानियों का दस्तावेजीकरण करने वाला प्लेटफ़ॉर्म, Peoples Archive of Rural India (PARI) के साथ जुड़ा था। इस सहयोग के कारण शिक्षार्थियों ने अपने आसपास की कहानियों को रिपोर्ट करना शुरू किया। आज एक्स्प्लोरर का 9वां संस्करण निकल आया है। इस पत्रिका की सभी कहानियां ग्रामीण नानकमत्ता पर आधारित हैं। लगभग पांच महीनों के प्रयास, जिसमें मीटिंग, ग्राउंड रिपोर्टिंग और फैक्ट चेकिंग आदि शामिल थी, के बाद यह परिणाम देहाती महक को फैलाने का काम कर रहा है।
हर वर्ष पारी द्वारा वार्षिक सम्मेलन मुंबई में आयोजित किया जाता है। इस वर्ष हमारी पत्रिका ‘दी एक्स्प्लोरर’ के साथ एन.पी.एस को भी बुलाया गया। इस सम्मेलन में एन.पी.एस से पारी के इंटर्न अपनी पत्रिका के साथ यहाँ पहुंचे और अपनी भागीदारी एक्स्प्लोरर के माध्यम से व्यक्त की। पहले दिन हम ग्रामीण पत्रकार पी.साईनाथ की नई किताब ‘दी लास्ट हीरोज़’ के लॉन्च सेशन में शामिल थे। दुसरे दिन हम पारी के पत्रकारों के साथ मीटिंग में शामिल थे।
“अगले पांच या छह वर्षों में, इस देश की आज़ादी के लिए लड़ा एक भी व्यक्ति जीवित नहीं होगा। युवा भारतीयों की नई पीढ़ी को भारत के स्वतंत्रता सेनानियों से कभी मिलने, देखने, बोलने या सुनने का मौका नहीं मिलेगा। इसलिए मैंने यह किताब लिखी है,” साईनाथ ने अपनी किताब ‘दी लास्ट हीरोज़’ के लॉन्च सेशन को इस लाइन के साथ शुरू किया। इस पुस्तक में भारत के स्वतंत्रता संग्राम के अल्पज्ञात सेनानी – किसान, मजदूर, गृहणी, कारीगर और अन्य लोगों का ज़िक्र है जो आज़ादी के लिए लड़ते रहे लेकिन फ्रीडम फाइटर्स की लिस्ट से हमेशा अदृश्य रहे।
इतिहास वर्तमान को आकार देता है। अगर आज हम सिर्फ इतिहास के उन तथ्यों को बढ़ावा देते रहें जो आकार में बड़े हैं, जो नज़र में आसानी से आ जाते हैं, जिनकी आवाज़ बार-बार सुनाई पड़ती है, तब हम वर्तमान की स्थिति का सही कारण समझने से दूर रह जाएंगे। तब हम उन महान विचारों की सराहना करते रहेंगे जिनकी सराहना होना आम बात है। तब हम सिर्फ उन चेहरों की पूजा करेंगे जिनकी तस्वीर हर संस्था में सजी मिलती है। इस कारण हम यह बात ध्यान में नहीं ला पाएंगे की वर्तमान को बनाने में और भी अनेकों लोगों का संघर्ष है। इसी संघर्ष को साईनाथ अपनी किताब के माध्यम से सम्मान देते हैं।
इतिहास पत्थरों में ही नहीं लोगों की कहानियों में भी मिलता है। साईनाथ ने उन आम लोगों की कहानियों को अपनी किताब में जगह दी है जिन्हें आज़ादी के आंदोलन में भाग लेने पर कोई सर्टिफ़िकेट नहीं मिला। यह आम सैनिक आज भी ज़िन्दा हैं। साईनाथ सबके सामने यह सवाल रखते हैं की आज़ादी के किसी भी उत्सव पर इन ज़िन्दा स्वतंत्र सेनानियों का नाम क्यों नहीं है? आज़ादी के नाम पर बनी अलग-अलग वेबसाइट और प्लेटफ़ॉर्म पर इनकी एक भी फ़ोटो, एक भी वीडियो और इन पर एक भी लेख क्यों नहीं है?
पुस्तक स्वतंत्रता और आज़ादी के बीच के अंतर पर रोशनी डालती है। “उन्होंने आज़ादी और स्वतंत्रता के लिए लड़ा, लेकिन उन्हें सिर्फ स्वतंत्रता ही मिली,” साईनाथ ने कहा। साईनाथ का कहना है यह अंतर उन्होंने इन सेनानियों से बात करते वक़्त खोजा। इस किताब के कुछ पात्रों का कहना है की उन्होंने 1947 तक स्वतंत्रता के लिए लड़ा लेकिन आज़ादी के लिए यह लड़ाई 1947 के बाद भी लम्बे समय तक रही। जब हम हमेशा स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में बात करते हैं, तो हम उन्हें केवल पुरुष हस्तियों के रूप में देखते हैं। इस किताब में उन महिलाओं की कहानी को भी दर्शाया गया है जो आज़ादी और स्वतंत्रता की लड़ाई में शामिल थीं।
पूरा सेशन इस किताब की कहानियों में गोंते लगा रहा था। किताब के पात्रों के विचार से लेकर उनके संघर्ष को बयां करते हुए ग्रामीण जीवन के इतिहास को भी हमने समझा। कुछ सवालों के साथ यह सेशन आगे बड़ा और लगभग दो घंटे में समाप्त हो गया। इस किताब की कोशिश है की लोग महिला स्वतंत्र सेनानियों के परिश्रम के महत्व को समझे, आम जनता के संघर्ष को मोल प्रदान करे और इतिहास की ओर सचेत हों।
“अगर आपको नहीं पता आप कहाँ से आए हैं, तो आप नहीं समझ पाएंगे की आपको कहाँ जाना है।” साईनाथ ने किताब के लॉन्च सेशन को इस लाइन के साथ खत्म किया। यह पंक्तियाँ हमें अपने इतिहास की ओर झुकाती हैं। ये सोचने पर भी मजबूर करती हैं की हमारे जैसी आम जनता के इतिहास ने हमें किस तरह प्रभावित किया होगा? एक शिक्षार्थी होने के रूप में यह सन्देश मिलता है की इतिहासिक चेतना हमारे अंदर कितनी कम है। हम इतिहास की कहानियों को उतना ही जानना चाहते हैं जितना जानकर बहुमत लोग संतुष्ट होते हैं।
एक्स्प्लोरर बैग में बैठी है। सोच रही है की कल उसे ‘दी लास्ट हीरोज़’ की तरह पेश किया जाएगा और नए-नए हाथों में झुलाया जाएगा। हमारी पत्रिका को उम्मीद है की नन्हें रिपोर्टर्स की बात अनेकों लोगों तक पहुंच जाएगी और प्रतिक्रियाओं की बरसात होगी। सुबह होते ही पत्रिका बैग से झाँकने लगी और दस बजने का इंतज़ार करने लगी। इस बार पत्रिका नए कपड़ों में है, नई बातों के साथ है। यह वही बातें हैं जिस पर पारी सालों से काम कर रहा है।
“ग्रामीणता अदृश्य है,” यह सिर्फ एक तथ्य नहीं है। यह अराजकता की स्थिति है, जहाँ मनुष्य परस्पर जुड़ाव और दूसरे पर निर्भरता के अपने वास्तविक विचार को खो रहे हैं। इस भौतिकवादी दुनिया में, अगर आज मैं लिखने के लिए इस कलम का उपयोग कर रहा हूं, तो मुझे नहीं पता कि यह कलम किसने बनाई है, लेकिन मैं बिना खोज करे इतना जानता हूं कि यह एक ऐसा व्यक्ति होगा जो इस विश्व के लिए पढ़ा-लिखा नहीं है, जो तकनीक की दुनिया से बहुत दूर है। लेकिन यह कितना गलत है कि उनका मूल्य ही नहीं है। दुनिया के ढाँचे ने हमे कुछ इस तरह डिज़ाइन कर दिया है की इस रिश्ते और कनेक्शन का सम्मान करने के लिए हमें अनेकों संघर्षों से गुज़रना पड़ेगा।
पारी का काम इसी तरह के संघर्षों से जुंझना है। उस सम्बन्ध का सम्मान करना है जो हमारा किसी मजदूर, किसी किसान, किसी गृहणी, किसी कारीगर या किसी जनजातीय से है। हम अक्सर उस वातावरण की ओर सचेत नहीं हो पाते हैं जहाँ हम रहते हैं। पारी इसी वातावरण से कहानियां खोजता है और लोगों तब पहुंचाता है। लॉकडाउन के बाद पारी का यह पहला सम्मेलन है। इस सम्मेलन के पहले भाग का हम हिस्सा बनें। जहाँ साईनाथ पारी की प्रगति पर बात करते हैं और आने वाले वर्ष में नई पहल को सबके सामने साझा करते हैं।
ट्रेंड हमें बार-बार अपने और अपने गांव के बीच के अंतर को याद दिलाता है। मीडिया हमें शहर से जोड़े रखता है। मौकों की तलाश हमेशा हमें शहर भेज ही देती है। शायद इसलिए गांव अदृश्य हो जाते हैं। साईनाथ कहते हैं, “गांव इतने पीछे क्यों हैं?” कहकर हम सवाल गलत पूछते हैं। सवाल होना चाहिए “गांव आगे क्यों नहीं आ पाते?” ग्रामीण कहानियों के साथ काम करना सचमें शहर से दूर होने जैसा है। बहुसंख्य आबादी के रास्ते को नज़रअंदाज़ करने जैसा है। यह एक बेसिक पत्रकारिता है।
इस सम्मलेन में साईनाथ अपने परिप्रेक्ष्य से मेनस्ट्रीम मीडिया की समस्या को दर्शाते हैं। कहते हैं, “एक तरफ़ जहाँ मेनस्ट्रीम मीडिया लॉकडाउन के वक़्त कुछ स्टारों की वीडियो को प्रमोट कर रही थी दूसरी ओर पारी गांव में बन रही वास्तविक कहानियों को कैद कर रहा था।” इस मीटिंग में लॉकडाउन के वक़्त हुए प्रवास और उसके असर पर भी बात हुई और टी-ब्रेक के आदेश के साथ पहले सेशन को खत्म कर दिया गया।
अब समय आ गया था बेसब्री से इंतज़ार कर रही पत्रिका ‘दी एक्सप्लोरर’ के निकलने का। कुछ एक्स्प्लोरर की कॉपियों को हमने पारी टीम के सदस्यों को दी। उन्हें यह देखकर अच्छा लगा की बच्चे भी अपने आस-पास की कहानियों के प्रति सेंसिटिव हैं और ग्रामीण कहानियों को विलुप्त होने से बचा रहे हैं। कुछ पारी के साथियों ने नानकमत्ता आने का भी वादा किया। कुछ एक्स्प्लोरर की कॉपियां बैग में ही थी जो एक बार फिर से पंख फड़फड़ाने के लिए तैयार थीं। यह पत्रिकाएं अपने साथ मौकों के बीज लेकर आई हैं। अब बस इंतज़ार करना है उस पौधे के उगने का।
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