डा0 शिवानन्द नौटियाल
फोटो : विनीता यशस्वी
बसन्त पंचमी शुरू होते ही बसंत नृत्य शुरू हो जाता है। प्रकृति-वर्णन के साथ श्रंगार रस का भी बसन्ती नृत्य में पर्याप्त समावेश होता है। बसंत पंचमी के दिन संध्या को नृत्य शुरू हो जाता है। बसन्ती नृत्य, थड़या की शैली में शुरू किया जाता है, परन्तु उसके गीतों का विषय तनिक भिन्न होता है। बसन्ती नृत्य गीतों में मुख्य विशेषता यह होती है कि उसमें बसन्त की छटा का सबसे अधिक वर्णन होता है और बसन्त की अलौकिक सुन्दरता के साथ गीत में अन्य विषयों की भावनाओं का वर्णन होता है। प्रस्तुत गीत में नायिका अपने जीजा से कहती है-ग्वेरिल, मालू, साकिनी, सरसों, बुरांश आदि के वृक्ष फूलों से लद गये हैं। सब पर जवानी आ गई है। मेरे जीजा, तुम भी आ जाओ। मेरी जवानी में ‘‘श्री’’ बिखेर दो।
ग्वीराल फूल फुलेगी म्यारा भीना।
मालू बेड़ा फ्योलड़ी फुलिगे भीना।
झपन्याली सकिनी फुलिगे भीना।
धरसारी लकिड़ी फुलिगे भीना।
द्यूंल-थान कूंजू फुलिगे भीना।
गैर गदिनी तुषिरि फुलिगे भ्बक्ीना।
डांड्यू फुलिगे बुरांस म्यारा भीना।
डल फूलों बसन्त बौड़िगे भीना।
बसन्ती रंग मां रंगदै भीना।
ग्वीराल फूल फुलिगे म्यारा भीना।
अनुवाद : – मेरे जीजा! ग्वीराल फूल गया है। फ्यूंली के फूल भी मालू के बेड़े में फूल गये हैं। पत्तों में लदी-सजी साकिनी भी फूल गई है। सरसों के खेत में पीले फूलों की चादर बिछ गई है। देवता के स्थान पर भी कूंजे के फूल खिल गये हैं। गहरी घाटियों में तुषरी के फूल खिल गये हैं। पर्वतों की चोटियों पर बुरांस के फूल खिल उठे हैं। मेरे प्यारे जीजा! बसन्त पूरे यौवन के साथ लौट आया है। मुझे ऐसे ही बसन्त के रंग मे ंरंग दो।
इस गीत में प्रकृति के माध्यम से नायिका अपने हृदय की गहराईयों में छिपी भावना को व्यक्त करती है। इस नृत्य में गीत के अनुरूप बहुत सुन्दर और सहज नृत्य समपन्न होता है।
‘‘बसन्ती नृत्य’’ बसन्त का प्रमुख नृत्य गीत है। अतः बसन्त की अद्भुत छटा के साथ वहां अनेक नृत्यगीत बनते जाते हैं। जिनके जैसे भाव होते हैं उन्हीं के अनुरूप भावों का सुन्दर नर्तन इन नृत्यगीतों में होता है।
होली नृत्यगीत
बसन्त ऋतु में होली का विशेष महत्व है। गढ़वाल में होली को होरी कहा जाता है। इस नृत्य गीत में बृजमंडल के ही गीतों का गढ़वाली करण हुआ है। प्रायः सभी होरी गीतों में कहीं-कहीं ही गढ़वाली शब्द मिलते हैं, शेष पदावली ब्रजभाषा या खड़ी बोली की रहती है।
गढ़वाल में होरी नृत्य उल्लास और उमंग का विशेष नृत्यगीत माना जाता है। इस नृत्य में चंचलता, चतुरता और चपलता के दर्शन होते हैं।
गढ़वाल में होली नृत्य बड़े उत्साह और नियमबद्ध तरीके से किया जाता है। वैसे गढ़वाल में दीपावली, बग्वाल को सर्वोच्च स्थान मिला है, क्योंकि समस्त गढ़वाल में ‘बग्वाल’ जिस उत्साह और निष्ठा से मनाया जाती उस उत्साह से होली नहीं मनाई जाती। फिर भी होरी का अपना विशिष्ट स्थान है, जिसे गढ़वाल के अधिकांश भागों में बड़े कौशल और रूचि के साथ मनाया जाता है।
बसन्त पंचमी से बसन्त के गीत, गढ़वाल में गाये जाते हैं, जिनके साथ विशिष्ट और विभिन्न प्रकार के नृत्य किये जाते हैं। बसन्त पंचमी से ही फाग के गीत शुरू हो जाते हैं। इन फाग गीतों को बैठी होली के नाम से जाना जाता है। बैठी होली का तात्पर्य है-केवल होरी के गीतों को कमरे के अन्दर बैठकर गाना या आंगन के किनारे बैठकर गीतों को गाना।
फाल्गुन माह की शुक्ल सप्तमी को होली का प्रथम वास्तविक दिन माना जाता है। इसी तिथि से होलाष्टक शुरु होते हैं।
गढ़वाल में शुक्ल सप्तमी के दिन मेहला वृक्ष ‘मेलू’, जो कि नाशपाती की जाति का वृक्ष होता है, उसकी डाली को होली खेलने वाले तोड़ कर लाते हैं। ज्योतिषी से पूछकर ठीक समय पर फूलों से लदी डाली को तोड़ा जाता है। गाँव के बाहर किसी मैदान में उस डाली को होलिका के प्रतीक के रूप में धरती में रोपा जाता है। ज्योतिषी या कर्मकान्डी ब्राह्मण के द्वारा उस डाली में होलिका की प्राण प्रतिष्ठा की जाती है और फिर होली के गीत गाये जाते हैं और नृत्य किये जाते हैं। उसी दिन एक झंडे के रूप में प्रहलाद की पूजा होती है और उस झन्डे में प्रहलाद को स्थापित कर उसमें भी उसकी ‘प्रहलाद’ की प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। उस झन्डे को प्रहलाद का सही स्वरूप माना जाता है। होली खेलने वाले जब गाँव-गाँव होली खेलते हैं, तो उसी झन्डे के नीचे अर्थात झन्डे को आगे कर होली नृत्यगीत गाते और नाचते हैं। झंडा सदैव सफेद रहता है।
होली के शुभारम्भ करने से तउस गांव के इष्ट देवता और गणेश तथा हनुमान की भी पूजा की जाती है ताकि इस पर्व को मनाने में कोई विघ्न ना पड़े।
प्रतिदिन गाँव के होली के नर्तक उस स्थान पर जाते हैं, फूल चढ़ाते हैं, लकडियों का अम्बार लगाते जाते हैं। जब तक होलिका के प्रतीक उस मेहल की डाली पर पूजा नहीं होती, तब तक होली खेलने वाले कहीं भी जाकर होली नृत्यगीतों को नहीं गा सकते। होली के नर्तकों की टोली बनती है। होलिका के स्थान से टोली के नर्तक ढोलक, बांसुरी और आज कल हारमोनियम लेकर पड़ोस कें गाँव में होली नृत्यगीत गाने और नाचने के लिये जाते हैं। नर्तकों के पास प्रहलाद रुपी सफेद झंडा रहता है, जिसके नीचे बड़े आह्लाद के साथ वे नाचते और गाते हुए चलते हैं। होली के नर्तक, सफेद रंग का चूड़ीदार पायजामा, सफेद ही मिरजई अंगरखा और सफेद रंग की टोपी या पगड़ी पहन कर हाथों में रुमाल ले कर चलते हैं। प्रायः ढोलक बजाने वाला मुख्य गायक होता है, परन्तु यह बात हमेशा नहीं होती। होली नृत्य गांव के किसी पंचायत चौक में या हर परिवार के आंगन में गोल घेरे में किया जाता हैं। नर्तक कभी-कभी दोनों हाथों में रुमाल लेकर नाचते हैं और कभी एक ही हाथ में रुमाल ले कर नृत्य करते हैं। नर्तक गोल घेरे में पहले एक कदम बढ़ाता है और फिर उसी स्थान पर घूमकर हाथों के रुमालो या रुमाल को सिर के ऊपर और अपने चारों और घुमाता हुआ नाचता है। मुख्य गायक ढोलक ले कर बीच में रहता हैं और नृत्य का निर्देशन करता है। गीत की उसी कड़ी को सभी गायक गाते हैं और गीत के अनुरुप भावों के अनुसार नृत्य करते हैं।
होली का नृत्य रास्ते चलते हुए भी किया जाता है। पहाड़ी संकरे मार्गों पर नर्तक एक पंक्ति में चलकर गीत गाते हुए उसी तरह नृत्य करते हैं जिस तरह घेरे में नाचते हैं। कहीं- कहीं नर्तकों की दो टोलियां बन जाती हैं। यह केवल स्थान पर निर्भर करता है। होली के नर्तकों को भेंट मिलती है। जब होली के गीत और नृत्य किसी घर के सामने गाये और नाचे जाते हैं तो वह परिवार अपनी शक्ति के अनुसार नर्तकों को रुपये या भेली देता है। जब किसी रिश्तेदार के घर पर होली नृत्य किया जाता है, या रिश्तेदार के गांव में होली नृत्य करने कोई पार्टी टोली जाती है, तो उसे प्रथा के अनुसार एक बकरा भेंट किया जाता है। आजकल लोग बकरे की कीमत दे देते हैं। कभी-कभी हर परिवार के घर के आगे नाचने के बजाय गांव के सम्मिलित एवं पंचायती चौक में होली नृत्य नाचा जाता है, ऐसी स्थिति में नाचने वालों को गांव की ओर से बकरा, भेली या उनके मूल्य के अनुसार रूपया देने की प्रथा है।
होली के नर्तक जब किसी गाँव में या घर में प्रवेश करते हैं, तो इस प्रकार गीत गाते और नाचते हैंः-
खोलो किवाड़ चलो मठ भीतर
दर्शन दीजो माई अम्बे झुलसी रहोजी।
तीलू को तेल कपास की बाती
जगमग जोत जले दिन राती-झुलसी रहो जीं।
यह गीत प्रायः आंगन में या घर के प्रवेश द्वार में प्रवेश करते हुए गाया जाता है। इसके तुरन्त बाद होली के नर्तक उस गांव के इष्ट देवता, भूमि देवता और क्षेत्र देवता को नमस्कार करते हैं और गोलाकार में नाचना और गाना शुरू कर देते हैं। होली के गीतों के कोई निश्चित विषय नहीं होते। इन गीतों को देखियेः-
हर हर पीपल पात जय देवी आदि भवानी।
कहां तेरो जनम निवास जय देवी आदि भवानी।
कांगड़ जनम निवास जय देवी आदि भवानी ।
कहां तेरो जौला निशाण जय देवी आदि भवानी।
ं कश्मीर जौला निशाण जय देवी आदि भवानी।
कहां तेरो खड्ग खपर जय देवी आदि भवानी।
बंगाल खड्ग खपर जय देवी आदि भवानी।
हर हर पीपल पात जय देवी आदि भवानी।
अथवा
हम होली वाले देवे आशीष
गांवे बजावें देवें आशीष
और इसी तरह गाते बजाते तथा नाचते हुए नर्तकों की मण्डली अपने पड़ोस के सभी गांवों में घूम-घूम कर होली नृत्य गीतों को गा-नाच आती है। शुक्ल सप्तमी से लेकर पूर्णमासी के दिन तक क्रम नित्य चलता है। पूर्णमासी की रात में होलिका दहन होतो है। ज्योतिषी से पूछकर होलिका दहन का निश्चित समय मालूम किया जाता है।
प्रहलाद रूपी झंडे को और होलिका के प्रतीक मेहल की डाली को, लकड़ी के मंडप के समीप गाड़ देते हैं। होलिका का पूजन फूल, फल और गन्ने के डंडे से किया जाता है। धूप-दीप- चंदन के साथ होलिका को पूजते हैं। काष्ठ मंडप के चारों ओर परिक्रमा करते हुए, ठीक मुहूर्त पर होलिका की उस प्रतिमा में हल की डाली पर लकड़ी के मंडप पर अग्नि दाह किया जाता है।
प्रातः काल प्रतिपदा शुरु होने पर उस राख की ढेर से धूली धारण का कार्य किया जाता है। धूली धारण का अर्थ उस राख को एक-दूसरे पर रंग के रूप में ग्रहण करने को कहते हैं। गढ़वाली में उस धूली धारण को ‘छरोली’ छार-क्षरा-राख अर्थात् छार राख की रोली धारण करना कहते हैं। नर्तक उस राख को एक दूसरे पर रंग की तरह लगाते हैं, गीत गाते हुए नाचते हैं और उस राख का चंदन भी पहनते जाते हैं। गीत इस प्रकार हैः-
शिव जी न पैने रे बभूति को रोला
बर्मा जी न पैने रे मलय गिरी चन्दन।
उस राख के टीके को उस स्थान से नर्तक अपने-अपने परिवारों के सदस्यों के लिये ले जाते हैं। अपने-अपने घरों में सब उस राख के टीके को लगाते हैं और तब खुशी में रंग खेलते हैं। स्त्री-पुरुष भी स्वच्छन्द होकर रंग डालते हैं पर बहुओं को अपने बड़ो के साथ रंग खेलना उचित नहीं समझा जाता। देवर-भाभी, ननद-भाभी, जीजा-साली और समवयस्का नवयुवतियां व युवक आपस में जी भर के रंग खेलते हैं। एक ओर हिमालय की धरती फूलों से लदी होती है, तो दूसरी ओर फूलों के रंगों से रंगे नर-नारियों का कौतुक स्वर्गीय छटा अवतरित करता है। मस्ती भरा होली का नृत्य गीत, यति से स्वच्छन्द होता है। प्रकृति के साथ नर्तको और नर्तकियों की प्रसन्नता दिखाई देती है, जब भाव विभोर नर-नारियाँ स्वछन्द गति से नर्तन करते हैं।
दोपहर तक यह क्रम चलता रहता है। उसके बाद नहा-धोकर सभी नर्तक उसी होलिका दहन वाले स्थल पर एकत्र होते हैं। शुद्धि के लिये कर्मकाण्ड की पद्धति के अनुसार तिल पात्र दान करते हैं और प्रसन्नता से गांव लौट जाते हैं। उसी शाम को जो भेंट मिली होती है उसको सम्मलित रूप से लेते हैं। कहीं-कहीं बकरे काट कर जश्न मनाया जाता है तो कहीं नाना प्रकार के व्यंजन पकाकर छके जाते हैं।
परन्तु, आजकल नये ढंग से होली का उत्सव मनाया जाता है। जितना भी संग्रह होता है, वह किसी विद्यालय के निर्माण में या किसी औषधालय के भवन-निर्माण में खर्च किया जाता है। अब किसी न किसी सामूहिक एवं सामाजिक कार्य हेतु ऐसे नृत्यों का आयोजन किया जाता है, जिनमें पर्याप्त सफलता मिलती है।
होली के गीतों में ब्रज की होली की तरह कृष्ण-राधा या कृष्ण ही नृत्य का विषय नहींं होते -अम्बा, शिव, ब्रह्मा, कृष्ण आदि कई विषय वस्तु के रूप में प्रयुक्त होती है और सबका समान आदर गढ़वाली होली के नृत्यगीतों में होता है।
लेखक उत्तर प्रदेश विधान सभा में उच्च शिक्षा मंत्री रहे हैं। आलेख में प्रयुक्त सभी गीत श्री शिव शरण प्रसाद धस्माना के संकलन से साभार लिये गये हैं। यह आलेख 1981 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, उत्तर प्रदेश द्वारा साभार लिया गया है।