दिनेश जुयाल
पता नहीं ये उम्र का असर है या फिर इतने साल एक पत्रकार की पहचान का कि अपने चारों तरफ कुछ भी ऐसा नहीं दिख रहा जिसे देख कर हर्षित हुआ जाए। दुनिया जहान की क्या कहें, हिमालय की जिस धरती पर जनम लिया, वहां भी आंखे खोल कर देखने पर एक अजीब सी टीस मन में उठती है। एक अपराध बोध के साथ ही विदा होना होगा, अपने निकम्मेपन पर आने वाली पीढ़ी से माफी मांगते हुए।
बर्तोल्त ब्रेख्त ने कभी इसी मानसिकता में कहा होगा-
कैसा अजीब वक्त आ गया है
जबकि पेड़ पौधों के बारे में बोलना तक गुनाह है
अन्याय के प्रति मौन साध लेना सर्वव्यापी हो गया
खुश वही है जो इन तथाकथित
दोस्तों की पहुंच से बाहर है। ….
जब हमारे बारे में सोचो
तो इस अंधेरे युग के बारे में भी सोचना
जो इन कमजोरियों का जनक है….
बीस साल से हम अपने राज्य में रह रहे हैं जिसे हमारे लोगों ने लड़ कर, जान देकर, बहुत कुछ खो कर हासिल किया। नौ नवंबर को भी सरकार राज्य के जन्म का जश्न मनाएगी। अखबारों में आंकड़ों के साथ उपलब्धियों के इश्तेहार छपेंगे। नाच गाना भी होगा, टीवी चैनलों पर भी दिखेगा। मैं तमाशा देखते हुए हाशिए पर खड़े आम आदमी के साथ अपने हसरतों भरे दिल की धड़कनें सुनूंगा, चुपचाप। इस शुभ वेला पर रोने वाले राज्यद्रोही घोषित कर दिए जाएंगे।
तो चलिए जश्न मनाइए कि हिमालय की इस धरती को प्रलय की चिंता किए बिना तोड़ा और खोदा जा रहा है, ताकि एक दिन ऊंची चोटियों में विराजमान देव स्थलों में पहुंच सकेंगे सैलानियों के काफिले। बफीर्ली पहाड़ियों में कर सकेंगे रेव पार्टियां और वह सब जो पंच तारा कल्चर में होता है। जश्न मनाइए कि यहां कश्मीर की तरह आंतकवाद की जरूरत नहीं पड़ी। यूं ही पूरा पहाड़ सरकार के आगे सिर झुका कर नीलामी के लिए तैयार है। एक दिन राह बुहारते हुए लाएगी सरकार देशी विदेशी भूपों को। तब तक हमारे ही टैक्स से फिर रहने लायक हो चुके होंगे हमारे सारे भुतहा गांव। कि छूट जाएगा पहाड़ियों का पहाड़ जैसा कठिन जीवन, आबाद गांव भी कानूनन बिकने को तैयार हैं, मैदान में उतर रहे पहाड़ी, फ्लैटों में नहीं तो झुग्गियों में रहेंगे, पहाड़ की विपदाओं से दूर। बदल रहा है उनका नसीब। जश्न हमारे उन नेताओं की तरक्की का भी तो बनता है जो अपने कुनबों और कहारों के साथ हो चुके हैं मालामाल। एक दिन ये भी अपने बच्चों की शादी औली में करेंगे हेलीकाप्टरों की बारात के साथ। हमारे राजा सुरक्षित हैं अपने मोटे पेट वाले अफसरों, पत्रकार-पैरोकारों के बीच जो जनता के विनोद के लिए रचते हैं और मंचित करवाते हैं रामायणी, महाभारती टाइप प्रहसन, रासलीलाएं, रूसा-रूसी के हलके प्रसंग और नाटक। ऐसे राजाओं की सकुटुंब सेहत के लिए यज्ञ भी प्रजा ही तो करेगी जश्न की इस बेला पर।
20 साल में बहुत कुछ हुआ है और बहुत कुछ होने जा रहा है। लोगों को शिक्षित करने के लिए इतने स्कूल खुले कि 3500 तो बंद करने पड़े। ये अलग बात है कि इतने के बावजूद कई स्कूलों में शिक्षकों का टोटा है। कालेज और विश्वविद्यालय तो खुलते ही जा रहे हैं ये अलग बात है कि फीस चारगुनी हो जाने से वे उत्तराखंड के आम आदमी की पहुंच से बाहर हो गए हैं। टिहरी बांध जैसी कई बिजली परियोजनाएं शुरू हो गई। ये अलग बात है कि उत्तराखंड के लोगों को खदेड़ कर बनी इन परियोजनाओं पर हक अब भी उत्तर प्रदेश के पास है।
विकास का ताजा नमूना हमारी चार धाम परियोजना है। 900 किलोमीटर में बेहद नाजुक हिमालय को खोदने के लिए 12000 करोड़ की परियोजना को मंजूरीसंभव न थी इसलिए सरकार ने अपनी ही आंखों में धूल झोंकते हुए इसे एक नहीं 53 प्रोजेक्ट बता करहजारों पेड़ों की बलि देते हुए हिमालय को तोड़ना शुरू कर दिया। सौ से ज्यादा जगहों पर नए भूस्खलन जोन बन गए जो सालों तक लाइलाज जख्मों की तरह रिसते रहेंगे। लाखों टन मलबा सीधे नदी में, खेतों में या जल स्रोतों के ऊपर पड़ा है। सुप्रीमकोर्ट की हाई पावर कमेटी की रिपोर्ट पर जब तक डबल लेन ही बनाने का आदेश हुआ तब तक फोर लेन का 65 फीसद काम निपटा दिया था। सरकार की आईएएस लाबी अब भी जुटी है कि 12 मीटर की सड़क ही बने। ये अलग बात है कि यह सरकार द्वारा बनाए गए नियम का ही उल्लंधन है। अब चाहते हैं कि ये कमेटी खत्म ही हो जाए ताकि नेताओं, अफसरों, और ठेकेदार की करोड़ों की कमाई पर आंच न आए और पहाड़ के लोग सालों तक टोल देकर अपने इस विकास का कर्ज उतारते रहें।
हिमालय की हत्या की इस साजिश की कहानी हमारे समय के इतिहास का एक ऐसा पन्ना है जो कभी विस्मृत नहीं हो पाएगा।ऐसे ही टिहरी बांध, निजी क्षेत्र के अन्य बांधों और प्रस्तावित पंचेश्वर बांध के मामले में हो रहा है। दुनिया से सबसे नए और सबसे कमजोर इस पर्वत में हो रहे विकास से पर्यावरण के नाम पर पद्म पुरस्कार पाने वाले भी जश्न की मुद्रा में होंगे, उन्हें होना ही होगा।
उत्तराखंड के मैदानों में कुछ बहार दिखती है। कुछ हिल स्टेशन भी थोड़ा चमके। शेष पहाड़ में आम आदमी की मिल्कियत सिर्फ 12 फीसद जमीन ही पर है। ऊबड़ खाबड़ और असिंचित सीढ़ीनुमा खेत वाली जमीन में 70 फीसदी आबादी में प्रति परिवार औसत एक हेक्टेअर जमीन भी नहीं आती है, बाकी धरती सरकार की है। तो क्या पहाड़ खोद कर खेत बनाने वालों की संतांने एक दिन पूरी तरह पलायन कर जाएंगी ? आरक्षित और संरक्षित क्षेत्र के अलावा वन पंचायतें भी सरकार के रहम पर हैं। नैनीसार में वन पंचायत की बड़ी जमीन एक सेठ को औने पौने में कालेज खोलने के नाम पर बेच दी गई थी। लंबे आंदोलन के बाद ये मसला निपटा। ऐसे छोटे मोटे कई मामले हो चुके। नेशनल पार्क के किनारे भूमाफियों के ठिकाने हैं। और सारे माफिया असल में सरकारी ही होते हैं। गुलामी के दौर में दारमा के लोगों ने आंदोलन कर तीन हजार वर्गमील जमीन अंग्रेज सरकार के कब्जे से वापस ली थी। क्या फिर कोई ऐसा आंदालन होगा ? नए कानून से लैस और नए इरादे वाली सरकार क्या करने जा रही अभी ठीक से पता नहीं। 1960-65 के बाद यहां भू बंदोबस्त नहीं हुआ। ऐसी सरकार और सरदार से नए भू बंदोबस्त की उम्मीद भी कैसे की जा सकती है जो सब कुछ बेच कर अपनी पार्टी और खुद अपने लिए माल बटोरने की नीति पर चल रही हो!
उत्तराखंड में कानून था कि बाहर से आने वाले लोग सीमित मात्रा में जमीन लेकर घर बना कर रह सकते थे। मंशा यही रही होगी कि हिमालय की रक्षा का भार उन्हें ही सौंपा जाए जो इसे सदियों से जानते हैं और प्यार करते हैं। अब सरकार ने एक तरह से खुली नीलामी खोल दी है। यानी अब .यहां के लोगों के लिए हिमालय खाली करने का वक्त आ गया।
नदियों के सहारे जीवन चलता है। नदी का मतलब सिर्फ बहता पानी नहीं। इसके पीछे ग्लेशियर तो हैं ही, इसमें बिजली बनाने वाली ऊर्जा है। अपने आदि से अंत तक ये नदियां जल संग्रहण ही नहीं करती, धरती को रिचार्ज करती जाती है। पहाड़ों की ऊपरी परत को सिल्ट के रूप में ले जाकर मैदानों को उपजाऊ बनाती हैं। सरकारें इन जीवनदायिनी नदियों की बोली लगा रही हैं। बांध बनाने के लिए नदियों की जमीनें और उनका प्रवाह बेच दिया गया। आरामगाह बनाने के लिए भी किनारे बेचे जा रहे हैं। नदियों के किनारे से रेत बजरी उठाने की सीमाएं तोड़ी जा रही हैं। नेता, अफसर और उनके चेले चांटे खनन माफिया का नाम पाकर खुश हैं।
चित्रकूट के कामदगिरि पर्वत पर कोई नही चढ़ता क्यूंकि वहां के बारे में कहा गया है कि वह देवताओं का निवास है। ऐसा न होता तो उस सुरम्य पहाड़ पर भी कंक्रीट का जंगल खड़ा हो गया होता। यहां हम केदारनाथ की आपदा देखने के बाद भी गाड़ियों के काफिलों के साथ कई गुना लोगों को चारधाम लाने की योजना बना रहे हैं। छह महीने देव स्थान बंद रहने से हिमालय को जो आराम मिलता है उसे भंग करेंगे। टनों कचरा हिमालय पर खड़ा करेंगे। आस्था का पर्यटन खत्म हो जाएगा। मुख्यमंत्री और उनके दरबारियों ने जिस तरह एक विदेशी के लिए औली के बुग्यालों पर शादी समारोह की व्यवस्था की वैसी ही व्यवस्थाएं होंगी।
विकास के नाम पर ही पिछले 20 साल में पहाड़ों में करीब तीन हजार किलोमीटर सड़कें बनीं। ये बननी भी चाहिए थीं लेकिन इन सड़कों का क्या हाल है ये जानने के लिए धुमाकोट बस हादसा याद कर लेना काफी है। यहां एक 31 सीटर बस 68 यात्रियों को ले जा रही थी। ड्राइवर ने शराब नहीं पी रखी थी। गड्ढांे से अटी सड़क पर गाड़ी नियंत्रण से बाहर हो गई और 42 लोगों की जान चली गई। यानी आम आदमी के लिए बसें नहीं है, सड़कें खस्ता हाल हैं और हम चार धाम पर सुगम यातायात के सपने बुन रहे हैं।
बीस साल के जश्न में मेडिकल कालेजों की संख्या भी गिनाई जाएगी, स्वास्थ्य सेवाओं का डंका पिटेगा। कोरोना काल में दून अस्पताल, शोबन सिंह जीना अस्पताल, सुशीला तिवारी अस्पताल आदि की कुछ तस्वीरें वायरल हुई। मरीजों को सुबह का बासी खाना दिया जा रहा है। भर्ती करने के नाम पर टालमटोल, जांच के नाम पर भटकाना। पहले एक पैथोलाजी को ठेका फिर उसी पर सवाल। क्या वजह है कि कुमाऊं कि सरकारी अस्पताल बरेली के एक बदनाम से अस्पताल की सेवा में दे दिए जाते हैं ? ऐसे सवाल उठाएंगे तो जश्न में खलल होगा।
उत्तराखंड ही वह विलक्षण राज्य है कि यहां एक पलायन आयोग भी है। करीब 1.17 करोड़ की मौजूदा आबादी वाले इस प्रदेश से 45 लाख से अधिक लोग दिल्ली, मुंबई समेत देश दुनिया के शहरों में जीवनयापन कर रहे हैं। इनमें 42 फीसद 26 से 35 वर्ष के युवा हैं, यानी वे लोग जिन पर अब परिवार के भरण-पोषण की जिम्मेदारी है। 1704 गांव भुतहा घोषित हो चुके। सर्वाधिक प्रभावित पौड़ी जिले में पलायन आयोग को बैठना था, लेकिन वह भी पलायन कर देहरादून आ गया। आयोग ने अब तक छह जिलों का अध्ययन कर लिया लेकिन उन रिपोर्ट पर क्या एक्शन हो रहा है यह पूछने लायक सवाल नहीं है। इन्वेस्टर मीट का नतीजा सिफर है, सरकार हवा में जो भी दावे करे। यहां नौकरियां नहीं हैं। बस सेल लगी है, प्रतिभाओं की, संपदाओं की, जमीन की…
देहरादून में अस्थाई राजधानी बना कर दिल्ली ने पल्ला झाड़ लिया। कुछ लोगों ने इसे बसाने के नाम पर ही चांदी काटी। दीक्षित आयोग बना जिसे स्थायी राजधानी तय करनी थी। आयोग का कार्यकाल बढ़ाया जाता रहा। हो हल्ला हुआ तो इसे खत्म कर रिपोर्ट ले ली गई लेकिन फिर सरकार रिपोर्ट के ऊपर बैठ गई। धीरे-धीरे पोटली खुली। इधर आंदोलनकारी गैरसैंण -गैरसेंण चिल्लाते रहे। इस शोर की वजह से विधानसभा भवन और दफ्तर, गेस्ट हाउस भी बना दिए। एक बार वहां मंत्रिमंडल की बैठक के नाम पर पिकनिक भी मना ली। आज के मुख्यमंत्री तो स्थाई की जगह ग्रीष्मकालीन राजधानी का नोटिफिकेशन भी जारी कर चुके। ये अलग बात है कि वह ग्रीष्मकाल में भी देहरादून में ही विराजमान रहे और रायपुर में नई राजधानी बनाने की मुहिम में भी लगे हैं। तो क्या देहरादून में दो शीतकालीन राजधानियां होंगी। मुख्यमंत्री गैरसैंण में अपनी निजी जमीन खरीद कर प्रदेश और बाहर के लोगों के लिए रोल माॅडल बन गए।
क्या साजिश थी कि राज्य देने से दो दिन पहले 7 नवंबर 2000 को एक नोटिफिकेशन जारी कर यहां के जल संसाधन बड़े भाई यूपी के नाम लिख दिए गए ? 20 साल से इस राज्य की करोड़ों की परिसंपत्तियों पर पंचायत हो रही है। यहां नानक सरोवर समेत छह बड़े तालाबों, 20 से अधिक नहरें, नदियों की बिजली में राज्य का हिस्सा, रामगंगा बैराज, भीमगौड़ा वैराज, लोहिया फाटक बैराज, अवास विकास की सारी जमीनें और कालोनियां, हजारों भवन, कई हेक्टेअर जमीन आदि संपत्तियों का मालिक यूपी है। सिंचाई विभाग, ऊर्जा विभाग, आवास विभाग, परिवहन विभाग, वित्त विभाग, खाद्य विभाग, एंव नागरिक आपूर्ति, पर्टन, पशुपालन एवं मत्स्य पालन, पर्यावरण, औद्योगिक विकास, उत्तराखंड तराई बीज विकास निगम सहित कुल 11 विभागों की संपत्तियों का विवाद निपटता ही नहीं है।
टिहरी बांध पर राज्य के हक का दावा ही यहां को कर्णधारों ने राज्य बनने के नौ साल बाद किया। निजी क्षेत्र की श्रीनगर और विष्णु प्रयाग जैसी योजनाओं में राज्य का हिस्सा उत्तर प्रदेश को देने का समझौता एन. डी. तिवारी जैसे मुख्यमंत्री कर गए। आंदोलनकारियों ने सिर्फ हरिद्वार का केवल कुंभ क्षेत्र मांगा था, आपने पूरा जिला दे दिया ! लेकिन जहां कुंभ होता है वह क्षेत्र यूपी के स्वामित्व में है। 25 जुलाई 18 को लखनऊ में पुनर्गठन आयुक्त कार्यालय बंद करने का मतलब क्या ये माना जाए कि त्रिवेंद्र सिंह के नेतृत्व वाली सरकार ने योगी सरकार के साथ यथास्थिति पर समझौता कर लिया। दो मार्च 2020 को सरकार ने सूचना अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी में कुछ स्थानों पर दोनों राज्यों में सहमति होने का जिक्र किया है, लेकिन क्या सहमति हुई इसका खुलासा नहीं किया ?
जश्न से पहले इन अवांछित बातों की प्रासांगिकता यही है कि ऊपर गिनाई गई तकलीफों में से ज्यादातर वर्तमान सरकार की वजह से हैं। यह कहने में भी कोई गुरेज नहीं कि अब तक की सरकारों में से वर्तमान सरकार उत्तराखंड के बुनियादी मसलों पर सबसे अधिक संवेदनहीन साबित हुई है। फिर भी बेहतर की उम्मीद में ‘जय उत्तराखंड’ तो हम भी बोलेंगे ही!