लक्ष्मण सिंह बिष्ट ‘बटरोही’
कुमाऊँ के दूरस्थ क्षेत्र डीडीहाट के पास मिर्थी गाँव में एक शिक्षक ईश्वरी दत्त पन्त के घर पर 30 अगस्त, 1952 को जिस बच्चे ने जन्म लिया, अविश्वसनीय-सा लगता है कि उस बेहद पिछड़े गाँव में जन्मा वह लड़का किसी दिन स्वतंत्र भारत के उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनकर देशवासियों के भाग्य का फैसला करेगा.
लेकिन यह कहानी भाग्य और संयोग की नहीं, अपनी निरंतर कोशिशों के जरिए खुद की मेहनत से अंकुरित हुए संघर्ष और कर्मनिष्ठ व्यवहार की है. शायद इस किताब के लेखक को इस घटनाक्रम पर खुद विश्वास नहीं हुआ इसलिए उन्होंने इसके साथ सहज ही ‘भाग्य’ शब्द जोड़ दिया. असल में सिर्फ ‘संघर्ष’ कह देने भर से व्यक्ति की अहमन्यता का बोध होने लगता है, उसी प्रकार जैसे सिर्फ ‘भाग्य’ कहने भर से आदमी का पुरुषार्थ हाशिए में चला जाता है. तब फिर इन दोनों को आपस में जोड़ने वाला घटक कौन-सा है?
निश्चय ही वह व्यक्ति स्वयं ही है मगर आदमी को लगता है कि उसे बनाने वाला वह खुद नहीं हो सकता है. यहाँ तक कि उसके माता-पिता भी नहीं. तो फिर कौन है उसका निर्माता? भाग्य?
क्या चीज है भाग्य? उसके कर्मों का गुणनफल? लेकिन कर्मों के पीछे तो व्यक्ति ही मौजूद होता है. क्या कोई अदृश्य शक्ति मनुष्य के जीवन का सारा तांडव रच रही है? दरअसल यह ज्ञानियों और कर्मयोगियों के बीच की बहस है जिसमें बेचारा आदमी अंततः खुद के घुटने टेक देता है और मान लेता है कि कोई और ही है जो सब कुछ चला रहा है. एक सामान्य व्यक्ति के लिए इसके अलावा कोई और रास्ता होता भी नहीं.
मुझ जैसे नाचीज के लिए अपने इलाके के शीर्षस्थ पद पर पहली बार पहुँचे व्यक्ति पर कुछ भी टिप्पणी करना अशोभनीय लग सकता है, जो निश्चय ही है भी, मगर मेरी टिप्पणी के पीछे दो कारण हैं. इसी से इस दुस्साहस ने जन्म लिया है.
पहला ये कि वो उम्र में मुझसे छोटे हैं, मेरी पत्नी को दीदी कहते हैं, उनकी दीदी के साथ एक ही कॉलेज में काम करने के कारण; सौभाग्य से उनका सम्मान-भाव आज तक बना रहा है; मगर भाग्य और संघर्ष का मामला अभी भी अनुत्तरित है.
शायद 2015 के आसपास की बात थी और मेरा आत्मकथात्मक उपन्यास ‘गर्भगृह में नैनीताल’ प्रकाशित हुआ ही था और उसकी प्रतियाँ नैनीताल उच्च न्यायालय के दो वरिष्ठ न्यायाधीशों- उनके और सुधांशु धूलिया के पास पहुँचीं. करीब आठ-दस दिन के बाद धूलिया जी का लिफाफा हाईकोर्ट का एक आदमी मेरे घर पहुँचा गया कि जज साब भेंट नहीं स्वीकार करते. लिफाफा फटा हुआ था और उसमें मेरा लिखा पत्र यथावत था. महामहिम न्यायाधीश भी मेरे खूब परिचित थे, उनके साथ यदा-कदा बातें भी होती थीं. हाँ, यह जरूर संयोग है कि पंतजी के बाद माननीय सुधांशु धूलिया भी उत्तराखंड से उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश बने. आज भी हैं.
पता नहीं यह संयोग था या भाग्य का खेल, न्यायमूर्ति प्रफुल्ल चन्द्र पंत का, जो उस वक़्त नैनीताल उच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीश थे, मुझे एक विस्तृत पत्र मिला जिसमें उन्होंने उपन्यास की विस्तृत समीक्षा की थी और उद्धरण देते हुए लिखा कि कुमाऊँ के ग्रामीण जीवन, खासकर गोठ-प्रवास के दिनों में औरतों की जिस दयनीय दशा का उपन्यास में चित्रण किया गया है, वह उन्होंने पहली बार पढ़ा. इतने व्यस्त समय के बीच इतनी बारीकी से उन्होंने उपन्यास को पढ़ा, और अपनी विस्तृत प्रतिक्रिया लिखी, मेरे लिए यह अभूतपूर्व अनुभूति थी. निश्चय ही ये संयोग नहीं था, पंतजी की संवेदनशीलता और सहृदयता थी, जिसे हासिल करने के लिए संसार का बड़े-से-बड़ा पद भी छोटा है. यह न मेरे भाग्य का खेल था और न पंतजी का, दोनों का अर्जित कर्म था. मैंने परिश्रम से उपन्यास लिखा और उन्होंने एक जागरूक पाठक की हैसियत से उपन्यास पढ़ा, दोनों की कर्मशीलता रंग लाई और रचना तथा उसका सार्थक पाठ सामने आ गया. भाग्यवान तो प्रफुल्ल चन्द्र पंत से भी अधिक दुनिया में कई लोग होंगे मगर साहित्य और पाठकीय संस्कारों के प्रति समर्पित शायद ही कोई और होगा, खासकर आज के हमारे तिकड़मी हिंदी समाज में.
लेखक भी बहुतेरे होते हैं और उनके पाठक भी. इन दोनों के बिना रचना का अस्तित्व संभव भी नहीं है, मगर न्यायमूर्ति प्रफुल्ल चन्द्र पंत बिरले होते हैं, जो भाग्य से नहीं, अपनी कर्मशीलता और संवेदनशीलता से बनते हैं.