पलाश विश्वास
मेरा वो प्राइमरी स्कूल बंद हो गया है , जहां मैने 1962 से 1967 तक पहली से पांचवीं की पढ़ाई की थी।
हाँ, तराई में सबसे पुराने स्कूलों में से एक ‘हरिदास पुर राजकीय प्राइमरी पाठशाला ‘ बन्द हो गया है।
उत्तराखण्ड सरकार बड़े पैमाने पर सरकारी स्कूलों को बंद कर रही है। मजे की बात यह है कि सरकार भक्त जनता हर सरकारी चीज बन्द होने का जश्न मना रही है।
हम अभागे हैं कि हमें खुशी नहीं हो रही है और हम मातम मना रहे हैं निजीकरण और कारपोरेट राज में गरीब मेहनतकश बच्चों की सुलभ शिक्षा के अवसर से वंचित करने की इस भयानक विकासयात्रा का निश्चित हम मातम मना रहे हैं।
जिनके बच्चे अंग्रेजी मीडियम या हिंदी मीडियम के निजी स्कूलों में महंगी शिक्षा हासिल करने की क्रय क्षमता वाले वर्ग से हैं, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। लॉक डाउन में ऐसे स्कूलों में कितने बच्चों की फीस रुकी हुई है और कितने बच्चे पढ़ाई अधूरी छोड़ने को विवश हैं ,हमारे पास वे आंकड़े नहीं है।
जिस जनता को शिक्षा और चिकित्सा,रोज़गार और रोटी छिनने पर भी फर्क नहीं पड़ता,जिनके बच्चे नशे,सट्टेबाजी और ऑनलाइन पढाई के बहाने पब्जी के शिकंजे में हैं और मां बाप को बाजार में अपनी क्रय शक्ति का घमंड है, उससे भाषा, साहित्य,शिक्षा,संस्कृति और इतिहास पर संवाद कैसे किया जा सकता है ।
खैर उस हरिदासपुर स्कूल में , जहां मैने जिन्दगी की प्रारम्भिक पढ़ाई प्राप्त की , उस प्राइमरी विद्यालय के इकलौते टीचर थे पीताम्बर पंत जी। उस जमाने में एल .के .जी ., यू.के .जी . का चलन नहीं था आधी कक्षा में अक्षर परिचय और आधी में गिनती पहाड़ा सिखाया जाता था। दिनेश पुर बंगाली इलाके में दिनेशपुर,हरिदासपुर, चित्तरंजन पुर, काली नगर और खानपुर नंबर एक में प्राइमरी स्कूल थे। तब बसंती पुर,राधाकांत पुर,सुंदरपुर जैसे ज्यादातर गांवों में गांव के लोग मातृभाषा बांग्ला में स्कूल चलाते थे।
हमने चित्तरंजन पुर कन्या प्राइमरी पाठशाला में आधी कक्षा की पढ़ाई की। अर्जुनपुर,रायपुर के सिख बच्चे भी वहां हमारे साथ पड़ते थे।
तब हरिपुरा जलाशय नहीं बना था और जंगल भी पूरी तरह नहीं कट सका था।असंख्य छोटी नदियों के दरम्यान तराई का हर गांव ऐसे कई सारे द्वीपों जैसा था जिसका बरसात में बाकी दुनिया से संपर्क कट जाता था। सड़कें थीं नहीं। नदियों पर पुल थे नहीं। खेतों के मेढ़ से चलकर जंगल और नदियां पार करके स्कूल जाना होता था,जैसा अब भी पहाड़ों और आदिवासी इलाकों में होता है। उधमसिंह नगर जिला भी आजादी से पहले जिम कॉर्बेट का नरभक्षी बाघों,दलदल,डेंगू, सुल्ताना डाकू,मलेरिया और प्लेग वाला नवाबों और राजाओं का आखेट गाह था, जहां बुक्सा और थारू आदिवासी रहते थे। हमारी हालत किसी मायने में उनसे बेहतर नहीं थी। चित्तरंजन पुर और बसंती पुर के बीच तब एक नदी हुआ करती थी,सत्तर के दशक की हरित क्रांति में जिसकी हत्या हो गई। तब मैडम खष्टी बसंती पुर रहती थी और हम बच्चो को गोद में लेकर नदी पार स्कूल पहुंचाती थी। उनका तबादला कहीं और हो गया तो वे हमें हरिदासपुर स्कूल में गुरूजी पीताम्बर पंत के हवाले कर गई।
हरिदासपुर और बसंती पुर के बीच भी कच्ची सड़क ही थी। हम डेढ़ किमी पैदल चलकर घर से कीचड़ में लथपथ स्कूल पहुंचते थे, जहां विजयनगर,आंनद खेड़ा नंबर एक दो,खानपुर, शिवपुर,मोहनपुर के बच्चे भी हमारे साथ सहपाठी थे, वहीं पीताम्बर पंत अपने दो बेटों भुवन और जगदीश के साथ स्कूल की दो झोपडिय़ों में से एक में रहते थे। कर्मकांडी कुमाऊंनी ब्राह्मण थे।खुद खाना बनाते थे। वेतन ७५ रूपए महीने का था जो साल -छह माही में मिलता था। लोग अपने बच्चो को मानुष बनाने के लिए यानी अक्षर परिचय कराने के लिये उनके पास छोड़ जाते थे। उन्हें अपनी खेती से कोई उम्मीद नहीं थी। पीताम्बर पंत जैसे शिक्षकों ने शरणार्थी दलित बंगाली बच्चो कि आंखों में सपने बोए और उन्हें भविष्य के लिए तैयार किया। रात बिरात वे गांव – गांव कीचड़ , पानी , सांप और अंधेरे की परवाह किए बिना घर -घर जाकर देखते थे कि हम क्या कर रहे हैं। एक – एक बच्चे पर नजर रहती थी उनकी। भाषा व्याकरण के साथ गणित वे बेंत से सिखाते थे। क्या मजाल कि कोई न सीखें।
हम आज जो भी कुछ बन सके ,वह इसी स्कूल, पंत जी और बसंती पुर हरिदासपुर के लोगों के प्यार की वजह से। जब में नैनीताल में डीएसबी कालेज में छात्र था,तब भी गुरूजी का मोर्चा बना हुआ था। पर १९८० में धनबाद के कोयलांचल से पत्रकारिता शुरू करने के बाद उनसे संपर्क टूट गया।
मेरे जीवन में प्राइमरी टीचर पीताम्बर पंत और जीआईसी नैनीताल के हिंदी शिक्षक ताराचन्द्र त्रिपाठी सबसे महत्वपूर्ण लोग रहे हैं। इनके अलावा दुनिया में हमने किसी की परवाह नहीं की।
गुरूजी तारा चंद्र त्रिपाठी जी तो अब भी कान उमेठ देते हैं लेकिन पीताम्बर पंत जी के स्नेह से चार दशक से वंचित हूं। हम नहीं जानते कि उनका और उनके बच्चों का क्या हुआ। लेकिन इस स्कूल के सामने खड़े होकर हर वक़्त लगा कि उनकी क्लास में ही हूं। अगर गलती से भी कोई सबक भूल गया तो बेंतों की बरसात होगी मुझ पर। अब पहली बार इस बन्द स्कूल के सामने खड़े होकर लगता है कि किसी ने मेरे गुरूजी की हत्या कर दी है और उनकी लहूलुहान आत्मा चीखती हुई कह रही है – अपने स्कूल को बचा लो पलाश। कहां कहां पीताम्बर पंत जैसे गुरूजी के बनाए स्कूल ख़तम हो रहे हैं और कितने शिक्षकों छात्रों की बलि दी जा रही है,मुझे नहीं मालूम। मैं अब कुछ करने की हालत में नहीं हूं क्योंकि इन दिनों गांव के लोग किसी की नहीं सुनते। कहीं कोई आवाज आती जाती नहीं है। हम अपने गुरुओं को श्रद्धांजलि देने लायक भी नहीं हुए।अफसोस।
पलास विश्वास के लेख पर पत्रकार उर्मिलेश की टिप्पणी
पत्रकार-मित्र पलाश विश्वास की पोस्ट देखी. उत्तराखंड के ऊधम सिंह नगर जिले के हरिदासपुर स्थित जिस स्कूल से उन्होंने बचपन में शिक्षा पाई, उसे पिछले दिनों स्थायी रूप से बंद कर दिया गया! पलाश की पीड़ा समझी जा सकती है. पर यह व्यक्तिगत नहीं, राष्ट्रीय पीड़ा है, जिस पर हमारा समाज बिल्कुल खामोश है! सन् 2010 से अब तक देश भर में कितने सरकारी स्कूल बंद हुए, इसका आधिकारिक आंकड़ा मुझे नहीं मिला. पर एक पुराने आंकड़े से आप अनुमान लगा सकते हैं. शिक्षा के अधिकार(RTE) से जुड़े एक गैर सरकारी संगठन(NGO) की रिपोर्ट के मुताबिक सन् 2010 से 2014 के बीच एक लाख स्कूल बंद किये गये थे. जिन राज्यों में स्कूलों की बंदी में तेजी दिखी, उनमें गुजरात, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, तेलंगाना, झारखंड, ओडिशा, यूपी, तमिलनाडु, बिहार, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर और उत्तराखंड जैसे राज्य प्रमुख थे.
सन् 2010 से 2020 के बीच बंद किये गये या किसी अन्य स्कूल में समाहित किये इन सरकारी स्कूलों की संख्या निश्चय ही एक लाख से बहुत ज्यादा हो चुकी होगी. सरकारी स्कूलों को बंद करने पीछे हमारी निर्वाचित सरकारें दो तर्क देती हैं: 1.ऐसे स्कूलों में बच्चों का दाखिला बहुत कम हो गया है. 2. बच्चों और शिक्षकों की संख्या जहां बहुत कम थी, उन स्कूलों को स्थायी तौर पर बंद या आस-पास के किसी अन्य स्कूल में समाहित किया गया है. इसलिए लोगों पर इसका कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा.
सवाल तो यही है कि आबादी बढ़ने के बावजूद बच्चों के दाखिले में कमी क्यों? लाखों प्रशिक्षित शिक्षकों की बेरोजगारी के बावजूद ऐसे स्कूलों में शिक्षक क्यों नही थे? अगर इन सरकारी स्कूलों में शासकीय स्तर पर शिक्षण की व्यवस्था ही नही की जाती रही तो दाखिले में कमी क्यों नही होगी? क्या यह निजी क्षेत्र के स्कूलों को बढ़ाने का ‘खेल’ नही है? क्या यह लोगों को शिक्षा के नाम पर लूटने का जरिया नहीं है, जिसमें सरकार चलाने वालों और निजी स्कूल(जिन्हें अपने देश में पब्लिक स्कूल कहा जाता है ) चलाने वालों के बीच दुरभिसंधि है? क्या विभिन्न दलों के नेताओं और चुनाव में उन्हें मोटा चंदा देने वाले उद्योगपतियों का एक उल्लेखनीय हिस्सा इन दिनों स्कूल-कालेज चलाने के धंधे में तेजी से नही आया है? अगर सरकारी स्कूल व्यवस्था में कमी होती तो केंद्रीय विद्यालयों या नवोदय विद्यालयों में दाखिले के लिए इतनी लंबी लाइन क्यों रहती?
जवाब यही है कि हमारी सरकारें जनता के वोट से बनती हैं पर वे जनता के विरुद्ध काम करने और फ़ैसले लेने में तनिक भी नहीं हिचकती हैं. दरअसल, वे अच्छे सरकारी स्कूल या बेहतर सरकारी अस्पताल चलाने में बजट का पैसा लगाने को फ़ालतू खर्च मान रही हैं. स्कूलों के साथ वे निजी क्षेत्र के अपने पसंदीदा कारोबारियो को स्कूल की जमीनें भी आसान शर्तो पर लगी पर दे रही हैं या बेच रही हैं. यह देश की जनता, खासकर 78 फीसदी लोगों के खिलाफ़ गहरी साजिश है. इस बीच, कोरोना-दौर के बहाने शिक्षा व्यवस्था को और बेहाल किया गया है.
इस पर हमारा समाज़ ख़ामोश है– इसलिए ऐसे समाज-विरोधी फैसले करने वालों के हौसले फिलहाल बुलंद हैं!