कमलेश जोशी
किसी राज्य के तथाकथित विकास को समझना हो तो चुनावों से ठीक पहले उस राज्य की एक वृहद यात्रा कर आइये तो आपको समझ में आ जाएगा कि राज्य में विकास बैनरों, पोस्टरों, होर्डिंगों व फ्लैक्स के माध्यम से बहता हुआ नजर आ रहा है. राज्य के बाशिंदों से मत पूछियेगा कि विकास के नाम पर राज्य में क्या-क्या हुआ, क्योंकि राज्य के निवासियों को भी खुद इन प्रचार माध्यमों से जान पड़ता है कि राज्य में इतना अधिक विकास हो चुका है. कहने को तो राज्य के विभिन्न चौराहों में चार सड़कें एक-दूसरे को आपस में जोड़ रही होती हैं लेकिन चुनावी मौसम में चौराहों की जर्जर खस्ताहाल सड़कों के ऊपर चमचमाते विकास के होर्डिंग राज्य की तरक़्क़ी को बयाँ कर रहे होते हैं. कई बार तो चमचमाते विकास पर नजर गड़ाया इंसान भूल ही जाता है कि वह अब भी उसी सड़क पर चल रहा है जिसमें पहले भी दो बार गढ्ढे में उछलने की वजह से उसकी रीढ़ की हड्डी टूटते-टूटते बची है.
चुनावी मौसम में चौराहों में विकास की जलधाराओं का ऐसा समागम हो रहा होता है मानो विकास के अंतिम स्रोत का गंगा के रूप में इन्हीं चौराहों से प्रस्फुटन होगा. एक ओर जहाँ सत्ता पक्ष अपने पिछले पाँच साल के टूटे-फूटे काम को प्रचार माध्यमों से ताजमहल सरीखा दिखाने की कोशिश करता है तो वहीं दूसरी ओर विपक्ष (जो पाँच साल पहले खुद सत्ता पक्ष में था) सत्तापक्ष की कमियों को उजागर करता हुआ सफेद ताजमहल में बढ़ते पीलेपन के लिए उसे घेरता है और वादा करता है कि सत्ता में आते ही ताजमहल को फिर से मोती की तरह चमका देगा. इसी चमक दमक में जनता खो जाती है और सपने देखने लगती है कि ताजमहल रूपी उसका राज्य एक बार फिर उन्हीं लोगों की बदौलत मोती जैसा चमक उठेगा जिनकी वजह से पीला पड़ा है.
शहर-शहर, गाँव-गाँव, गली-गली, नुक्कड़-चौराहों में लगे इन पोस्टरों में न सिर्फ राजनीतिक पार्टियों के प्रमुख नेता हाथ जोड़े नजर आते हैं बल्कि तमाम छुटभैया नेता भी “मिशन……”, “अबकी बार………” की हुंकार भरते हुए पोस्टर के एक कोने में हाथ जोड़े आँखों के लेंस को थोड़ा जूम करने पर दिख जाते हैं. ये वही छुटभैया नेता होते हैं जिनकी फेसबुक वॉल पर आप चले जाएँ तो पाएँगे कि अपने आराध्य की प्रशंसा में गढ़े गए कसीदों पर लिखी हिन्दी की एक पोस्ट में सैकड़ों गलतियॉं करने के बावजूद खुद को पार्टी का उभरता हुआ भावी युवा नेता मानने का दम भर रहे होते हैं. छुटभैया नेताओं की अपने आराध्य के प्रति सच्ची भक्ति व चाटुकारिता देखकर राज्य की जनता का दिल कुछ यूँ पिघलता है कि उसका मन करता है कि होर्डिंग की बलैयाँ लेकर आरती उतार ले ताकि युवा भावी नेता को किसी की नजर न लगे.
राज्य का बेरोजगार युवा चुनावी पोस्टरों व होर्डिंग्स में सरकार द्वारा दिये गए लाखों रोजगार के आँकड़ों को देखकर खुद को मन ही मन कोसने लगता है और सोचता है उसकी पढ़ाई और तपस्या में ही कोई कमी रह गई होगी जो इन लाखों रोजगार के आँकड़ों में भी वह शामिल न हो सका. लेकिन रोजगार को लेकर राज्य के हर युवा के मन में यही पशोपेश बना रहता है कि जब उसके आस-पास के तमाम युवा बेरोजगार हैं, भर्ती परीक्षा हुई नहीं है, तमाम पेपर लीक हुए हैं और जिनका चयन हुआ भी है तो उन्हें पिछले 2-3 साल से जॉइनिंग लैटर नहीं मिला है तो होर्डिंग में लिखे ये लाखों रोजगार के आँकड़े आखिर कहाँ के हैं? बेरोजगार युवा इन मुद्दों को ट्विटर पर ट्रेंड भी करवाता है लेकिन चौराहों पर लगे होर्डिंग और पोस्टर उस पर हँस रहे होते हैं और ट्रोल आर्मी ट्विटर पर उसे पाकिस्तान की बेरोजगारी याद दिला रही होती है.
चुनावी रैलियों में सरकार हजारों करोड़ रूपयों के प्रोजेक्ट का शिलान्यास कर रही होती है और फिर उस शिलान्यास के प्रचार का भी पोस्टर बनाकर चौराहे पर टांग देती हैं. कुछ सालों में जो हाल चौराहे में टंगे पोस्टर का होता है वही हाल शिलान्यास किये प्रोजेक्ट का भी हो जाता है. जनता की आँखें शिलान्यास के आगे का काम देखने को पथरा जाती हैं और इसी उम्मीद में लगी रहती हैं कि कभी तो कोई राम रूपी नेता जी आएँगें जिनके चरणों की धूल से अहिल्या रूपी शिलान्यासित प्रोजेक्ट में नई जान आएगी और वह मूर्त रूप लेगा लेकिन बाट जोहते-जोहते जनता की आँखों को मोतियाबिंद हो जाता है और अगला चुनाव भी आ जाता है लेकिन शिलान्यास किये प्रोजेक्ट का कोई खेवनहार नहीं आता और अगले चुनाव में शिलान्यास किये प्रोजेक्ट का दुबारा शिलान्यास हो जाता है.
जनता जब अपने अधिकारों, विकास, महँगाई और रोजगार जैसे मुद्दों पर केंद्रित होने लगती है तो चौराहों पर धर्म संसद के पोस्टर चस्पा दिये जाते हैं. जनता को यकीन दिलाया जाता है कि उसे एक धर्म विशेष से खतरा है इसलिए रोजगार और महँगाई के मुद्दे को छोड़कर खुद को और अपने धर्म को बचाने के मुद्दे पर लौट आए. वही जनता जो चौराहों में सरकारों के विकास के दावों के पोस्टर देखकर अचरज से भर जाती है न जाने क्यों धर्म और सांप्रदायिकता वाले पोस्टरों की तरफ खिंची चली जाती है. जैसे ही जनता इन पोस्टरों और होर्डिंग्स की तरफ खिंची चली जाती है सरकारें अपना चुनावी एजेंडा इसी के इर्द-गिर्द सेट कर जनता को एक बार फिर पाँच साल के लिए बेवकूफ बनाने में कामयाब हो जाती हैं और यही जनता जिसने धर्म और सांप्रदायिकता के फेर में आकर वोट दिया होता है अगले पाँच साल तक फिर महँगाई, बेरोजगारी, शिक्षा और स्वास्थ्य का रोना रोती रहती है.
One Comment
MAYANK PRASAD
Waah bheJi👏👏👏