चारु तिवारी
जानता तो मैं उन्हें बहुत पहले से था। पहली बार बहुत तरीके से मिले वर्ष 1992 में। उत्तराखंड क्रान्ति दल के गैरसैंण सम्मेलन में। इस सम्मेलन में गैरसैंण को राजधानी बनाने और इसका नाम पेशावर विद्रोह के नायक वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली के नाम पर ‘चन्द्रनगर’ रखा गया। वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली की आदमकद प्रतिमा लगाने के लिये शिलान्यास पट लगाया गया। यह 24-25 जुलाई 1992 की बात है। इसी साल 25 दिसंबर को गढ़वाली जी की जन्मशती पर उनकी मूर्ति का अनावरण हुआ इसमें झारखंड मुक्ति मोर्चा के उपाध्यक्ष एवं सांसद सूरज मंडल भी शामिल हुये। तब पहली बार उनसे लंबी बातचीत हुई। उसके बाद उनसे मिलने का सिलसिला जारी हुआ। वह हमसे उम्र में बड़े थे, लेकिन हमेशा उनका स्नेह और साथ बना रहता। हमारे लिए गैरसैंण का मतलब पुरुषोत्तम असनोडा होता। मेरा उनके साथ पिछले तीन दशक का परिचय है। आज जब पुरुषोत्तम असनोडा जी के निधन का समाचार मिला तो यह विश्वास करने लायक नहीं था। कल जब गंगा से बात हो रही थी तो हमें लग रहा था कि संकट टल गया है। हम सब लोगों के लिये असनोडा जी का असमय जाना व्यक्तिगत क्षति है।
असनोडा जी गैरसैंण के पर्याय थे। उनका घर-दुकान आंदोलनकारियों का ठिकाना थे। गैरसैंण जो भी जाता वह पहले उनसे मिलता। हमारे बहुत से जानने वाले जब भी गैरसैंण जाते हम उन्हें असनोडा जी से मिलने को कहते। पुरुषोत्तम असनोडा जी मूल रूप से अल्मोड़ा जनपद के भिकियासैण विकासखंड के रहने वाले थे। गैरसैंण में जाकर उन्होंने स्टेशनरी की दुकान खोली। वे गैरसैंण से कई पत्र-पत्रिकाओं के लिये लिखने लगे। लंबे समय तक ‘अमर उजाला’ से जुड़े रहे। अपनी सामाजिक पक्षधरता के चलते उन्होंने इस अखबार को छोडा। बहुत कम समय में बहुत छोटी जगह गैरसैंण में रहकर उन्होंने व्यापक स्तर पर अपनी पहचान बनाई। वे उत्तराखंड के तमाम सवालों के साथ मुखरता के साथ खड़े रहते। एक पत्रकार के रूप में जहां बहुत प्रतिबद्धता के साथ वे जनता के सवालों को उठाते रहे, वही जन-आंदोलनों के साथ जुडकर सशरीर भी लड़ाई में खड़े मिलते।
सत्तर-अस्सी के दशक में जब ‘उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी’ पहाड़ के सवालों के साथ मुखर थी तो असनोडा जी उस पूरे दौर में वाहिनी के कार्यक्रमों में भागीदारी करते रहे। एक तरह से संघर्ष वाहिनी के वे प्रमुख लोगों में थे। चिपको आंदोलन से जो सामाजिक चेतना की धारा निकली उसके प्रतिनिधि भी असनोडा जी थे। एक दौर जब आईपीएफ सक्रिय हुई तो उस पूरे दौर में भी उनकी सक्रियता बनी रही। ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आंदोलन में वो शामिल रहे। उन्होंने वन आंदोलन में शिरकत की।उत्तराखंड राज्य आंदोलन के हर पड़ाव में आंदोलन के साथ खड़े रहे। वर्ष 2009 में गैरसैंण में ‘उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी’ की स्थापना हुई। इसमें भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।
गैरसैंण को राजधानी बनाने के लिये हर किसी छोटी बड़ी पहल में उनकी महत्वपूर्ण भागीदारी रही। जब अविभाजित उत्तर प्रदेश में राज्य को लेकर 1994 में कौशिक समिति बनी तो गैरसैंण को लेकर उसके निर्णय को जन-जन तक पहुंचाने में उनकी भूमिका रही। राज्य बनने के बाद जब भाजपा अंतरिम सरकार के रूप में सत्ता में आई तो उसने स्थाई राजधानी के चयन के लिये जो आयोग बनाया उसको लेकर समय-समय पर वे अपनी लेखनी चलाते रहे। महिला मंच की पहल पर 2004 में जब गैरसैंण को लेकर आंदोलन चला तो वे आरंभ से लेकर अंत तक आंदोलन में खडे रहे। गैरसैंण राजधानी की मांग को लेकर बाबा मोहन उत्तराखंडी ने 13 बार अनशन किया। आमरण अनशन के दौरान ही उनकी शहादत हो गई। बाबा मोहन उत्तराखंडी के साथ वे रात-दिन लगे रहे। मैं पहली बार बाबा मोहन उत्तराखंडी से उनकी दुकान पर मिला था। मेरे साथ काशी सिंह ऐरी और बिपिन त्रिपाठी भी थे।
गैरसैंण राजधानी को लेकर पिछले दो-तीन साल से जो संघर्ष हुये उसमें वह हर स्तर पर शामिल रहे। गैरसैंण में 21 मार्च, 2018 को जब हम लोग विधानसभा का घेराव करने पहुंचे तो पहली रात असनोडा जी के घर पर रहे। मेरे साथ मोहित डिमरी, प्रदीप सती, मनीष सुन्दरियाल, नारायण सिंह रावत के अलावा कुछ और लोग भी थे। इन दो-तीन सालों में लगातार गैरसैंण राजधानी आंदोलन के सिलसिले में जाना हुआ तो स्वाभाविक रूप से पहला ठिकाना उनकी दुकान होती। असनोडा जी के साथ मेरी बहुत निकटता और आत्मीयता रही। जब मैं मुरादाबाद था तो वे कई बार अपनी दुकान में स्टेशनरी का सामान लेने आते थे। वह अक्सर मेरे यहां रुकते। उन दिनों मेरी शादी नहीं हुई थी, एक कमरे में कंप्यूटर और अन्य सामान रहता दूसरे में हम नीचे ही बिस्तर लगाकर सो जाते। वो सादगी की प्रतिमूर्ति थे।
असनोडा जी के साथ पिछले कुछ वर्षो से जिस तरह के दुखों के पहाड़ टूटे, उन्होंने बहुत हिम्मत के साथ आगे बढने का हौंसला बनाये रखा। बेटी गंगा के पति, ससुर और देवर की असमय और लगभग एक साथ मौत। एक होनहार भांजे का जाना किसी को भी तोड़ कर रख दे। गंगा जैसी जीवट और साहसी बेटी को हम सब सलाम करते हैं, जिसने अपनी जीजिविषा से उन लोंगों के लिये भी प्रेरणा का काम किया जो अपनी नियति को सबकुछ मान लेते हैं। गंगा ने अपने पति और ससुर जी के काम को आगे बढाया। ‘रीजनल रिपोर्टर’ को ऊंचाइयां दी। उसका कुशल संपादन असनोडा जी कर रहे थे। अभी पिछले साल वे पूरे भारत भ्रमण पर थे। देश के कई हिस्सों में जहां उनके सगे-संबंधी रहते थे, उनसे मिलकर प्रसन्न लग रहे थे। मैं पिछले महीनों जब श्रीनगर गया तो गंगा से कह रहा था कि चलो आजकल भाई साहब ठीक तरह से घूम-फिर रहे हैं। कभी सोच भी नहीं सकते थे, इतनी दूर चले जायेंगे।
अब उनकी यादें शेष हैं। उनसे अंतिम मुलाकात 1 सितंबर को हो पाई थी। तब मेरे साथ वरिष्ठ पत्रकार और बड़े भाई व्योमेश जुगरान जी भी थे। हम जब भी गैरसैंण जाते या उससे आगे तो उनकी दुकान पर उतरते ही गले लगाकर पहले चाय के लिये अगली दुकान तक भागते। बहुत देर तक हाथ ही पकड़े रखते। कभी सोचा नहीं था जल्दी हाथ छोड़ेगें, लेकिन वो तो हमेशा के लिये छोड़कर चले गये। हम सब लोग व्यथित हैं। दुखी हैं। अफसोस है कि हम उन्हें रोक नहीं पाये। हमारे हाथ में कुछ नहीं बचा है। ईश्वर इस विकट घड़ी में उनके परिवार को शक्ति प्रदान करे। विनम्र श्रद्धांजलि।