देवेश जोशी
रविवार 7 फरवरी 2021 को, ऋषिगंगा घाटी से लेकर विष्णुप्रयाग तक का दृश्य, पल में प्रलय जैसा था। सोशल मीडिया के जरिए लाखों लोगों ने इसे लाइव देखा भी। कारणों पर विशेषज्ञों का अध्ययन अभी आना शेष है पर जो बात पूरे विश्वास से कही जा सकती है वो ये कि ये प्रलय-जैसी घटना किसी पल-विशेष में ही घटित नहीं हुई है।
कुछ बाते हैं जो स्पष्ट हैं। कारणों पर मनन करने और आगे की राह तय करने के लिए बहुत जरूरी भी हैं। पहली बात तो यही कि इस प्रलयकारी घटना में पानी का वोल्यूम कम था। ठंड का मौसम और हाल ही में हुआ हिमपात इसमें सहायक रहा। पानी कम होने से विनाशकारी प्रभाव विष्णुप्रयाग तक ही असरकारी रहा। यही घटना गर्मी या बरसात के दिनों में होती तो असर निश्चित ही बहुत दूर तक होना तय था। ऋषिगंगा-रैणी और तपोवन के बैराज ने गाद को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
ग्लेशियर टूटना, एवलांच आना उच्च हिमालयी क्षेत्रों के लिए सामान्य घटना है। हाल ही में हुए हिमपात से कोई ग्लेशियर टूट कर ऋषिगंगा के मार्ग को बाधित कर गया होगा। इससे अस्थायी झील बन गयी होगी। निश्चित ही इससे ऋषिगंगा में जलप्रवाह में कुछ समय पहले कमी आयी होगी जो दुर्भाग्य से नोटिस नहीं की जा सकी।
पूरा ऋषिगंगा क्षेत्र, नंदादेवी बायोस्फियर रिज़र्व के अंतर्गत आता है। रैणी गाँव और बैराज बफर ज़ोन में आते हैं। इस रिज़र्व का कोर ज़ोन, हिमाच्छादित चोटियों से घिरा ऐसा अद्भुत क्षेत्र है जिसमें एकमात्र प्रवेश मार्ग ऋषिगंगा घाटी से ही है और जो अत्यंत दुष्कर है। अनोखी भौगोलिक स्थिति की विशिष्ट जैव-विविधता के दृष्टिगत ही इस क्षेत्र को नंदादेवी पार्क और बाद में बायोस्फियर रिज़र्व बनाया गया। लाता, दूनागिरी, चंगबंग, कालंका, ऋषिपहाड़, नंदादेवी पूर्वी, नंदाखाट मृगत्यूड़ी, त्रिशूल और नंदाघुंटी शिखर बेसिननुमा इस कोर ज़ोन की सीमा बनाते हैं। रिजर्व आज से 32 साल पहले अस्तित्व में आया था, यूनेस्को के मैन एण्ड बायोस्फियर प्रोग्राम के तहत। तत्समय ये भारत में दूसरा बायोस्फियर था जो चमोली, बागेश्वर और पिथौरागढ़ तीन जिलों में स्थित है।
लगभग वृत्ताकार, उच्च हिमालय शिखरों से घिरे इस महत्वपूर्ण कोर ज़ोन से जलप्रवाह का एक ही मार्ग है, और वो है ऋषिगंगा। इसी ऋषिगंगा के अंतिम छोर के वाम पार्श्व में स्थित है, पर्यावरण-ऋषि गौरादेवी की कर्मस्थली, उनका गाँव रैणी।
वैश्विक विरासत घोषित ये कोर ज़ोन, उत्तराखण्ड के पास एक महत्वपूर्ण धरोहर है। छिटपुट विरोध के बाद स्थानीय निवासी कोर ज़ोन में, मानवीय गतिविधियों पर प्रतिबंध का पूरी तरह पालन करते रहे हैं। हालांकि स्थानीय निवासियों की जीविकोपार्जन गतिविधियाँ कभी भी खतरनाक नहीं होती हैं। कई बार तो इनके जरिए ही वो महत्वपूर्ण सूचनाएँ प्राप्त होती हैं जो आधुनिक यंत्र-तकनीकी भी नोटिस नहीं कर पाते हैं और न ही वन विभाग के कार्मिक-अधिकारी। इन्हीं लोगों के सहयोग से ब्रिटिश काल में उच्च हिमालयी क्षेत्रों का सफल सर्वेक्षण किया जा सका और इन्हीं से प्राप्त सूचनाओं के माध्यम से ही कई आपदाओं के प्रभाव को सीमित भी किया जा सका।
गौरा देवी के जग-प्रसिद्ध चिपको आंदोलन, गोविंद सिंह रावत की स्थानीय मुद्दों को लेकर बुलंद आवाज़ और हक़-हक़ूक को लेकर धन सिंह राणा का छीनो-झपटो आंदोलन को भी कैसे विस्मृत किया जा सकता है। इन्हीं का असर था कि जलविद्युत परियोजनाओं के लिए बाँध की जगह रन आॅफ द रीवर तकनीकी को अपनाया जाने लगा। नंदादेवी कोर ज़ोन के मुहाने पर ऐसी किसी भी परियोजना को तो बिल्कुल भी उचित नहीं ठहराया जा सकता है। सर्वाधिक चिंता का विषय यह है कि ऐसी परियोजनाओं के डीपीआर में जिन आपात्कालीन सुरक्षा मानकों का उल्लेख होता है वो आपात्काल में कहीं नज़र ही नहीं आते। एडिट टनल्स इसीलिए होती हैं पर उनके अस्तित्व और इस्तेमाल की तो न ऋषिगंगा से कोई खबर मिल रही है और न तपोवन से।
आपदास्थलों पर सेना व प्रशासन राहत कार्य में जुटा है। ईश्वर उन्हें अधिकतम जीवनों को बचाने में सफलता प्रदान करे। जिन्होंने जान गँवायी उनके लिए हार्दिक संवेदना तो है ही है साथ ही अधिवक्ता गणों से अपेक्षा है कि वे, नियोक्ता कम्पनी से अनुबंधित मुआवजा-राशि परिजनों को दिलाने में सहायता करेंगे। ऐसा भी देखा गया है कि इस तरह की कम्पनियों के बीमा-अनुबंध कार्मिक हित की जगह कम्पनी हित को सुनिश्चित करने की ओर अधिक झुके होते हैं।
ग्लोबल वार्मिंग और संवेदनशील क्षेत्रों में असुरक्षित छेड़छाड़ उच्च हिमालयी क्षेत्रों की आपदाओं का प्रमुख कारण है। ग्लोबल वार्मिंग के संभावित खतरों के प्रति स्थानीय निवासियों की जागरूकता बढ़ायी जानी चाहिए और विकास कार्यों में असुरक्षित छेड़छाड़ को रोका जाना चाहिए। परियोजनारंभ से पहले पर्यावरणीय अनापत्ति की संस्तुतियों को पब्लिक डोमेन में भी रखा जाना चाहिए और उन्हें ईमानदारी से अमल में भी लाया जाना चाहिए।
हमें याद रखना चाहिए कि हिमालय नवीनतम पर्वत-श्रृंखला है। परिवर्तन उसका स्वाभाविक स्वभाव है। इन परिवर्तनों के प्रति सोच और नीतियों को आपदा-प्रबंधन के बजाय प्रो-एक्टिव-मैनेजमेंट की ओर अधिक फोकस करना होगा।
उत्तराखण्ड में नंदादेवी के प्रति अगाध श्रद्धा है। राजा और प्रजा दोनों ही इसे सदियों से शक्ति, विश्वास और प्रेरणा का स्रोत मानते आए हैं। यहाँ तक कि जनमानस उसे धियाण (ब्याहता बहन-बेटी) मानता है। ऋषिगंगा, नंदा-श्रृंखला में रहने वाली उसी मिथकीय धियाण द्वारा प्रवाहित पवित्र सरिता है।
ऐसा भी कह सकते हैं कि यूनेस्को का ध्यान जिस भौगोलिक विशिष्टता की ओर 1988 में गया उसे उत्तराखण्डवासी सदियों पहले से पहचानते थे। खुद ही सोचिए, ऋषिगंगा के रूप में नि:सृत, इसी नंदादेवी का पवित्र चरणामृत, टनलों से गुजार कर टरबाइन घुमाने के लिए है या कलशों में रख कर आचमन करने योग्य।