हरीश जोशी
07 फरवरी 2021 की इतवार के दिन की सुबह लगभग हर उत्तराखण्डी खुशनुमा मौसम में धूप का आनन्द ले रहा होगा कि बिन बादल बिन बरसात के ही उत्तराखण्ड के चमोली जनपद स्थित ऋषिगंगा-धौलीगंगा में भयावह आवाज के साथ बाढ़ की विभीषिका होती है जो अपने साथ ऋषिगंगा में अवस्थित पॉवर प्रोजेक्ट को क्षतिग्रस्त करते हुए वहाँ काम पर लगे सैकडों कार्मिकों को अपना ग्रास बना लेती है।
ऋषिगंगा और धौलीगंगा गढ़वाल की प्रमुख नदी अलखनन्दा की सहायक जलधाराएं हैं और अलखनन्दा आगे चलकर गंगा में समाहित होती है लिहाजा आपदा वाले स्थान रैणी,जोशीमठ से लेकर हरिद्वार तक के लिये सुरक्षा का अलर्ट जारी होता है।
परिस्थितियां कुछ ठीक होती हैं और इसी दिन के साँझ ढलने तक पानी का वेग कम होता जाता है परन्तु ऋषिगंगा व धौलीगंगा में जो क्षति इस दौरान हुई उसने हिमालय के विकास मॉडल को लेकर एक बार फिर से नयी बहस का धरातल तैयार कर दिया है।
इतना तो तय है कि उत्तराखण्ड में विकास के लिये विनाश की कीमत चुकाना नियति बनकर रह गया है,लगता नहीं कि यहाँ पर प्रकृति,विज्ञान, और परम्परागत ज्ञान की चेतावनियों को गम्भीरता से लिया जा रहा है।
केदारनाथ की विभीषिका को यही कोई 08 वर्ष भी अभी पूरे नहीं हुए हैं, खुद ऋषिगंगा का पॉवर प्लांट वर्ष 2016 में आपदा की भेंट चढ़ा है हिमालय में आपदाओं का होना कोई नयी बात नहीं है सवाल ये है कि आपदाओं के रूप में आ रही प्रकृति की इन चेतावनियों को ठीक से न तो समझा जा रहा है और न ही विकास और उससे जुड़ी परियोजनाओं में इनका समावेश ही किया जा रहा है।
पर्यावरण,पारिस्थितिकी,भूगर्भ विशेषज्ञों के अध्ययन महज एक दस्तूर अदायगी भर होकर रहने लगे हैं।
वर्ष 1991 के उत्तरकाशी,वर्ष1999 के चमोली-रुद्रप्रयाग भूकम्प विभीषिकाओं के बाद से गढ़वाल हिमालय के पहाड़ बुरी तरह से हिले हुए हैं, ऐसे में इन क्षेत्रों में बड़ी बड़ी परियोजनाओं का निर्माण,नदियों को रखने की कवायदें साबित करती हैं कि सरकार के विकास मॉडल में इस सबके लिये कोई जगह नहीं है।
विकास के नाम पर अंधाधुंध विस्फोटकों,गर्जना वाली भारी भरकम मशीनों का इस्तेमाल कर हिमालय का सीना आये दिन चीरा जा रहा है।कहने का लब्बो लुबाब ये है हिमालय के पर्यावरण और पारिस्थिकी तंत्र को जाने व समझे बिना राजनैतिक निहितार्थों के लिये विकास के नाम पर विनाश का खैर मकदम आये दिन हो रहा है।हिमालय की बसासत और और उसके संसाधन विनष्ट होते हों तो हों इससे सरकार को क्या वो मुआवजा बाँटने को है तो ना।
आज से कोई पाँच दशक पहले चिपको की जन्म भूमि *”रैणी”* ने जो रचनात्मक सन्देश विश्व पटल पर प्रक्षेपित किया था उसकी गम्भीरता को नजरअंदाज करने का परिणाम है कि यही रैणी गाँव एक बार ऋषिगंगा आपदा के रूप में चर्चित हो रहा है।
क्या समझा जाये कि सरकार इस विभीषिका को गम्भीरता से लेते हुए तथाकथित विकास में दीर्घकालिक की अवधारणा को बनाये रख सकेगी।
इस राज्य के नीति निर्माताओं को सद्बुद्धि हो कि जैसा ऋषिगंगा में हुआ ऐसा किसी अन्य बड़े या छोटे बांध के साथ राज्य में न हो,वो भी तब जबकि विश्व स्तर पर बड़े बांधों की परिकल्पना लुप्तप्राय होती चली जा रही है और उत्तराखण्ड पंचेश्वर के नाम से नये बाँध की कल्पना लेकर खड़ा है।