त्रिलोचन भट्ट
इन दिनों सोशल मीडिया पर जो देख पा रहा हूं उससे ऐसा आभास होता है कि लगभग 70 परसेंट उत्तराखंडी भाई बहन चाहते हैं कि इस देश में मुसलमान ना रहें।
हालांकि मुसलमानों के बारे में उत्तराखंड के 90 परसेंट लोग ज्यादा नहीं जानते। कुछ गिने-चुने गांवों में ही मुसलमान हैं।
इससे साफ है कि मुसलमानों से उनका सीधा कोई संपर्क नहीं है। बस जो कुछ उन्हें जानकारी है वह सुनी सुनाई है। ( शहरों में रहने वाले उत्तराखंडी बताएं कि क्या व्यक्तिगत रूप से किसी मुसलमान ने उनके साथ कभी कोई गलत किया, धर्म के कारण?)
तो अपने उत्तराखंडी भाई बहनों को सीधे 1- 2 अक्टूबर, 1994 की रात मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहे पर ले चलता हूं।
उस रात हमारे भाइयों पर गोली चलाकर उन्हें मौत के घाट उतारने वाला क्या कोई मुसलमान था? नहीं। हमारी बहन-बेटियों के साथ दरिंदगी करने वाला क्या कोई मुसलमान था? नहीं।
वे सब हमारे प्यारे-प्यारे हिन्दू भाई थे।
उत्तर प्रदेश के हिंदू डीजीपी और मुजफ्फरनगर के हिंदू डीएम की सरपरस्ती में की गई उन हत्याओं और उस दरिंदगी से बचकर हमारे कई लोग आसपास के गांवों की तरफ भागे। उनमें एक गांव बागोंवाली भी था। टोटल मुसलमानों का गांव।
उस रात उस मुसलमान गांव में और उस गांव की मस्जिद में हमारे उत्तराखंडी हिन्दू भाई-बहनों के साथ कैसा सलूक किया गया, क्या आपको पता है? नहीं पता तो जयदीप सकलानी और जयदेव भट्टाचार्य ने हाल ही में एक डॉक्यूमेंट्री बनाई है, जल्दी ही आपको यूट्यूब पर मिलेगी, उसे देखें।
उन गांवों के हिंदुओं ने ही नहीं, मुसलमानों ने भी अपने घरों के दरवाजे खोल दिये। मस्जिद खोल दी। मदरसे में खिचड़ी के देग चढ़े। हर मुसलमान घर ने चावल, दाल, नमक, मसाले दिये। सारे मुसलमान भाई गांव के बाहर पहरा देने लगे। इस इरादे के साथ कि पीएसी और यूपी पुलिस उत्तराखंडियों की तलाश में गांव की तरह बढ़े तो उन्हें सबक सिखा दिया जाए।
और दूसरी तरफ क्या हुआ?
गोली चलाने का आदेश देने वाले अधिकारी को बीजेपी के एक बड़े नेता राजनाथ सिंह ने अपना पर्सनल सेक्रेटरी बना दिया।
अब उत्तराखंडी भाई बहन खुद तय करें कि हमें विरोध मुसलमानों का करना है या राजनाथ सिंह और उसकी बीजेपी का??
और सुनो
आजकल मुसलमानों के खिलाफ जोगी की यूपी पुलिस की कार्रवाई का कई उत्तराखंडी भाई बहन हिंदुत्व के नाम पर समर्थन कर रहे हैं।
तो….
यह वही उत्तर प्रदेश पुलिस है जिसके बारे में सुनील कैंथोला जी ने एक वाकया बताया।
2 सितंबर 1994 को मसूरी में कई आंदोलनकारी गिरफ्तार हुए। उन्हें देहरादून से होकर यूपी की जेलों में ले जाया जा रहा था। डोईवाला के जंगल में गाड़ी रोक दी गई। पुलिस वालों ने आंदोलनकारियों को उतर कर फारिग (टट्टी पेशाब) होने के लिए कहा. लेकिन कुछ समझदार लोगों ने सभी को गाड़ी से उतरने के लिए मना कर दिया।
पुलिस वालों ने सीटों पर बैठे आंदोलनकारियों को डंडे मारे और गालियां देते हुए उतरने को कह। फिर भी कोई नहीं उतरा.
दरअसल मसूरी में 6 लोगों की हत्या के बाद यूपी पुलिस का इरादा कुछ और लोगों की हत्या करने का था, यह इल्जाम लगाकर कि वे पुलिस की गिरफ्त से भागने की कोशिश कर रहे थे।