शगुन, हिमांशु
विवादित आनुवांशिक रूप से संशोधित (जीएम) सरसों डीएमएच-11 को पहली बार क्षेत्र परीक्षण के लिए केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने मंजूरी दी है। जीएम के खिलाफ आंदोलन करने वाले कार्यकर्ताओं ने इसका विरोध किया है। उनका कहना है कि सरसों की देसी और संकर किस्में अधिक उत्पादन दे रही हैं और बीते सालों में सरसों का रिकॉर्ड उत्पादन हुआ है। ऐसे में जीएम सरसों की जरूरत ही क्या है? मगर, फिर भी कहा जा रहा है कि जीएम सरसों के इस्तेमाल से देश खाद्य तेल के मामले में आत्मनिर्भर बनेगा। अगर जीएम सरसों को हरी झंडी मिल जाती है, तो दूसरी फसलों में भी तकनीक के अंधाधुंध इस्तेमाल का दरवाजा खुल जाएगा।
दीपक पेंटल 25 अक्टूबर 2022 से देशभर में खासे लोकप्रिय हो चुके हैं। उस रोज केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने उन्हें एक खत भेजा था जिसका मजमून यह है कि उन्होंने साल 2002 में सरसों की जिस नई किस्म को विकसित कर उसे पर्यावरण रिलीज दिलाने के लिए आवेदन दिया था, उसे मंजूर कर लिया गया है। केंद्र सरकार का यह एक बड़ा फैसला था, जिसके पक्ष और विरोध में आवाजें उठने लगीं। दीपक पेंटल आनुवांशिकीविद और दिल्ली यूनिवर्सिटी के पूर्व वाइस-चांसलर हैं।
पर्यावरण रिलीज मिल जाने का अर्थ यह है कि जीएम सरसों, जिसे धारा मसटर्ड हाइब्रिड (डीएमएच-11) नाम दिया गया है, का क्षेत्र परीक्षण, प्रदर्शन और बीज तैयार किया जा सकता है। यह देश में पहली जीएम फसल की वाणिज्यिक खेती करने की इजाजत देने का शुरुआती चरण है।
भारत ने अब तक सिर्फ एक ही आनुवांशिक रूप से संशोधित फसल की वाणिज्यिक खेती को मंजूरी दी है और वह बीटी कॉटन (कपास) है। आनुवांशिक रूप से संशोधित उत्पादों के लिए देश को इकलौते नियामक आनुवांशिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति (जीईएसी) से जीएम सरसों के क्षेत्र परीक्षण की इजाजत मिलने के एक हफ्ते के भीतर मंत्रालय ने इसे मंजूरी दे दी तथा इस खबर के सार्वजनिक होने से पहले ही क्षेत्र परीक्षण शुरू करने का निर्णय ले लिया गया। 31 अक्टूबर, देश में सरसों की बुआई की आखिरी तारीख थी। इसी दिन केंद्रीय पर्यावरण व वन मंत्रालय ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस किया, जिसे कृषि विज्ञान राष्ट्रीय अकादमी (एनएएएस) और ट्रस्ट फॉर एडवांसमेंट ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेस (टीएएएस) ने संबोधित किया।
एनएएएस के अध्यक्ष त्रिलोचन महापात्र और टीएएएस के चेयरमैन आरएस परोदा ने प्रेस कॉन्फ्रेस में कहा कि इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च (आईसीएआर) अगले 10 से 15 दिनों तक सरसों उत्पादक राज्यों राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में इसका क्षेत्र परीक्षण होगा। इस बीज से उत्पादन के परिमाण का पता लगाने के लिए 100 जगहों पर खेती की जाएगी। राजस्थान के भरतपुर स्थित आईसीएआर के रेपसीड-मस्टर्ड रिसर्च (डीआरएमआर) निदेशालय, जिसके निर्देशन में यह क्षेत्र परीक्षण हो रहा है, के अफसर बीज के लिए पेंटल से मिलने दिल्ली विश्वविद्यालय पहुंच गए। पेंटल इकलौते आदमी थे, जिनके पास डीएमएच-11 के 10 किलोग्राम बीज उपलब्ध थे। एक नवम्बर को जब डाउन टू अर्थ ने पेंटल से बात की, तो वह इस बीज के क्षेत्र परीक्षण को लेकर बहुत उत्साहित नहीं थे। उन्होंने कहा, “सरसों की बुआई देर हो चुकी है। परीक्षण का परिणाम शायद बहुत अच्छा न आए।”
हालांकि, तुरंत ही इस पर तीखी प्रतिक्रिया हुई। इसका विरोध करने के लिए किसानों का समूह, शोधकर्ता व एक्टिविस्ट कोलिशन फॉर ए जीएम-फ्री इंडिया के बैनर के नीचे एकजुट हो गए और जीएम-सरसों को मंजूरी मिलने के खिलाफ उन्होंने 2 नवम्बर को सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। तीन दिन बाद ही आईसीएआर ने क्षेत्र परीक्षण रोक दिया।
जड़ों की तलाश
डीएमएच-11 की खेती को बढ़ावा देने में जुटी सरकार और विज्ञानियों का कहना है कि भारत को खाद्य तेल के मामले में आत्मनिर्भर बनाने के लिए यह बहुत जरूरी है। एनएएएस के सचिव केसी बंसल कहते हैं, “भारत में खाद्य तेल का उत्पादन मांग के मुकाबले 55-60 प्रतिशत कम होता है। पिछले साल भारत ने घरेलू जरूरतों को पूरा करने के लिए 133.5 लाख टन तेल का आयात किया, जिसके लिए देश के खजाने से 1,17,000 करोड़ रुपए खर्च करने पड़े।” डीआरएमआर के निदेशक पीके राय डाउन टू अर्थ से कहते हैं, “मौजूदा उपभोग दर के मुताबिक, साल 2025-2026 तक भारत को 340 लाख टन खाद्य तेल की जरूरत पड़ेगी, जो भारत के विदेशी मुद्रा भंडार पर गहरा असर डालेगा। राय बताते हैं कि सरसों में वह क्षमता है कि वह स्थिति में बदलाव ला सकता है कि क्योंकि भारत में कुल खाद्य तेल के उत्पादन में सरसों की भागीदारी 40 प्रतिशत है। वहीं, सोयाबीन और मूंगफली की भागीदारी क्रमशः 18 और 15 प्रतिशत है।
फिलवक्त, लगभग 80 लाख हेक्टेयर में सरसों की खेती की जाती है और प्रति हेक्टेयर औसतन 1-1.3 टन सरसों का उत्पादन होता है। बंसल ने दावा किया कि ट्रांसजेनिक बीज से प्रति हेक्टेयर उत्पादन बढ़कर 3-3.5 टन पर पहुंच सकता है। इस बीज में कीट से लड़ने की भी क्षमता है, जिससे ह्वाइट रस्ट बीमारी फैलती है, इसलिए इससे उत्पादन में सुधार और लागत खर्च में कमी आएगी।
डीएमएच-11 की भूरि-भूरि प्रशंसा करने वालों का यह भी दावा है कि पारम्परिक क्रॉस-ब्रीडिंग तकनीक से अधिक उत्पादन और कीट रोग प्रतिरोधक बीज तैयार करना चुनौतीपूर्ण है, इसलिए ट्रांसजेनिक बीज की जरूरत है। इस बीज के पौधे के फूल में ही नर और मादा के प्रजनन तत्व मौजूद होते हैं, जिससे स्वतः परागन हो जाता है। अतः दो अलग-अलग परिवार के बीजों से हाइब्रिड बीज तैयार करने में नर बीज को प्रजनन में असमर्थ बनाया जाता है ताकि क्रॉस-पॉलिनेशन किया जा सके। इसमें काफी वक्त लगता है। आनुवांशिक हेरफेर में विज्ञानियों को इन समस्याओं से पार पाने में मदद मिलती है और ऐच्छिक परिणाम के लिए वे सीधे पौधे की आनुवंशिक संरचना में बदलाव कर सकते हैं, मसलन कि आनुवांशिक संरचना में बदलाव से यह किसी खास कीट का प्रतिरोधक हो जाता है।
दिल्ली यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर जेनेटिक मैनिपुलेशन ऑफ क्रॉप प्लांट्स में पेंटल और उनकी शोधकर्ताओं की टीम ने हाइब्रिड और ट्रांजेनिक दोनों तरीकों का इस्तेमाल कर डीएमएच-11 तैयार किया है। इसके पीछे लक्ष्य था- उच्च उत्पादन देने वाली भारतीय प्रजाति वरुणा और तेजी से बढ़ने व उच्च बायोमास वाली पूर्वी यूरोप की अर्ली हीरा-2 के बीच क्रॉस कराना। इसे संभव बनाने के लिए उन्होंने साल 1990 में बेल्जियम के विज्ञानियों द्वारा विकसित की गई आनुवांशिक अभियांत्रिकी तकनीक का इस्तेमाल किया। इसमें सबसे पहले पैतृक लाइन में से एक में नर बांझपन लाया जाता है और इसके बाद इसके वंशज में पुनः उपजाऊपन बहाल किया जाता है। इसमें मिट्टी में मौजूद बैक्टीरिया में से कीटरोग प्रतिरोधी दो जीन– बार्नेस और बारस्टार का चुनाव कर उन्हें सरसों के पौधे के डीएनए में प्रविष्ट कराया गया। बार्नेस पराग के इर्द-गिर्द मौजूद कोशिकाओं को नष्ट कर परागन को रोकता है जिससे नर बांझपन आता है। इसके बाद बारस्टार, बार्नेस की गतिविधियों को दबा देता है और उपजाऊपन को बहाल कर देता है। पेंटल कहते हैं, “इसके अतिरिक्त हमने एक और जीन का इस्तेमाल किया है, जिसे बार कहा जाता है।” यह एक हर्बिसाइड है, जो फसल को खर-पतवार से बचाता है।
फसल के पौधे में विदेशी जीन को प्रवेश कराने से कुछ लोग इसके संभावित जोखिमों को लेकर चिंतित हैं। कोलिशन फॉर ए जीएम-फ्री इंडिया, डीएमएच-11 का विरोध तब से कर रहा है, जब साल 2015 में पेंटल ने पहली बार इस बीज की मंजूरी के लिए जीईएसी को आवेदन दिया था।
शुरुआत में ही विवाद
हालांकि, डीएमएच-11 तैयार करने के लिए बायोटेक्नोलॉजी विभाग और नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड ने फंडिंग की थी, मगर इसे मंजूरी मिलने का इतिहास लम्बा और विवादित रहा है। साल 2015 में आईसीएआर, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रिशन के सेंटर फॉर एडवांस्ड रिसर्च फॉर प्री-क्लिनिकल टॉक्सिकोलॉजी और बायोटेक्नोलॉजी विभाग के विज्ञानियों ने जीएम सरसों का बायो-सेफ्टी अध्ययन किया था और इसके बाद पेंटल व उनकी टीम ने जीईएसी से संपर्क कर पर्यावरण (सुरक्षा) अधिनियम, 1986 के रूल 1989 (उत्पादन, इस्तेमाल, आयात, निर्यात, सूक्ष्य जीवाणु/आनुवांशिक रूप से संशोधित जीवाणु का स्टोरेज) के तहत पर्यावरण रिलीज देने की अपील की। इसके अगले साल 5 सितंबर को जीईएसी ने जीएम सरसों को मानव, पशु और पर्यावरण के लिए सुरक्षित घोषित किया और पर्यावरण रिलीज के लिए हरी झंडी दे दी। लेकिन कोलिशन फॉर ए जीएम-फ्री इंडिया इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चला गया और एक महीने बाद ही 7 अक्टूबर को कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी।
साल 2017 में जीईएसी ने फिर एक बार डीएमएच-11 के पर्यावरण रिलीज के लिए अनुंशसा की और जीएम वैरिएंट के सुरक्षित होने की बात दोहराई। इस बार की अनुशंसा पंजाब कृषि विश्वविद्यालय और इंडियन एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट के बायो-सेफ्टी अध्ययन के आधार पर की गई। इस बार भी कोलिशन फॉर ए जीएम-फ्री इंडिया ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और कहा कि जीईएसी ने मंजूरी देने में नियमों का पालन नहीं किया है। मामले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जुलाई 2017 में कहा था कि जीएम सरसों को पर्यावरण मंजूरी देने की चुनौती से संबंधित अपील पर वह तभी सुनवाई करेगा, जब सरकार इसे मंजूरी देने के पक्ष में फैसला लेगी।
इसके बाद, सरकार ने “समर्थन और विरोध में आए प्रतिनिधित्व को ध्यान में रखते हुए” आवेदन को पुनर्विचार के लिए वापस जीईएसी के पास भेज दिया। नवंबर 2017 और जनवरी 2018 को हुई दो सुनवाइयों में सरकार ने अदालत को बताया कि उसने क्षेत्र परीक्षा का फैसला नहीं लिया है और इस पर अंतिम फैसला लेने से पहले विभिन्न हितधारकों के विचारों को ध्यान में रखा जाएगा। लेकिन, कुछ महीने बाद ही 21 मार्च 2018 को जीईएसी ने अलग-अलग हितधारकों की तरफ से आए विचारों की समीक्षा करते हुए मधुमक्खी, परागण करने वाले अन्य कीटों व मिट्टी में उपलब्ध माइक्रोबियल विविधता पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर अतिरिक्त आंकड़े जुटाने के लिए पेंटल से दो से तीन जगहों पर दो हेक्टेयर में जीएम सरसों की खेती करने को कहा।
कोलिशन फॉर ए जीएम-फ्री इंडिया ने जीईएसी पर अनुमोदन देकर जीएम सरसों को लेकर संभावित गंभीर चिंताओं को नजरंदाज करने की कोशिश का आरोप लगाते हुए केंद्र सरकार के समक्ष जीईएसी की समीक्षा पर आपत्ति जताई। 25 जुलाई 2018 को हुई अगली बैठक में जीईएसी ने पेंटल को यह कहकर मिट्टी में उपलब्ध जैविक विविधता पर अध्ययन करने से छूट दे दी कि बायो-सेफ्टी प्रयोग में यह अध्ययन किया जा चुका है। इसी बैठक में जीईएसी ने राज्य सरकारों की तरफ से अनापत्ति प्रमाण पत्र (एनओसी) मिले बगैर भी “प्रदर्शन अध्ययन” करने की इजाजत दे दी। कोलिशन फॉर ए जीएम-फ्री इंडिया ने जीईएसी के इस फैसले को प्रदर्शन अध्ययन की आड़ में पर्यावरण मंजूरी देने की कोशिश करार दिया।
हालांकि, जीईएसी की समिति के दो सदस्यों की चिंताओं के चलते क्षेत्र परीक्षण को टाल दिया गया था। उनकी चिंता अध्ययन के दौरान अनुमोदित कीटनाशक व शाकनाशी के इस्तेमाल और अध्ययन के लिए प्रोटोकॉल का अभाव था। अगली बैठक 20 सितम्बर 2018 को हुई। तब तक मधुमक्खी और परागण में भूमिका निभाने वाले अन्य कीटों पर अध्ययन को शामिल करने के लिए प्रोटोकॉल में संशोधन किया चुका था। हालांकि प्रोटोकॉल में बहुत विस्तार में नहीं लिखा गया था। जीईएसी ने नवम्बर 2019 में दो ठिकानों लुधियाना स्थित पंजाब यूनिवर्सिटी और दिल्ली स्थित इंडियन एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट में क्षेत्र परीक्षण का अनुमोदन दे दिया।
10 मई 2022 में पेंटल ने डीएमएच-11 को पर्यावरण रिलीज देने पर पुनर्विचार करने के लिए जीईएसी से तीसरी बार संपर्क किया। 25 अगस्त को उन्हें प्रस्ताव को लेकर एक प्रेजेंटेशन तैयार करने को कहा गया। बैठक से जुड़े दस्तावेज को डाउन टू अर्थ ने देखा है। इसमें पेंटल ने अपने प्रेजेंटेशन में इस पर प्रकाशित साहित्यों व अन्य देशों में लिये गये नियामक निर्णयों का मूल्यांकन किया और कहा कि इनसे निष्कर्ष निकलता है कि इन फसलों से निकलने वाला ट्रांसजेनिक प्रोटीन मधुमक्खियों पर कोई खतरा उत्पन्न नहीं करता है। उन्होंने आगे तर्क दिया कि कनाडा, अमेिरका और ऑस्ट्रेलिया ने बार, बार्नेस और बारस्टार सिस्टम से तैयार जीएम कनोला को मंजूरी देने के लिए किसी तरह की शर्त नहीं थोपी। इसके बाद पेंटल ने कहा कि डीएमएच-11 के लिए अतिरिक्त अध्ययन की कोई जरूरत नहीं है।
पर्याप्त सबूत होने के दावे की पड़ताल के लिए जीईएसी ने एक नौ सदस्यीय विशेषज्ञ समिति का गठन किया, जिसके चेयरमैन संजय कुमार मिश्रा हैं। संजय डीबीटी में वरिष्ठ विज्ञानी हैं। 8 अक्टूबर को जीईएसी को सौंपी गई रिपोर्ट में समिति ने पर्यावरण रिलीज की बात कही। मगर, रिपोर्ट में भारतीय कृषि-जलवायु स्थिति में वैज्ञानिक साक्ष्य तैयार करने और निवारक तंत्र के तौर पर कहा गया कि आवेदक को पर्यावरण रिलीज के दो साल के भीतर जीएम सरसों से मधुमक्खियों और परागन करने वाले अन्य कीटों पर प्रभाव के मूल्यांकन के लिए आईसीएआर की निगरानी में प्रदर्शन अध्ययन करना चाहिए। इसका मतलब है कि जीईएसी ने गंभीर पर्यावरणीय चिंताओं पर ध्यान दिये बिना ही पर्यावरण मंजूरी दे दी।
20 अक्टूबर को केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंदर यादव को लिखे पत्र में कोलिशन फॉर ए जीएम-फ्री इंडिया ने कहा, “यह काफी आपत्तिजनक है कि नियामक संस्था ने कुछ अध्ययन करने को कहा, जिससे आवेदक लगातार इनकार करता है और जीईएसी बार-बार अपनी ही अनुशंसा वापस लेता है।”
जीएम-फ्री इंडिया सालों से कहता रहा है कि जीएम फसल के डेवलपर जीईएसी की ओर से स्थापित कई विशेषज्ञ समितियों का हिस्सा हैं। इन समितियों को जीएम सरसों को मंजूरी देने के लिए बनाया गया था। जीएम-फ्री इंडिया ने कहा, “इसकी वजह से यह स्थिति बन गई कि आवेदकों के आवेदन बिना गंभीर व आलोचनात्मक समीक्षा के स्वीकृत हो रहे हैं।” मसलन नौ सदस्यीय विशेषज्ञ समिति के चैयरमैन डीबीटी के संजय कुमार मिश्रा थे, जिसने जीएम सरसों को विकसित करने के लिए फंड किया है। केसी बंसल भी जीएम फसल डेवलपर हैं और पूर्व में जीईएसी के निर्णय लेने में उनकी भागीदारी को लेकर विरोध हो चुका है। 2 नवम्बर को कोलिशन फॉर ए जीएम-फ्री इंडिया ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और जुलाई 2017 के आदेश की याद दिलाई जिसमें कोर्ट ने याचिकाकर्ता से कहा था कि जब सरकार जीएम सरसों को मंजूरी दे देती है, तभी वह कोर्ट में आएं। सुप्रीम कोर्ट ने 3 नवम्बर को मामले की सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार से 10 नवम्बर तक जवाब मांगा। लेकिन 10 नवंबर को सरकार ने दस्तावेज जमा करने के लिए और समय मांग लिया। मामले की अगली सुनवाई 29 नवंबर निर्धारित की गई। कोर्ट के आदेश पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए पेंटल ने डाउन टू अर्थ से कहा, “अदालत ने यथास्थिति का आदेश दिया है, जिससे यह फिलहाल रुक गया है। इसने हमेशा ही एंटी-जीएम लॉबी का पक्ष लिया है। हालांकि अगली सुनवाई में अदालत को यह भरोसा दिलाने के लिए सारे तथ्य सामने रखा जाएगा कि प्रोटोकॉल और जांच की प्रक्रिया का पूरी तरह पालन किया गया है।”
मुसीबतों के बीज
कृषि आजीविका में सुधार के लिए काम करने वाले संगठन अलायंस फॉर सस्टनेबल एंड होलिस्टिक एग्रीकल्चर (एएसएचए) की संस्थापक कविता कुरुगंती डाउन टू अर्थ से कहती हैं कि कोर्ट ने केंद्र सरकार को मौखिक रूप से तीन बार कहा कि वह जीएम सरसों की बुआई में आगे न बढ़े और क्षेत्र परीक्षण व प्रदर्शन करे। वह कहती हैं, “सरकारी एजेंसियों ने कई स्तरों पर उल्लंघन किया है, जिनमें जीएम सरसों से मधुमक्खी और परागण करने वाले अन्य कीटों पर प्रभाव का अध्ययन न होना व बायो-सेफ्टी प्रोटोकॉल की अनदेखी शामिल है।” कुरुगंती कोलिशन फॉर ए जीएम-फ्री इंडिया से भी जुड़ी हुई हैं। वह आगे कहती हैं कि यह समूह इस फैसले के खिलाफ विरोध जारी रखेगा।
जीएम सरसों को मंजूरी मिलने की अनिश्चितताओं के बीच मधुमक्खी पालक 4 नवम्बर को सड़कों पर उतरे। राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और हरियाणा के 100 से अधिक मधुमक्खी पालक भरतपुर स्थित आईसीएआर- सरसों शोध संस्थान के सामने जुटे और जीएम सरसों को मिली पर्यावरण रिलीज वापस लेने की मांग की। नेचुरल रिसोर्स डेवलपमेंट मल्टीस्टेट को-ऑपरेटिव सोसाइटी लिमिटेड (एनएआरसीओ) के चेयरमैन तंजीम अंसारी कहते हैं, “बीजों की हाइब्रिड किस्में व बीटी कॉटन से पहले से ही शहद उत्पादन प्रभावित है और अगर जीएम सरसों को मंजूरी मिल जाती है, तो मधुमक्खियों की आबादी खत्म हो जाएगी।” एनएआरसीओ मधुमक्खी पालकों का संगठन है, जो उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में स्थित है। इस संगठन ने जीएम सरसों के खिलाफ प्रदर्शन में हिस्सा लिया था।
मधुमक्खी पालक पहले मधुमक्खी पालन के लिए सूरजमुखी, कपास, ज्वार, बाजरा, मक्का, सीसम, तुअर दाल और चना दाल पर निर्भर थे तथा साल में 8 महीने शहद निकाल लेते थे। “आज सरसों ही एकमात्र प्राकृतिक फसल है, जिस पर मधुमक्खी पालक निर्भर हैं। हाइब्रिड फसलों के चलते पहले ही फूल आना कम हो गया है, जिससे उत्पादन प्रभावित हुआ है और अब साल में सिर्फ तीन महीने ही शहद मिल पाता है,” अंसारी ने आगे बताया।
एनआरसीओ के निदेशक प्रवीण शर्मा ने डाउन टू अर्थ से कहा कि अगर जीएम सरसों को व्यावसायिक खेती में शामिल कर लिया जाता है, तो शहद उत्पादन में और गिरावट आएगी। बीटी कॉटन का अनुभव साझा करते हुए वह कहते हैं, “शुरुआती वर्षों में एक सीजन में हमलोग दो बार शहद निकाल लेते थे, लेकिन हाल के वर्षों में फूलों में पराग आना रुक गया है।”
शहद निर्यातकों को चिंता है कि डीएमएच-11 को खेती में शामिल किया जाना उनके व्यवसाय के खात्मे का कारण बन सकता है। भरतपुर के शहद निर्यातक सुनील कुमार गुप्ता कहते हैं, “जो भारत के बाहर के बाजार में शहद का व्यापार करते हैं, वे पूरी तरह सरसों के फूलों के पराग खाने वाली मधुमक्खियों पर निर्भर हैं।” सरसों के फूलों से बनने वाला शहद बहुत जल्दी जम जाता है, जो अमरीका और यूरोपीय संघ में निर्यात करने के लिए अनुकूल होता है। लेकिन ये देश शहद का जीएम-मुक्त प्रमाणपत्र भी मांगते हैं। एक अन्य शहद निर्यातक अमित धानुका कहते हैं कि भारत में उत्पादन होने वाले कुल 1,50,000 टन शहद का आधा हिस्सा गैर-जीएम प्रमाणन कार्यक्रम के तहत निर्यात होता है। गुप्ता और धानुका, दोनों ने कहा कि अगर जीएम सरसों के वाणिज्यिक इस्तेमाल को मंजूरी दे दी जाती है तो शहद के निर्यात के भविष्य पर खतरा उत्पन्न हो जाएगा।
फैलता डर
सरकारी विज्ञानी भले ही यह आश्वस्त कर रहे हैं कि जीएम सरसों से मधुमक्खी, परागन करने वाले अन्य कीट और मिट्टी में मौजूद जीवाणु को कोई खतरा नहीं है लेकिन कुछ विज्ञानी इसको लेकर संदेह जता रहे हैं। पुणे के एक वनस्पति विज्ञानी ने नाम नहीं छापने की शर्त पर डाउन टू अर्थ को बताया कि एक दशक के बाद किटाणु और कीट-पतंग ट्रांसजेनिक फसल के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर ले सकते हैं, जिसके बाद बीजों की नई किस्म की जरूरत पड़ सकती है। इसके अलावा परागना के जरिए मधुमक्खियां जीएम सरसों के जीन को दूसरे पौधों में स्थानांतरित कर सकती हैं। उन्होंने कहा, “इससे समानांतर और अनैच्छिक रूप से जीन का स्थानांतरण दूसरे पौधों में हो सकता है जो जैवविविधता को प्रभावित कर सकता है और अनचाहा व असरकारी खर-पतवार के पनपने का कारण बन सकता है।”
कलकत्ता विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर पोलिनेशन स्टडीज की निदेशक परतिभा बासु ने भी ऐसी ही चिंता जाहिर की है। वह कहती हैं, “अगर क्रॉस परागन के समय नर बांझ पराग दूसरे पौधों में स्थानांतरित हो जाता है तो क्या होगा? यह बड़े स्तर पर जैवविविधता को प्रभावित करेगा।”
कुरुगंती कहती हैं कि चूंकि जीएम सरसों शाकनाशी-रोधी फसल है, तो ऐसे में इसकी पैतृक लाइन को लेकर भी पर्यावरण रिलीज के अनुमोदन की जरूरत है। किसानों के संगठन आशा किसान स्वराज के कपिल शाह कहते हैं कि शोध जारी रखने के लिए इन लाइनों को जारी करने की जरूरत नहीं होती है, लेकिन उन्हें जांच के बिना ही वंशज तैयार करने लिए रिलीज दे दी गई। शाह कहते हैं कि भले ही बीज के विकास को कुछेक तकनीकी लोगों तक ही सीमित रखा जाए, लेकिन उनकी पैतृक लाइन अवैध रास्तों से किसानों और पैसा बनाने वालों के हाथों में पहुंच जाएगी। बीटी कॉटन के साथ भी ऐसा ही हुआ था। शाह कहते हैं, “साल 2016 में हमने जीईएसी के सामने लिखित तौर पर चिंता जाहिर की थी। लेकिन उन चिंताओं का निराकरण नहीं हुआ।”
हालांकि, 31 अक्टूबर के प्रेस कॉन्फ्रेंस में अधिकारियों ने दावा किया कि जीएम सरसों को शाकनाशी फसल के रूप में रिलीज नहीं किया गया है। बंसल इस पर विस्तार से कहते हैं, “शाकनाशी का इस्तेमाल सिर्फ हाइब्रिड बीज उत्पादन में किया जाएगा।” डीआरएमआर के निदेशक पीके राय कहते हैं, “डीएमएच-11 को विकसित करने में इस्तेमाल होने वाले बार जीन सिर्फ बीज का संकेतक हैं। एक बार हाइब्रिड प्रक्रिया पूरी होने के बाद विज्ञानी या डेवलपर को यह सुनिश्चित होने की जरूरत होगी कि जो बीज तैयार हुआ है, वह आनुवांशिक तौर पर संशोधित है कि नहीं। हाइब्रिड बीज तैयार हो जाने के बाद उस पर शाकनाशी का छिड़काव किया जएगा। हालांकि, अगर हाइब्रिड सफलतापूर्वक तैयार नहीं हो पाता है, तो शाकनाशी के चलते उन बीजों की मौत हो जाएगी। जीएम फसल के मामले में यह नुकसान 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होगा।”
पंजाब के सेवानिवृत्त पादप रोगविज्ञानी सतविंदर कौर मान इस दावे को खारिज करते हैं। उनका कहना है कि शाकनाशी-रोधी छिड़काव अंतिम बीज पर किया जाएगा, जिनका इस्तेमाल किसान करेंगे। उन्होंने कहा, “इस बीज को बाजार में गैर–शाकनाशी सहिष्णु फसल कहकर उतारने से खेतों में शाकनाशी का असमान इस्तेमाल होगा, जिसका पारिस्थितिकी और स्वास्थ्य पर असर पड़ेगा।”
बासु इस तकनीक के इस्तेमाल पर ही सवाल उठाती हैं। वह कहती हैं, “बारस्टार और बार्नेस जीन के मानव और मवेशी के शरीर पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इसको लेकर भारत के संदर्भ में दीर्घकालिक अध्ययन नहीं हुआ है। सरकारी अफसरों ने जो कारण बताएं हैं, वे अविश्वसनीय हैं।” उन्होंने जीएम सरसों पर स्वतंत्र और निष्पक्ष अध्ययन की जरूरत बताई।
कुरुगंती कहती हैं कि स्वास्थ्य सुरक्षा से जुड़े आंकड़ों को अब तक छिपाकर रखना बताता है कि जीएम और गैर-जीएम फसलों के तुलनात्मक मूल्यांकन में अंतर है। वह कहती हैं, “इन्हें किनारे पर रखा गया और कृषि-जलवायु बदलावों पर छोड़ दिया गया, जबकि किसी भी कठिन प्रयोग में अव्वल तो इसकी इजाजत ही नहीं मिलनी चाहिए थी। झूठ पर आधारित बराबरी का हवाला देकर जीएम सरसों पर बहुत सारे दूसरे तरह की जांच नहीं की गई। उन्होंने आरोप लगाया, “उपकालिक विषाक्तता अध्ययन में जीव रसायन पैरामीटर में बदलाव, हिस्टो-पैथोलॉजिकल अंतर और शारीरिक वजन में बढ़ोतरी देखी गई, लेकिन इन आंकड़ों को भी किनारे कर दिया गया।”
इन आरोपों को खारिज करते हुए बंसल ने कहा, “अनुमोदन के लिए जिन पद्धतियों का इस्तेमाल किया गया, उन्हीं का इस्तेमाल पश्चिमी देशों में भी होता है। अमेरिका और कनाडा में जीएम सरसों की मंजूरी देने में समान पद्धति का इस्तेमाल किया गया। वहां सुरक्षा का कोई मुद्दा नहीं है।”
दीर्घकालिक अध्ययन की जरूरत
साल 2009 में जीईएसी ने दूसरी जीएम खाद्य फसल बीटी बैगन को पर्यावरण रिलीज के लिए अनुमोदन दिया। लेकिन केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित तकनीकी विशेषज्ञ समिति की सिफारिश के बाद क्षेत्र परीक्षण पर पाबंदी लगा दी। अक्टूबर 2012 को तकनीकी विशेषज्ञ समिति ने सभी जीएम खाद्य फसलों के क्षेत्र परीक्षण पर 10 साल का प्रतिबंध और शाकनाशी-सहिष्णु फसलों पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की थी। समिति ने जीएम खाद्य फसलों में मौजूद जहरीले तत्व को लेकर चिंता जाहिर की थी, जो मानव शरीर में प्रवेश कर सकता है।
जीएम फसलों से स्वास्थ्य और पर्यावरण की चिंताओं को साबित करने के लिए अध्ययनों की कमी नहीं है। नवम्बर 2009 में जर्मनी के चार शोधकर्ताओं ने स्प्रिंगर ओपेन च्वाइस में छपे एक लेख “डिग्रेडेशन ऑफ सीआरआई1एबी प्रोटीन फ्रॉम जेनेटिकली मोडिफाइड मेज (एमओएन810) इन रिलेशन टु टोटल डायटरी फीड प्रोटीन इन डेयरी काउ डाइजेशन” में लिखा कि बीटी बैगन में मौजूद प्रोटीन सभी जीवाणुओं के लिए जहरीला था। साल 2011 में अकादमिक प्रकाशन कंपनी एलसेवियर में छपे एक अन्य अध्ययन में कनाडा के शरब्रूक हॉस्पिटल सेंटर विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने जीएम खाद्य से जुड़े कीटनाशक के मातृत्व व भ्रूण पर प्रभावों को लेकर अध्ययन किया और रक्त संचारित भ्रूण में बीटी विष पाया।
नागपुर के सेंट्रल इंस्टीट्यूट फॉर कॉटन रिसर्च के पूर्व निदेशक केशव क्रांति ने दिसंबर 2016 में “फर्टिलाइजर गेव हाई यील्ड बीटी ओनली प्रोवाइडेड कवर” शीर्षक से एक लेख लिखा, जो सीआईसीआर की वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ था। लेख में उन्होंने बताया था कि साल 2008 के बाद से बीटी कॉटन का उत्पादन प्रति हेक्टेयर 500 किलोग्राम पर अटक गया। लेकिन जीएम फसल को जिस बोलार्ड II कीट से सुरक्षित बताया गया था, वह कीट फसल में मौजूद था।
जीएम की मारीचिका
डीएमएच-11 को मंजूरी देने के पीछे सबसे बड़ी प्रेरणा रही है इससे सरसों की पैदावार में बड़ा इजाफा। आईसीएआर के मुताबिक, मौजूदा वरुणा बीज के मुकाबले डीएमएच-11 से पैदावार में औसतन 28 प्रतिशत का इजाफा होगा। लेकिन कृषि व खाद्य नीति विश्लेषक देविंदर शर्मा कहते हैं कि यह तुलना सही नहीं है क्योंकि वरुणा कम पैदावार वाली किस्म है। जीएम सरसों की जरूरत पर सवाल उठाते हुए देविंदर शर्मा कहते हैं, “भारत में सरसों की गैर-जीएम हाइब्रिड किस्में उपलब्ध हैं, जो प्रति हेक्टेयर 3,200 किलोग्राम तक पैदावार दे सकती हैं। अगर सरसों की खेती गहन विधि से की जाए, तो प्रति हेक्टेयर 4,200 किलोग्राम तक पैदावार हो सकती है। ऐसे में विज्ञानियों का प्रयास ऐसी ही किस्मों और सिस्टम को प्रोत्साहित करने के लिए होना चाहिए, न कि जीएम के पीछे भागना चाहिए।
आर्थिक मुद्दों पर काम करने वाला राजनीतिक और सांस्कृतिक संगठन स्वदेशी जागरण मंच के को-कनवेनर अश्वनी महाजन भी जीएम सरसों से भारत की आयात निर्भरता कम करने के दावे से सहमत नजर नहीं आते हैं। उन्होंने कहा, “डायरेक्टरेट ऑफ रेपसीड मस्टर्ड रिसर्च से मिले आंकड़ों से साफ है कि स्वदेशी संकर से इतर जीएम सरसों का कोई अनूठा फायदा नहीं है।”
डीआरएमआर के पूर्व निदेशक धीरज सिंह ने 40 वर्षों तक सरसों की फसल पर शोध किया है। वह कहते हैं कि किसी भी फसल की पैदावार उसके जीनोटाइप, पर्यावरण और प्रबंधन पर निर्भर करती है। पर्यावरण व प्रबंधन पैदावार में 80 प्रतिशत किरदार निभाते हैं। संकर फसल में 4-5 प्रतिशत का इजाफा नजर आ सकता है, लेकिन ये बहुत बेहतर नहीं होते हैं। सिंह आगे बताते हैं कि पारंपरिक सरसों फसल की पैदावार में पिछले 40 साल में 300 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। पहले प्रति हेक्टेयर 478 किलोग्राम सरसों की पैदावार होती थी, जो अब बढ़कर 2 टन हो गई है।
केंद्र सरकार के थिंक टैंक नीति आयोग के आंकड़ों से पता चलता है कि साल 2014-2015 और 2019-2020 के बीच छह वर्षों में सरसों तेल का उत्पादन 62.8 लाख टन से बढ़कर 91.2 लाख टन हो गया है। साल 2021-2022 में केंद्र सरकार ने सरसों की खेती के रकबे में 20 प्रतिशत और पैदावार में 15 प्रतिशत के इजाफे के लिए विशेष सरसों मिशन लागू किया।
वहीं, तिलहन के उत्पादन के आंकड़े देखें, तो साल 1980 में तिलहल तकनीक मिशन शुरू होने के बाद साल 1990 में तिलहन का उत्पादन 110 लाख टन से बढ़कर 220 लाख टन पर पहुंच गया। शर्मा कहते हैं, “इसे पीली क्रांति कहा गया था। भारत उस वक्त निर्यातक था। यह बदलाव जीएम फसल के बिना आया।” आयात शुल्क घटने के चलते भारत निर्यातक से आयातक देश बन गया। इससे भारत में बाहर से आयात तो सस्ता हो गया, लेकिन आयात पर निर्भरता बढ़ गई।
जीएम सरसों की जांच से जुड़े एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने भी स्वीकार किया कि भारत सरसों तेल के संकट से नहीं जूझता है। इसके उलट पिछले कुछ सालों में इसका उत्पादन बढ़ा है तथा मौजूदा बीजों की किस्मों से ही इस लक्ष्य को हासिल किया गया है। जीएम सरसों की जरूरत पर सवाल उठाते हुए उक्त अधिकारी ने कहा कि डीएमएच-11 वाणिज्यिक अनुमोदन के लिए जरूरी क्षेत्र परीक्षण शायद पास न कर पाए। प्राथमिक जांच से पता चलता है कि इसके डेवलपरों ने जितनी पैदावार का वादा किया था, उतनी नहीं हुई है। जीएम सरसों की अन्य उच्च पैदावार वाली किस्मों से वैज्ञानिक तौर पर तुलना करने पर पता चलेगा कि जीएम सरसों का प्रदर्शन बुरा है।
उक्त अधिकारी एक और महत्वपूर्ण बिंदु की तरफ ध्यान आकर्षित करते हुए चेतावनी देते हैं कि अगर जीएम सरसों को मंजूरी मिल जाती है, तो इससे अन्य जीएम खाद्य फसलों के लिए इजाजत लेने का दरवाजा खुल जाएगा, जो अभी विकास के अलग-अलग चरणों में हैं। इस साल सितंबर में ही सरकार ने शाकनाशी-रोधी जीएम कॉटन और मक्के के बीज के कर्नाटक के दो कृषि विज्ञान विश्वविद्यालयों में सीमित क्षेत्र परीक्षण के प्रस्ताव को मंजूरी दी है। साल 2020 में जीईएसी और पर्यावरण, वन व जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने देश के आठ राज्यों में स्वदेसी तकनीक से विकसित बीटी बैगन की दो ट्रांसजेनिक किस्मों के बायो-सेफ्टी रिसर्च को 2023 तक पूरा करने की अनुमति दी है। लेकिन, इन ट्रांसजेनिक किस्मों से दीर्घकालिक सुरक्षा और लाभ को स्थापित करने के लिए बहुत कुछ होता नहीं दिख रहा है।
‘डाउन टू अर्थ’ से साभार