राकेश ढ़ोंढियाल
हमारे घर के बग़ल से, पहाड़ी नाले के किनारे किनारे ,एक पगडण्डी ‘स्नो व्यू’ तक जाती थी । पैदल चलने के शौक़ीन इक्का दुक्का पर्यटक मॉल रोड से निकलकर इस रास्ते हिमालय देखने जाया करते थे ।अपने आँगन में खेलते हुए, जब हम मैदानी लोगों को आता देखते तो अपनी गेंद नाले के उस पार, पगडण्डी के किनारे उगी बिच्छू घास की झाड़ियों में फेंक देते और अपनी हंसी रोक कर उनसे बॉल निकाल कर फेंकने का आग्रह करते। बिच्छू घास में हाथ लगते ही पर्यटकों की चीख़ें निकल जाया करतीं और हम खिलखिलाते हुए घर के पीछे की ओर भाग जाते थे
लेकिन जब चढ़ता उतरता कोई मैदानी पर्यटक अनजाने में बिच्छू घास छू लेता तो हम झट से जाते और उसके हाथ पर ‘अल्मोड़ ‘ की खट्टी मीठी पत्तियां रगड़कर मल देते । फ़ौरन मिली राहत से उसके चेहरे पर उतरी हैरानी भरी ख़ुशी देखने का अलग ही मज़ा था। जब मैं महज ग्यारह साल का था तब हमारे पड़ोस में एक सुन्दर लड़की आई थी ..सिया । वह पहाड़न नहीं थी लेकिन हवा सर्द होते ही उसके गाल सेब की तरह सुर्ख लाल हो जाते थे।एक दिन जब सिया ने ग़लती से बिच्छू घास छू ली थी तो इन्हीं खट्ट मिट्ठ पत्तियों ने मुझे उसका बहुत करीबी बना दिया था । हमारे घर के पीछे तीखी चढ़ाई वाला पहाड़ था…बांज के पेड़ों का जंगल।
घर और जंगल के बीच एक भीड़ा था जो गर्मियों में एक खास किस्म के रंग बिरंगे फूलों से भर जाता था । एक दिन श्यामू ने बताया कि इस फूल को ‘आइ लव यू फ्लावर’ कहते हैं। फिर उसने एक फूल तोड़ा और उसकी एक-एक पंखुड़ी तोड़ कर उसके साथ एक-एक अक्षर बोलने लगा…. आइ,एल,ओ,वी,ई,वाई,ओ,यू…कुल आठ पंखुड़ियाँ, न एक कम न एक ज़्यादा। फिर मैंने भी कई फूल तोड़कर ऐसा किया। हर बार ‘आइ लव यू ‘ बनता। अगले ही दिन मैं सिया को फूलों से भरे उस भीड़े पर ले गया और कुछ फूल तोड़कर अपने नव अर्जित ज्ञान को उसके साथ साझा किया । उसे भी यह खेल बहुत अच्छा लगा लेकिन वह अक्षरों को ज़ोर से बोलने के बजाय शरमाते हुए बस बुदबुदाती रही।
यह बातें मैं आनी से जलोड़ी पास की ओर चढ़ते हुए, अपने ड्राइवर को देखकर सोच रहा था । दरअस्ल कुछ ही देर पहले जब मुझे पानी के एक स्रोत के नीचे ‘ सांप का भुट्टा ‘ दिखा तो मैंने गाड़ी रुकवाई थी और सालों बाद दिखे इस पौधे की कुछ तस्वीरें ली। फिर अभी अभी सड़क के किनारे ‘खट्ट मिट्ठ ‘ घास और आठ पंखुड़ी वाले रंगबिरंगे फूल देखकर मैंने दोबारा गाड़ी रुकवा ली थी। मैंने अल्मोड़ के कुछ पत्ते तोड़कर अपनी हथेलियों से मसले और उनकी चिरपरिचित गंध को महसूस करने के लिए हाथों से अपनी नाक ढक कर गहरी साँसें भरी थी ।
कार में बैठते वक़्त उस हिमाचली ड्राइवर ने जब मुझे कुछ पत्ते चबाते देखा तो उसकी भाव भंगिमाओं से स्पष्ट था कि मैं उसके लिए एक अबूझ पहेली बन चुका हूँ । उसे अब तक यही मालूम था कि मैं भोपाल से आया हूँ । वह नहीं जानता था कि मैं मूलतः कहाँ से हूँ। वह इसलिए भी हैरान था कि मैं अकेला घूमने आया हूँ ।एक आध बार उसने मेरे बारे में जानने की कोशिश में घुमा फिराकर सवाल किए भी , लेकिन मैंने उसकी उत्सुकता बढ़ाने के लिए जवाब टाल दिया था । वैसे भी मेरे यहाँ आने का कारण उसे समझाना मुश्किल होता ।
आनी से जलोड़ी पास की दूरी यूँ तो सिर्फ 30 किलोमीटर है लेकिन इस दरमियान आपको गाड़ी 2000 फ़ीट से सीधे 12000 फ़ीट की ऊंचाई पर पहुंचा देती है। सामने मोड़ पर एक ताज़ा भूस्खलन के चिन्ह दिखाई दे रहे थे । सड़क को शायद हफ्ते दो हफ्ते पहले ही साफ़ किया गया था। ऊपर से कई पेड़ मिटटी के साथ नीचे खिसके थे । कई पेड़ों की जड़ें मिटटी के बाहर निकल आई थी ..जड़ें हिलने के कारण कई पेड़ सूखे से दिखने लगे थे। मुझे तिलौन्ज के इन पेड़ों से बहुत सहानुभूति होने लगी थी।जड़ें कटना क्या होता है ,यह मुझसे बेहतर भला कौन जान सकता है। भोपाल बेहद पसंद है लेकिन हर चार छः महीने में पहाड़ की हुड़क लग ही जाती है ।
आज भी पहाड़ देखे ज़्यादा वक़्त हो जाय तो तबियत ख़राब सी लगने लगती है । माँ- पिताजी के जाने के बाद नैनीताल का मकान छूट गया लेकिन पहाड़ की हुड़क नहीं छूटी। गढ़वाल में पैदा हुआ और कुमाऊं में पला बड़ा….सारे रिश्ते नातेदारों से दूर।नैनीताल में बहुत से दोस्त थे लेकिन काम धंधे के सिलसिले में सब के सब दूर होते चले गए । पिताजी के देहांत के लगभग एक साल बाद जब नैनीताल गया तो वह पूरी तरह अजनबी हो चुका था। अब तक वो शहर कॉन्क्रीट के जंगल में बदल चुका था।हमारे घर के दाईं ओर एक बहुत बड़ा मैदान था । उस मैदान में बांज के पेड़ों का एक झुरमुट था।बचपन में हम बांज के बीजों यानि निक्वाल इकठ्ठा कर उनसे खेला करते थे। उनसे कुछ ही दूरी पर दाड़िम का एक पेड़ हुआ करता था जिसके फलों से दांत खट्टे हो जाते ।
इसी मैदान से हम पूजा के लिए फूल, दूब और कुणजू के पत्ते तोड़कर लाते थे। गर्मियों में जब पीठ पर घमौरी जैसी फुंसियां निकल आती ,तब माँ कुणजू के पत्ते हाथ से मसलकर हमारी पीठ पर रगड़ा करती थी। यहां कुछ देवदार के पेड़ भी थे जिनसे तेज़ हवा में साँय साँय की डरावनी आवाज़ें निकला करतीं । नैनीताल में तेज़ हवा के साथ झील का रंग बदलना अपशकुन माना जाता था।ऐसे दिन अक्सर झील से कोई लाश निकलती और पूरी वादी उदासी से भर जाती ।लेकिन इन्हीं पेड़ों की समतल सी डालियों पर जब बर्फ जमती तो ये बेहद शांत और खूबसूरत दिखते थे। बरसात के दिनों इन वृक्षों के नीचे रंग बिरंगे कुक्करमुत्ते और एक फ़र्न नुमा सब्ज़ी उग आती । लिंगवड़ नाम की ये सब्ज़ी मुझे बहुत पसंद थी । लेकिन उस मैदान में अब मकान और सिर्फ मकान हैं।
ऑक्सीजन की कमी के कारण अब गाड़ी के इंजन से कुछ अजीब सी आवाज़ें आने लगी थी …शायद हम 11000 फ़ीट की ऊंचाई तक पहुँच चुके थे। कुछ दुकानें देखकर मैंने ड्राइवर को गाड़ी रोकने को कहा। सुबह से कुछ खाया नहीं था। परांठे बनाने के लिए कहा और चहलकदमी करने लगा।सड़क के किनारे हिंसालू की झाड़ियां का झुरमुट था । एक पका हिंसालू मुंह में रखते ही मैं दोबारा अपने बचपन में चला गया।
उस दिन दिल्ली से सिया का चचेरा भाई आया था ।हम दोनों उसे ऊपर पहाड़ से झील का नज़ारा दिखाने के लिए अपने घर के पीछे वाले जंगल ले गए थे। पहाड़ चढ़ते हुए एक बार एक भीड़े पर मुझे बारी बारी से दोनों का हाथ पकड़ कर खींचना पड़ा था…उसके बाद मैं पगडण्डी के पतले होते ही अपना हाथ सिया की और बढ़ा देता । जब सिया का भाई थक कर घास पर लेटा था तब मैं हिंसालू चुनकर सिया की हथेलियों भर रहा था। उस दिन घर लौटने के बहुत देर बाद भी मेरे हाथ हिंसालू ,किलमोड़े और जंगली स्ट्रॉबेरी की मिलीजुली खुशबू से महक रहे थे और मेरे मस्तिष्क में वो खुशबू सिया की महक के रूप में दर्ज हो गई थी। देर रात तक सिया के करीब होने का एहसास बना रहा ।
लगभग दो घंटे में हम जलोड़ी बुग्याल पहुँच चुके थे ।बुग्याल यानि ऊँचे पर्वत पर घास का हरा समंदर । उत्तर में हिमालय और दक्षिण में क्रमशः छोटे होते पहाड़। मुझे बुग्याल से होते हुए सिरयोलसर सरोवर तक की पांच किलोमीटर की पैदल यात्रा करनी थी।मेरे गाड़ी से उतरते ही ड्राइवर बोला ” रुको सर मैं भी चलता हूँ,वहाँ बूढी नागिन देवी का मंदिर है,मैं भी मत्था टेक आऊंगा ।” बुग्याल शुरू होने के पहले वृक्षों की श्रंखला ख़त्म हो जाती है , इसके बाद कुछ झाड़ियों और फिर घास के सिवा कुछ नहीं होता। इस सीमा रेखा पर मुझे बुरांस के बौने वृक्ष दिखाई दिए जो फूलों से लकदक थे ।नैनीताल के आसपास ये फूल अप्रैल ख़त्म होते होते पूरी तरह से गायब हो जाते हैं लेकिन ऊंचाई की वजह से यहां मई महीने के तीसरे सप्ताह तक खिले हैं ।
ज़िन दिनों बुरांस खिलता ,लगभग उन्हीं दिनों नैनीताल के आस -पास सेब , नाशपाती , आड़ू, खुबानी और प्लम के पेड़ भी फूलों से लदे होते थे ।नैनीताल में फ्लैट्स के एक कोने पर हॉर्टिकल्चर वालों का एक छोटा सा फल संस्करण केंद्र था।माँ वहाँ से इन फूलों का स्क्वाश ख़रीद कर लाती थी । शक्कर और फल देकर वहाँ किफायती दाम पर आलूबुखारे की चटनी और सेब का जैम भी बनता था । अभी भी गर्मियों की शुरुआत में जब जब नैनीताल याद आता तो ऐसा लगता है मानो घर में अभी अभी आलूबुखारे की चटनी या या सेब के जैम की पहली पहली बोतल खुली हो।
मैंने बुरांस का एक फूल तोड़ा, उसकी एक कुप्पीनुमा पंखुड़ी ड्राइवर को दी और बाकी स्वयं चबाने लगा।ड्राइवर मुस्कराते हुए बोला ” सर आप मुझे बना रहे हो,आप पक्के पहाड़ी हो ।” उसे अपनी बात पर बहुत यक़ीन था और वो अब हंसने लगा था।मुझसे न रहा गया और मैं भी उसके साथ ठठा कर हँस पड़ा। फिर बातों का सिलसिला जो शुरू हुआ तो वापस आनी लौटने तक जारी रहा। अगले दिन मेरी वापसी थी और देर शाम मुझे चंडीगढ़ से ट्रेन पकड़नी थी। हम अलसुबह आनी से निकल चुके थे ।दिन भर का सफर बातों बातों में कट गया। शाम के गहराते गहराते हम चंडीगढ़ के बहुत नजदीक पहुँच चुके थे।सर्पीले रास्ते अब सीधे और सपाट होने लगे थे। बस कुछ ही देर में हम चंडीगढ़ पहुँच जायेंगे ।
उदासी गहराने लगी थी ।मेरी लंबी चुप्पी के बाद ड्राइवर ने पूछा “क्या बात हो गई सर?” मैनें कहा “कुछ नहीं बस… पहाड़ से लौटते वक़्त हर बार ऐसा लगता है कि मैं अपना सब कुछ छोड़कर बहुत दूर जा रहा हूँ ..कुछ ऐसा, जैसा एक पहाड़ी सिपाही अपने दुधमुंहे बच्चे,रोती पत्नी और और बीमार माँ -बाप को छोड़कर ड्यूटी पर जाते वक़्त महसूस करता होगा।
“अरे सर बिटिया गौरी को याद करो।” उसके ऐसा कहते ही मैं यंत्रवत गौरी को याद करने लगा । इस वक़्त वह ननिहाल में शैतानियों करने में व्यस्त होगी । अचानक मैं अपने बचपन की तुलना गौरी के बचपन से करने लगता हूँ । उसके इर्द गिर्द है मोबाइल,कंप्यूटर,टेलीविज़न…. कहने को खुली खुली कॉलोनी है …भोपाल के श्यामला हिल पर लेकिन बमुश्किल दस पंद्रह पेड़ …तीन चार किस्म के फूल ,झाड़ियां और घास ….बस ।
चंडीगढ़ का स्टेशन आ चुका है ।मैं सामान निकालकर ड्राइवर के हाथ में पैसे थमाता हूँ। वो गले लगने के लिए बढ़ता है और मेरी सहमति पाकर मुझे भींचते हुए कहता है “सर जी आपको जब भी आना हो बस दो दिन पहले फोन कर देना …कोई भी बुकिंग हो ,मैं आपके साथ ही चलूंगा ।”इतना कहते उसकी आँखों के कोने भर आए हैं।अपनी आँखें छिपाने के लिए मैं झट से स्टेशन की और बढ़ जाता हूँ।कुछ क़दम चलने के बाद पलटकर देखता हूँ तो वो पहाड़ों की और लौट चला है।मैं भी एक बदशक्ल जंगल में दाखिल होने के लिए आगे की ओर बढ़ जाता हूँ।