योगेश भट्ट
क्रिकेट में विजेता टीम का कप्तान अगर शून्य पर रन आउट हो जाए तो उसेे अगले मैच की कप्तानी से नहीं हटाया जाता, बल्कि उसका मनोबल बढ़ाते हुए एक मौका और दिया जाता है। क्रिकेट के खेल में तो यही होता रहा है मगर सियासत के खेल में भाजपा ने संभवतः यह पहली बार किया है। उत्तराखंड में पुष्कर सिंह धामी कोे अपनी परंपरागत सीट पर चुनाव हारने के बावजूद भाजपा हाईकमान ने सरकार का मुखिया बनाया।
धामी को सिर्फ मुख्यमंत्री ही घोषित नहीं किया बल्कि शपथ के मौके पर पूरे राष्ट्रीय नेतृत्व ने उपस्थित रहकर मनोबल भी बढ़ाया और साफ संदेश भी दिया । भाजपा हाईकमान के इस फैसले के तमाम निहितार्थ निकाले जा रहे हैं, भाजपा में तमाम दिग्गजों की पेशानी पर बल हैं तो कई अपने सियासी भविष्य को लेकर आशंकित हैं। अचानक उत्तराखंड की सियासत में पुष्कर का कद बहुत बड़ा हो गया है। कोई पुष्कर को हारी बाजी जीतने वाला बाजीगर बता रहा है तो कोई इसे मोदी और शाह की सियासी चाल मान रहा है।
इतना ही नहीं सियासी हलकों में इस फैसले के पीछे संभावित डील तलाशी जा रही है तो सियासी विश्लेषक इस फैसले को भाजपा की अंदरूनी गुटबाजी और भविष्य की सियासत से जोड़कर भी देख रहे हैं। मगर इन सबसे इतर बात की जाए तो न यह कोई बाजीगरी है और न ही सियासी चाल।
इसे किसी हारे हुए योद्धा की विजेता के रूप में ताजपोशी भी नहीं कहा जा सकता, यह तो उत्तराखंड की सियासत में नए युग का आगाज है। भाजपा हाईकमान की नजर से देखें तो यह नयी संभावनाओं की बेल को संबल देना जैसा है।
सियासी अर्थों में यूं समझिए कि दौरे सियासत बदल रही है और भाजपा हाईकमान ने संभवतः वक्त रहते इसे भांप लिया है । जहां तक उत्तराखंड का सवाल है तो यहां धामी के बहाने सिर्फ भाजपा की ही नहीं पूरे प्रदेश की सियासी तस्वरी बदलने जा रही है । प्रदेश की राजनीति में भुवन चंद खंडूरी, भगत सिंह कोश्यारी, विजय बहुगुणा, हरीश रावत, हरक सिंह, दिवाकर भटट, काशी सिंह ऐरी का युग अब खत्म हुआ ।
रमेश पोखरियाल निशंक, त्रिवेंद्र सिंह, अजय भटट, मदन कौशिक, सतपाल महाराज और गणेश जोशी की सियासी पारी भी ढलान पर है। राज्य की सियासत को हर कहीं अब नए नेतृत्व की दरकार है। वैसे भी भाजपा रणनीतिक रूप से राज्यों में नए नेतृत्व पर फोकस कर ही रही है । इसी क्रम में उत्तराखंड में भी भाजपा का सियासी दौर बदल रहा है।
उत्तराखंड में अब नया दौर पुष्कर धामी, अनिल बलूनी और धन सिंह रावत आदि का है। जहां तक पुष्कर धामी का सवाल है तो वह किसी की व्यक्तिगत पसंद या नापसंद हो सकते हैं । उन्हें लेकर से सियासी हल्कों में राजनैतिक पूर्वाग्रह भी संभव हैं, मगर यह भी सही है कि धामी में भविष्य की बड़ी संभावनाएं हैं । संभवतः यही कारण है कि भाजपा हाईकमान ने धामी पर भरोसा जताया और उन्हें खुद को साबित करने का बड़ा मौका दिया।
अब यह समझिये कि धामी के बहाने उतराखंड की सियासत में नए युग की पटकथा लिखी जा रही है। आने वाले दिनों में अब उत्तराखंड की सियासत में तमाम नए चेहरे चकमते नजर आएंगे । हर ओर युवा चेहरे ही सियासत की धुरी होंगे ।
धामी समर्थक भले की इसे धामी युग कह सकते हैं, लेकिन हमेशा की तरह इस नए युग में भी इकलौते धामी ही ध्रुव नहीं होंगे । इस युग में भाजपा के बड़े चेहरे अनिल बलूनी और धन सिंह भी होंगे।
सदन में उभरते नेताओं में ऋतु खंडूरी, सौरभ बहुगुणा भी होंगे तो विनोद चमोली और विनोद कंडारी भी नजरअंदाज नहीं रहेंगे। पहली बार चुनकर विधानसभा पहुंचने वालों में से मोहन विष्ट, बृजभूषण गैरोला और सुरेश गड़िया में भी भाजपा नयी संभावनाएं तलाशेगी।
इनके अलावा सुरेश जोशी, दीप्ति रावत, नेहा जोशी, गजराज सिंह, राजू भंडारी, रविंद्र जुगरान, सौरभ थपलियाल, आदित्य चौहान, सुभाष रमोला, अजेंद्र अजय, कुंदन लटवाल आदि तमाम ऐसे चेहरे हैं जिनमें भाजपा का भविष्य छिपा है।
ध्यान रहे, तस्वीर अकेले भाजपा में ही नहीं बदलने जा रही है। भाजपा अगर बदलते वक्त की आहट महसूस कर भविष्य का नेतृत्व तैयार कर रही है तो कांग्रेस में भी बदलाव के मुहाने पर है। कांग्रेस के अधिकांश दिग्गजों को तो भाजपा पहले ही निगल चुकी है और हरदा का दौर भी खत्म होने को है । हाल ही में मिली बड़ी हार से उबरने के बाद बहुत संभव है कि कांग्रेस भी बदली नजर आने लगे, यह बदलाव हार के कारण नहीं बल्कि यह बदलाव कांग्रेस के भविष्य की दरकार है ।
यहां भी सवाल मजबूत और युवा नेतृत्व का है । कांग्रेस में नया दौर की बात होगी गणेश गोदियाल, मनीष खंडूरी, मदन विष्ट, भुवन कापड़ी, प्रकाश जोशी, मनोज रावत, सुमित हृदयेश, ललित फर्स्वाण, शांति प्रसाद भटट, अनुपमा रावत, मोहित उनियाल, रघुवीर विष्ट, दीपक बल्यूटिया, विरेंद्र पोखरियाल, प्रकाश जोशी, विक्रम रावत समेत तमाम ऐसे युवा चेहरे हैं, जिनमें कांग्रेस को खड़ा करने का दम है।
निसंदेह आने वाले दिनों में इनमें से अधिकांश मुख्य भूमिका में नजर आ रहे होंगे। कांग्रेस और भाजपा के बाहर भी सियासत करवट बदलने को तैयार है। उत्तराखंड क्रांति दल हालांकि अपनी सियासी नहीं तैयार कर पाया है, लेकिन कुछ जुनूनी युवा है जिनकी उम्मीद अभी भी बरकरार है । शांति भटट, शिव प्रसाद सेमवाल, समीर मुंडेपी, राकेश नाथ, अभिषेक काला समेत कई ऐसा युवा है जिन्हें अवसर मिला तो वह फिर से उक्रांद में जान फूंक सकते है।
इसके अलावा हालिया चुनाव में निर्दलीय मैदान जीतकर उत्तराखंड की सियासत में नयी इबारत लिखने वाले उमेश कुमार और संजय डोभाल तथा इसी चुनाव में कड़ी टक्कर देने वाले दीपक बिजल्वाण और कुलदीप रावत को भी उत्तराखंड की सियासत में नजरअंदाज नहीं किया जा सकता ।
कुल मिलाकर सियासी दौर बदल रहा है, युवा उत्तराखंड में अब युवाओं का दौर शुरू होने जा रहा है। जाहिर है सियासत के इस नए दौर में सियासी चेहरे बदलेंगे, मगर असल सवाल तो यह है सियासत की चाल और चरित्र भी बदलेगा या नहीं ? जहां सियासत राजनेताओं, ठेकेदारों, नौकरशाहों और पावर ब्रोकरों के सिंडिकेट के रूप में चलती हो ।
जहां राजनेता सियासत को सेवा नहीं निजी जागीर समझते हों, जहां सत्ता के लिए राज्य को जाति, क्षेत्र, धर्म, वर्ग के नाम पर बांट दिया जाता हो। जहां सियासत और सत्ता का मतलब सिर्फ संसाधनों की लूट हो, वहां सियासत कितनी कुरूप बेरहम होगी इसकी कल्पना की जा सकती है ।
कड़वा सच यह है कि सियासी माहौल इस कदर बिगड़ चुका है कि अब जनता का नजरिया बदल चुका है । अब जनता साफ छवि, विकास और ईमानदार राजनीति के नाम पर नेता नहीं चुनती । आज जनता दलबदलुओं को सर माथे पर बैठाती है । आज सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास के मुददे पर वोट नहीं डालती बल्कि मुफत राशन, बिजली, पानी और चुनाव के वक्त शराब और पैसे पर वोट डालती है ।
हाल ही में हुए चुनाव में उम्मीदवारों ने लगभग एक हजार करोड़ रूपया खर्च किया। मोटे आंकलन के मुताबिक चुनाव में उतरे उम्मीदवारों ने औसत दो करोड़ रूपए खर्च किए। राज्य को दो दशक में आखिर इस सियासत से क्या मिला ? बाइस साल में 12 मुख्यमंत्री, सरकार अल्पमत की रही या बहुमत की हमेशा राजनैतिक अस्थिरता ।
क्या क्या नहीं देखा इस राज्य की सियासत ने पूर्व मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्षों को दल बदल करते देखा, सरकार के ही मंत्रियों द्वारा अपनी सरकार गिराते देखा, मंत्री का अपनी ही पार्टी के विधायक का स्टिंग करते देखा, मुख्यमंत्री का स्टिंग होते देखा, सरकार को ब्लैकमेल होते देखा, नौकरशाहों और राजनेताओं का बिकते देखा। उत्तराखंड की सियासत इतनी कुरूप हो चुकी है कि साफ छवि के साथ सियासत में आना मुमकिन ही नहीं है ।
सियासत के पहले पायेदान पर कदम रखने से पहले नयी पीढ़ी आज सियासी साधन संपन्न होना चाहती है । उसकी नजर नदियों में खनन के पटटों या ठेकेदारी पर होती है। नयी पीढ़ी में यह अच्छे से घर कर चुका है कि बिना वित्तीय संसाधनों के सियासत में जड़ें जमाना संभव नहीं है ।
हालिया सियासत के दो उदाहरणों से साफ है चुनाव न मुददों का है, न विकास का और न ही छवि का । चुनाव समीकरणों, संसाधनों और प्रपंच का है। इन्ही समीकरणों में मुख्यमंत्री रहते हुए पुष्कर धामी बडे़ अंतर से अपनी परंपरागत सीट हार जाते हैं तो वही संसाधनों के कारण खानपुर सीट से निर्दलीय उमेश कुमार बड़े अंतर से चुनाव जीत जाते हैं। उत्तराखंड और उमेश कुमार पर फिर कभी फिल्वक्त तो यह शुक्र मनाइये है कि सरकार बनाने के लिए स्पष्ट बहुमत मिला। दुर्भाग्यवश कहीं एकाधा सीट की कमी रह गयी होती तो फिर यह सियासत क्या क्या रंग दिखाती, कहा नहीं जा सकता।
बहरहाल अब जब दौरे सियासत बदल रहा है तो अहम सवाल यह है कि सियासत के हालत सुधरेंगे या और बदतर होंगे । राजनीति सिद्धांतों की होगी या फिर संसाधनों और सत्ता की गुलाम रहेगी । राजनीति में स्थिरता आएगी या फिर हमेशा की तरह अस्थिरता रहेगी । पुष्कर सिंह धामी के लिए यही बड़ी चुनौती है । सनद रहे यह पारी उनके सियासी भविष्य का कद तय करेगी । आइये फिलहाल उम्मीदों का दीप जलाते हुए धामी की अगुआई नये युग का स्वागत करें। कहते हैं न जिधर जवानी चलती है उधर जमाना चलता है, देखते हैं बदले दौर में जवानी किधर चलती है ।