देवेश जोशी
उत्तराखण्ड की मंदाकिनी-उपत्यका में आज से ठीक सौ साल पहले एक कवि जन्मा था जो सही मायने में हिमालय का सुकुमार कवि था। अल्पायु और छायावाद को अपनी कविता का प्रस्थान-बिंदु बनाने के कारण उनकी तुलना प्रायः अंग्रेजी के कवि जाॅन कीट्स और पी.बी.शैली (रोमांटिक इंगलिश प्वाॅइट्री के पाँच महाकवियों में शामिल ) से की जाती है। मालकोटी गाँव में जन्मे इस कवि का नाम था – चंद्रकुँवर बर्त्वाल। कुलगुरू पं.श्यामादत्त वशिष्ठ ने तो जन्म के समय ही बालक के विख्यात होने की बात कह दी थी।
किशोरावस्था में ही काव्य-साधना का लक्ष्य उसने निर्धारित कर लिया था। डायरी में लिखी ये पंक्तियाँ प्रमाण हैं-
“मैं कविता की उपासना करना चाहता हूँ। मुझे और कुछ नहीं चाहिए। मेरा शरीर मिटेगा, मेरी जमीन मिटेगी लेकिन मेरी कविताएँ मेरे पीछे रहेंगी।”
काव्यकर्म के शुरुआती दिनों में कुछ प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं ने उनकी रचनाओं को लौटाया भी। इससे निराश होने के बजाय उन्होंने कारण पर मनन किया और डायरी में लिख कर खुद का हौसला बढ़ाया –
“मेरी कविताएँ, मेरे लेख पत्रों से लौट आते हैं क्योंकि मेरे नाम के पंख नहीं हैं। एक दिन वह होगा जब यह सब कुछ न रहेगा।”
चंद्रकुँवर बर्त्वाल के जीवन को नाटककार टाॅमस हार्डी की उस प्रसिद्ध उक्ति से बेहतर समझा जा सकता है जो उन्होंने अपने किरदार, मेयर ऑव कैस्टरब्रिज के मुख से नाटक के अंत में कहलवायी थी – हैप्पीनेस इज़ बट ऐन अकेज़नल एपिसोड इन ए जनरल ड्रामा आव पेन।
हिमालय का सूक्ष्म अवलोकन करने और उसके प्रति काव्याभिव्यक्ति करने वाले वे कालिदास के बाद के सबसे बड़े कवि थे। कालिदास ही उनके संबल भी थे। उन्हें लगता था कि कालिदास ने उन्हीं की भावनाओं को शब्द दिए हैं। अपने अंदर भी वे कालिदास को अनुभूत करते थे, संवाद भी करते थे –
“कालिदास, ओ कालिदास यदि तुम मेरे साथ न होते तो न जाने क्या होता? मैं तुम्हारे रहस्य-संकेतों को ठीक-ठाक नहीं समझ पाया हूँ। लेकिन मेरे लिए प्रकृति की छवि खुल गयी है। तुमने मुझे आँखें दी मैं प्रकृति को देखता था, उसे हृदय से प्रेम करता था लेकिन मेरा सुख मेरे ही भीतर कुम्हला जाता था। तुमने मेरे फूलों को गंध देकर अचानक खिला दिया। हे मलय पवन मैं तुम्हारा अनुचर एक छोटा सा फूल हूँ जिसको तुम्हारे हाथों खिलने का अवसर मिला है।”
चंद्रकुँवर ने अपने समय तक की संस्कृत, बांग्ला, हिन्दी और अंग्रेजी कविता का गंभीर अध्ययन किया था पर एक कवि के रूप में उनका सर्वश्रेष्ठ पहलू ये है कि उनकी कविता में भावी ट्रेंड्स की आहट भी सुनी-पढ़ी जा सकती है। छायावाद के उत्कर्ष में उन्होंने सृजन किया पर छायावाद में ही सिमट कर नहीं रहे। उनकी छायावादी कविताएँ तो पहला सोपान थी जिनसे उन्हें भविष्य में उच्चतर शिखरों का आलिंगन करना था। विधि ने उन्हें जीवन के तीन दशकीय सोपान भी नहीं दिए जिसमें सृजन के लिए तो एक ही सम्भव था।
चंद्रकुँवर में छायावादी और प्रगतिवादी दोनों काव्यधाराएँ समानान्तर प्रवाहित होती हुई भी दिखती हैं। अब छाया में गुँजन होगा…….जैसी नैसर्गिक सौंदर्य को जीवंत करती कविताएँ एक छोर पर दिखती हैं तो दूसरी ओर साम्प्रदायिकता, कट्टरता, अंधविश्वास, पाखण्ड, लैंगिक विषमता जैसे प्रगतिशील विचाराधारित कविताएँ भी उनकी कलम से निकली हैं। छायावाद के आधुनिक समीक्षक मानते हैं कि चंद्रकुँवर की छायावादी कविताएँ भी प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी वर्मा की कविताओं पर भारी पड़ती हैं।
चंद्रकुँवर ने अपने अल्प सृजनकाल में अपने को पूरी तरह अध्ययन-सृजन में डुबोये रखा। ना तो लेखक संगठनों की गतिविधियों में भाग लेने के लिए वे अपेक्षित समय निकाल पाते और न अन्य लेखकों-कवियों-संपादकों-प्रकाशकों से ही आत्मीय सम्बंध बना पाए। अपने जीवनकाल में अपनी रचनाओं का कोई संकलन भी वो प्रकाशित नहीं कर पाए। फलतः एक अच्छे कवि के रूप में उन्हें ख्याति लम्बे अंतराल के बाद नब्बे के दशक में मिली। उनकी कविताओं और अन्य रचनाओं को सहेजने, प्रकाशित करने में उनके आत्मीय मित्र शंभूप्रसाद बहुगुणा, उमाशंकर सतीश और बुद्धिबल्लभ थपलियाल का उल्लेखनीय योगदान रहा। इसके अतिरिक्त पहाड़ नैनीताल, डॉ.योगम्बर सिंह बर्त्वाल व संस्कृति प्रकाशन अगस्त्यमुनि द्वारा प्रकाशित संकलन भी चंद्रकुँवर के कृतित्व व व्यक्तित्व को जानने-समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं। चित्रकार बी०मोहन नेगी की कविता पोस्टर श्रृंखला ने भी चंद्रकुँवर की कविताओं की ओर ध्यानाकर्षण कराया।
पर्वतीय संस्कृति के अध्येता और साहित्यकार गोविन्द चातक लिखते हैं कि –
चंद्रकुँवर ने छायावाद और प्रगतिवाद का सारतत्व तो ग्रहण किया किन्तु छायावादी कवि बनने से वे बाल-बाल बचे गए। इसका कारण सम्भवतः उनको लम्बी बीमारी और जीवन-संघर्ष के बीच प्रेम की असह्य पीड़ा रहा है। चंद्रकुँवर को कालिदास और भवभूति का सौंदर्यबोध और करुणा मिली थी। साथ ही घनानन्द की पीर तथा प्रसाद और निराला की विराट चेतना को भी उन्होंने आत्मसात किया था।”
झकझोरने वाली मृत्यु-विचार विषयक कविताएँ लिखने वाले दुनिया के प्रमुख कवियों में चंद्रकुँवर को भी निसंकोच शामिल किया जा सकता है। उनकी मृत्यु के एक साल बाद जन्मे हिन्दी कविता के सशक्त हस्ताक्षर मंगलेश डबराल लिखते हैं –
“चंद्रकुँवर की काव्य संवेदना में मृत्यु जीवन के अंत का नहीं, बल्कि जीवन के चिंतन का विषय है। इस लिहाज से वे अपने दौर के छायावादी कवियों से बहुत अलग मीर तकी मीर, मिर्ज़ा गालिब, कबीर और सूफी कवियों के निकट दिखायी देते हैं। उनकी रचनाओं में मृत्यु एक त्रास और खालीपन नहीं, एक ठोस उपस्थिति है और उसका एक स्वतंत्र व्यक्तित्व है।