राजीव लोचन साह
स्वस्ती श्री सर्वोपमा योग्य नैनीताल समाचार के पूज्य पाठक प्रवर। अत्र कुशलं च तत्रास्तु। मुख्य देह को जतन करला, तब जाकर पालना होली। अघा आज पत्र लिखने का मुख्य कारण यह है कि हर साल की तरह हरेले का तिनड़ा आपकी सेवा में पठा रहे हैं। अगर हो सके तो पावती देने का कष्ट करना।
‘कष्ट करना’ इसलिये कह रहे ठैरे कि एक जमाने में, आज से तीन-चार दशक पहले हरेले का यह तिनड़ा हमारे पाठकों को अन्दर तक हिला देता था। वे बेहद भावुक हो जाते थे। परदेश में प्रवास करते हुए उन्हें अपना पहाड़, अपने पर्व-परम्परायें, अपने पीछे छूट गये मित्र-सम्बन्धी बहुत शिद्दत से याद आ जाने वाले ठहरे। बेहद कृतज्ञता से भरे उनके ढेर सारे पत्र हमें भी अपनी पत्रकारिता के सार्थक होने की प्रतीति कराते थे। पहाड़ियों को ही नहीं, पहाड़ को नाममात्र के लिये जानने वाले लोगों को भी यह तिनड़ा झकझोर कर रख देता था। हमारे तब के एक पाठक उग्रनाथ नागरिक ने 15 सितम्बर 1995 के अपने पत्र में लिखा था, ‘‘आपका हरेला अंक आता है तो मैं इतना रोमांचित और उत्साहित हो जाता हूँ कि लगता है कि किसी साल आपका यह हरा पत्ता मेरी साँस रोक देगा और मैं खुशी से नाचता हुआ मर जाऊँगा। यह मेरे लिये अत्यन्त उधेड़बुन का भी विषय है। मैं पूरा नास्तिक, अधार्मिक आपके अबीर-गुलाल- हरेला से क्यों इतना प्रफुल्लित हो उठता हूँ ?’’
ऐसे पत्र अब नहीं आते। ऐसे क्या, नैनीताल समाचार के दफ्तर में अब कोई पत्र ही नहीं आते। ईमेल का जमाना जो ठहरा। डाक विभाग वाले न तो हमारे पास पाठकों की चिठ्ठियाँ लाने वाले हुए और न हमारे हरेले को ईमानदारी के साथ हमारे पाठकों तक पहुँचाने वाले हुए। क्याप्प चीज हुआ उनके लिये हरेला! हरेले को पाकर कृतकृत्य हो जाने वाली वह पीढ़ी भी धीरे-धीरे छीज रही ठहरी। आज की पीढ़ी अब हरेले को जानती भी होगी तो पिछले मुख्यमंत्री हरीश रावत की राजनीतिक नौटंकी के रूप में जानती होगी या इसलिये जानती होगी कि इस रोज परिवार की कोई बूढ़ी आमा, यदि वह बची हो तो, माथे पर पिठ्याँ लगा कर ‘‘जी रया, जागि रया। लाग हरयाल, लाग दशैं, लाग बग्वाल…जी रया, जागि रया। धरती जास चाकल भया, अगाश जास उच्च। सुर्ज जस तराण हो तुमौं में, श्यावकि जसि बुद्धि हो। दुब जस फलिया, सिल पिसी भात खाया और जांठि टेकि बेर झाड़ जाया,’’ कहते हुए एक हरा तिनका सिर पर रख देने वाली हुई, जिसे उस आमा के पीठ फेरते ही निकाल कर दूर छटका देना हुआ। कौन सिर पर हरे-हरे पत्ते रख कर, जोकर बन कर जगहँसाई के लिये घर से बाहर निकले ? संस्कृति तो मीडिया के रास्ते आने वाली हुई, जिसने आज की युवा पहाड़ी औरतों को बट सावित्री के बदले करवा चौथ के रास्ते पर लगा देना ठहरा। बट सावित्री का बर्त तो क्याप्प हो गया ठैरा उनके लिये! या फिर संस्कृति आने वाली ठहरी तो राजनीति के रास्ते आने वाली ठैरी, जिसमें नौजवान लड़के मोटरबाइकों का जत्था लेकर, गले में भगवा स्कार्फ डाले दहाड़ते हुए ‘जय श्री राम’ का नारा बुलन्द करते हुए सड़कों पर दौड़ने वाले ठैरे। ऐसा करने में हरेले का तिनका सिर पर रख कर सड़क पर निकलने की शर्म जैसी जो क्या हुई। ये ‘जै जै सियाराम’ से ‘जय श्री राम’ तक की यात्रा ही तो आज की संस्कृति ठहरी।
खैर यह तो हमारी उम्र के लोगों का निरर्थक प्रलाप ठहरा। वक्त के साथ जीवन बदलेगा तो समाज बदलेगा, राजनीति बदलेगी और संस्कृति भी बदलेगी। संस्कृति को तो बदलना ही हुआ, चाहे बाजार बदले या राजनीति बदले। सच बात तो यह ठहरी कि आज सबसे बड़ी चीज बाजार ही हुआ। मीडिया उसी का तो ठहरा और उस मीडिया के माध्यम से लोगों के दिमाग को ‘हैक’ कर के वह राजनीति पर भी कब्जा कर सकने वाला हुआ और संस्कृति पर भी। अब आपने अभी-अभी नहीं देखा कि कहीं कोई लहर नहीं, कहीं वोट देने का कोई उत्साह नहीं और एक राजनैतिक पार्टी इतने भारी बहुमत से सत्ता में आ गई ठहरी। बाजार की अपनी जरूरत पूरी हो गई। अब यह पार्टी, यानी भारतीय जनता पार्टी, अगर बाजार के प्रति अपना फर्ज पूरा करने में उसी तरह फेल हो गई, जैसे मनमोहन सिंह की पिछली सरकार फेल हो गई तो बाजार उसे भी रद्दी की टोकरी में डाल कर कांग्रेस या किसी और को वापस सत्ता में वापस ला सकने वाला हुआ। मनमोहन सिंह से भी कॉरपोरेट लोग नाराज जो क्या ठहरे। उन्होंने भी तो डट कर फर्जअदायगी की ठहरी कम्पनी वालों की। वो तो क्या नाम कि कई तरह के स्कैम यानी घोटाले सामने आ जाने के कारण कांग्रेस की विश्वसनीयता खत्म हो गई ठहरी और उसे बाहर करना कॉरपारेटों के लिये जरूरी हो गया ठहरा। और इस वक्त तो राजनीति में देशभक्ति और राष्ट्रवाद का इतना सुन्दर मुलम्मा चढ़ गया ठहरा कि कॉरपोरेटों के मजे ही मजे ठहरे। जनता का ध्यान मुसलमान, पाकिस्तान की ओर लगा दिया और यहाँ अपनी मनपसन्द सरकार से हजारों हेक्टेयर जंगल कटवा लो या सैकड़ों मील तक फैली जमीन खोद कर सारा माल-टाल अंटी में डाल लो, किसी को फाम ही नहीं ठहरी कि उधर क्या हो रहा है करके!
हमारे जमाने में इतना जटिल नहीं ठहरा सारा मामला। हरेला हमारे लिये पर्यावरण का प्रतीक ठहरा। पर्यावरण भी क्यों कहें, इस शब्द का तो अस्तित्व ही नहीं ठहरा उन दिनों। प्रकृति के साथ मनुष्य की एकात्मता का ही दूसरा नाम ठहरा हरेला। पर्यावरण शब्द तो न जाने पश्चिम से आकर कब घुस गया ठहरा हमारे बीच में। हमारे एक दोस्त अर्थशास्त्री चन्द्रेश शास्त्री ने उन दिनों नैनीताल समाचार में लिखा भी ठहरा, ‘‘क्या हैं पर्यावरण के उपकार, फंड, पब्लिसिटी और सेमिनार; फंड, पब्लिसिटी और सेमिनार, जिन्दा रहने के आधार।’’ हम तो जंगलों की लड़ाई लड़ने भी अगर गये तो इसलिये गये ठहरे, क्योंकि अपने को वनवासी मानने के कारण प्रकृति पर अपना हक उसी तरह से मानने वाले हुए जैसे एक बच्चा अपनी माँ के दूध पर मानता है। हम कहने वाले ठहरे कि जंगल हमारे हैं, इसलिये जंगल पर, जंगल से पैदा होने वाली लकड़ी, लीसा और खनिजों पर पहला हक भी हमारा ही हो करके। सरकार इसमें अड़ंगा लगाने वाली ठहरी और हमारा हक मार के इन सब चीजों को ठेकेदारों को सौंप देने वाली हुई। सारा झगड़ा इसी बात को लेकर तो ठहरा। हमारा कहना हुआ कि जहाँ पर गन्ना होता है, वहाँ पर चीनी मिलें लगती हैं तो हमारे यहाँ जंगल हैं तो सरकार लीसा फैक्ट्री जैसे उद्योग पहाड़ों पर क्यों नहीं लगाती करके। हमारे दौर के सारे संवेदनशील नौजवान वन आन्दोलन में कूद गये ठहरे उन दिनों। अल्मोड़ा के शमशेर सिंह बिष्ट हमारे सर्वमान्य नेता हुए। गिरदा भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय विभाग के गीत एवं नाटक प्रभाग की नौकरी को दाँव पर लगा कर हुड़का लेकर सड़क पर आ गया ठहरा। उधर गढ़वाल में गौरा देवी जैसी औरतों ने दातुई लेकर इलाहाबाद की साइमंड कम्पनी के मजदूरों को जंगल से खदेड़ दिया ठहरा कि इन पेड़ों से तो हम अपने खेती के औजार बनाते हैं, तुम मरदूद इन्हें काटने हमारे जंगलों में क्यों आ गये ठहरे ? पता नहीं कब यह निगोड़ा पर्यावरण हमारे बीच में घुस गया और दुनिया भर में हल्ला मच गया ठहरा कि पहाड़ की औरतों ने पेड़ों से चिपक कर अपना पर्यावरण बचाया। हम रोटी और रोजगार माँगने वाले हुए और हमसे कहा जाने लगा ठहरा कि तुम तो बड़े महान हो, अपना पर्यावरण बचाने के लिये ‘चिपको आन्दोलन’ करते हो। हमारे कुछ लोग तो इस चिपको की बदौलत दुनिया भर में मशहूर हो गये ठहरे।
यह दीगर बात हुई कि हमारी रोजगार की लड़ाई इसके बाद भी अटकी नहीं और रंग-रूप बदल कर पृथक राज्य आन्दोलन तक पहुँच गई ठहरी। राज्य बनने के बाद भी कुछ बदला नहीं और फिर तो इस पर्यावरण के ऊपर एक और भी भारी-भरकम शब्द हावी हो गया ठहरा ‘विकास’ का। अंग्रेजों ने हमें बतलाया ठहरा कि तुम भ्यास हो, हमारी तरह सूट-बूट-टाई नहीं पहनते बल्कि धोती-कुर्ता पहनते हो, मेज-कुर्सी पर बैठ कर छुरी-काँटे से नहीं खाते जमीन पर पालथी लगा कर बैठते हो और हाथ से खाना खाते हो करके। हम उनकी तरह सभ्य बनने में लग गये और वे हमारा सारा मालमता इंग्लैण्ड उठा ले गये ठहरे। फिर आजादी के बाद हमारे भाग्यविधाताओं ने हमें समझा दिया कि तुम पिछड़े हो, क्योंकि तुम ‘विकास’ नहीं कर रहे हो करके। विकास का मतलब उन्होंने बतलाया कि खूब सड़कें बनाओ और सारा मलबा वहीं पर छोड़ दो ताकि जब तेज बारिश आये तो वह बह कर लोगों के घरों में घुस जाये, गंगा जैसी हमारी पवित्र नदियों में बाँध बना दो, ताकि उसमें नहाने के लिये भी पानी न बचे, वे सूखी और मनहूस लगनी लगें और उन्हें देख कर ही रोना आ जाये और उन बाँधों से बिजली बनाओ, चाहे वह बिजली खरीदने वाला कोई खरीददार भी न मिले। इस विकास में भी जितनी बड़ी परियोजना हो उतना अच्छा माना जाने वाला हुआ। अगर गाँव वाले छोटे-छोटे टर्बाइन लगा कर अपने लिये आधा या एक मेगावाट बिजली बना लें तो वह विकास नहीं हुआ। विकास तब हुआ जब पंचेश्वर बाँध जैसी हजारों मेगावाट की बड़ी-बड़ी परियोजनायें बनाई जायें, जिसके लिये हजारों लोगों को अपने घर-बार छोड़ने पड़ें और काम करने के लिये बाहर से बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ आयें। बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ विकास के लिये बहुत जरूरी ठहरीं। उनके लिये धारी देवी जैसी आराध्या को भी ऊँचा उठा देने में कोई हर्ज नहीं हुआ और न ही बदरीनाथ-केदारनाथ जी का छः महीने का आराम छीन लेने में कोई उज्र होने वाला हुआ। ऑल वेदर रोड और इसको बनाने वाले ठेकदार इन देवी-देवताओं से ज्यादा बड़े होने वाले हुए। विकास पर्यावरण को कहीं भी चित कर सकने में सक्षम हुआ, क्योंकि ऑल वेदर रोड बनाने में दुर्लभ प्रजातियों के उन लाखों बेशकीमती पेड़ों को काटने में कोई दिक्कत नहीं होने वाली हुई, जिनकी एक टहनी मात्र काट लेने पर सामान्य आदमी को जेल हो जाने वाली ठहरी। सामान्य आदमी भी इस विकास से उसी तरह खुश हो जाने वाला हुआ, जैसे क्रिकेट के मैच में भारत के पाकिस्तान को धूल चटा देने पर होने वाला ठहरा।
इतना ही नहीं ठहरा विकास। कृष्ण के विराट रूप की तरह विकास के भी तो बहुत-बहुत चेहरे होने वाले हुए। विकास का मतलब ठहरा, पुराने तालाबों को भर कर उन पर बहुमंजिला बिल्डिंगें बना देना। फिर उनके हर मंजिल पर इतना पानी पहुँचाना कि दैल-फैल बनी रहे। अगर आप एक मग पानी लेकर उससे दाढ़ी बना लेते हैं, दाँत साफ कर लेते हैं और मुँह-हाथ धो लेते हैं तो वह विकास नहीं ठहरा। अगर आप बाल्टी में बीस लीटर पानी लेकर चौके पर बैठ कर नहा लेते हैं तो वह भी विकास नहीं ठहरा। विकास तो तभी ठहरा, जब आपके वॉश बेसिन में दाढ़ी बनाने, दाँत साफ करने और मुँह हाथ धोने के लिये पचास लीटर पानी बह जाये। शॉवर के नीचे नहाने पर एक बार में दो सौ लीटर पानी बहाने पर होने वाला हुआ विकास। अब तो कई हाईराईज बिल्डिगों के आठवें-दसवें माले पर स्विमिंग पूल तक बन रहे ठहरे। जो अभागे विकास नहीं कर सकने वाले ठहरे, वे अपने खाली कनिस्तर, प्लास्टिक के डब्बे लाईन लगा कर सूखे हुए पानी के नलों के नीचे रखे रहने वाले हुए।
अब जब नासा ने अपनी सैटेलाईट इमैजरी से बता दिया कि भारत में भूगर्भीय जल लगभग समाप्त हो गया है। भारत का नीति आयोग भी मानने लगा कि सन् 2020 तक दिल्ली और देश 21 अन्य नगरों में भूगर्भीय जल खत्म हो जायेगा, तो विकास इस मामले में क्या करेगा, पता नहीं।
वैसे विकास के पीछे इंजीनियरिंग और टैक्नोलॉजी का बहुत जोर रहने वाला हुआ। हर चीज का इलाज हुआ उसके पास। यहाँ नैनीताल का किस्सा बताऊँ। यह हर किसी को मालूम है कि नैनीताल में जरूरत से ज्यादा मकान बन गये हैं, इतने ज्यादा कि कभी भी यहाँ 1880, जिसमें शेर का डाँडा की पहाड़ी टूटी थी और 151 लोग मारे गये थे, की पुनरावृत्ति हो सकती है। पिछले साल अगस्त में यहाँ मालरोड का एक हिस्सा टूट कर तालाब में समा गया था तो इस घटना को लेकर राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होहल्ला हो गया ठहरा। तब उस हिस्से में लोहे के सरियों के बीच रेत के कट्टे लगा कर उस रोड को ऐसा कामचलाऊ बना दिया गया कि साल भर बीत जाने के बाद भी वह अभी साबूत रह गई ठहरी। बावजूद इसके कि सीजन में तो एक दिन में हजार-हजार गाड़ियाँ उसके ऊपर से गुजर जाने वाली हुईं। अब सरकार-प्रशासन इतने उत्साह में आ गये कि पूरी मालरोड को स्वाभाविक सड़क के बदले एक लम्बा सा पुल बनाने की सोच रहे ठहरे, ताकि पहाड़ियों पर ऊपर से पड़ रहे भार से वह और जगह न टूटे। धँस तो वह सभी जगह रही ठहरी। बिल्कुल ‘सब कुछ खाओ, हाजमोला से पचाओ’ या ‘दाग अच्छे होते हैं’ वाला दर्शन आ गया ठहरा। पहाड़ियों पर मकानों का भार बढ़ने से मत रोको, गाड़ियों को शहर से बाहर रोक कर उनसे पैदा होने वाले कम्पन को नियंत्रित मत करो। मालरोड को रोड के बदले एक पुल बना दो, जिसके खम्भे तीस-चालीस फीट नीचे सख्त चट्टानों पर टिके हों। यह विकास ठहरा, क्योंकि इसकी मलाई नेता, अधिकारी, इंजीनियर, ठेकदार सब खा सकने वाले हुए। नैसर्गिक सुन्दरता तो अब सब बाबा आदम के जमाने की बात हो गई ठहरी।
तो पर्यावरण के नाम पर पुरस्कार मिलने वाले ठहरे और विकास के नाम पर पैसा और पुरस्कार के लिये पैसा क्योंकि विकास वाले देने वाले हुए, इसलिये पर्यावरण वालों ने अपने मुँह पर ताला लगा लेना हुआ। इसीलिये पर्यावरण जो ठहरा, वह विकास का दबैल होने वाला हुआ।
तो इससे अलावे भी बहुत कुछ लिखने को था। खबर तो बहुत ठहरी दिल्ली के नरेन्द्र दामोदर मोदी से लेकर देहरादून के त्रिवेन्द्र सिंह रावत तक की। मगर वह सब आप को मालूम हो ही जाने वाली हुई। आजकल तो ढेर सारे अखबार हुए, जो हर जिले के बारे में पूरा का पूरा अंक छाप देने वाले हुए। बाकी टी.वी. चैनल तो चौबीसों घण्टे आपका ज्ञानवर्द्धन करते रहने वाले ठहरे। हम तो खाल्ली ठहरे। तू कौन मैं खामखाँ! आप अपना अच्छा-बुरा समझने ही वाले ठहरे। डबुल इंजन की सरकार आपके हिसाब से ठीक ही ठहरी। तभी तो आपने इतने भारी बहुमत से अभी-अभी मोदी जी को दुबारा दिल्ली भेज दिया ठहरा। आपने वोट किसी सांसद को जो क्या दिया ठहरा, इसलिये अब किसी सांसद या विधायक से कुछ कहना भी नहीं हुआ। आपने अपना वोट मोदी जी को दिया ठहरा और मोदी जी हुए तो सब कुछ मुमकिन ठहरा। अच्छा ही अच्छा हो रहा ठहरा देश में। वो पता नहीं किसने भड़का दिया ठहरा वहाँ पिथौरागढ़ में विद्यार्थियों को कि ‘किताबें दो, शिक्षक दो’ कर के आन्दोलन कर रहे ठहरे। खैर बच्चे ही हुए, बच्चे गलतियाँ नहीं करेंगे तो कौन करेगा। अब वहाँ देहरादून में ‘108’ वाले धरना दे रहे ठहरे तो यहाँ नैनीताल में भी नगरपालिका के पार्षद भ्रष्ट अधिशासी अधिकारी को हटाने के लिये अनशन कर रहे ठहरे। अब ऐसी छिटपुट घटनायें तो होते रहने वाली हुई। सरकार तो अपनी तरफ से विकास कर ही रही ठहरी। वहाँ औली में 200 करोड़ की शादी करवा दी और अब ‘हिलटॉप’ शराब भी बना रही ठहरी।
तो ये हरेले का तिनड़ा सिर पर रख लेना और जैसा शुरू में कहा था कि ज्यादा कष्ट न हो तो पावती जरूर दे देना, ताकि हमें भी लगे कि डाकखाने वाले दैण हो रहे हैं करके। जब सरकार डाकखानों को भी कॉरपारेटों को बेच देगी तो हम 25 पैसे में आपको अखबार कैसे भेजेंगे।
हर साल हरेले पर हमें कोई न कोई पुराना पाठक चिठ्ठी भेजने वाला हुआ, जिसे हम हरेले के साथ छाप देने वाले हुए। इस साल किसी को फाम ही नहीं आई। तो बहुत सालों बाद हमने ही चिठ्ठी लिख दी ठहरी। अब अच्छी हो या बुरी, रस्म तो निभानी ही ठहरी। कलम की गलती माफ करना और अपनी आशल कुशल जरूर भेजना।
आपके
निहुणिया नैनीताल समाचार वाले
राजीव लोचन साह 15 अगस्त 1977 को हरीश पन्त और पवन राकेश के साथ ‘नैनीताल समाचार’ का प्रकाशन शुरू करने के बाद 42 साल से अनवरत् उसका सम्पादन कर रहे हैं। इतने ही लम्बे समय से उत्तराखंड के जनान्दोलनों में भी सक्रिय हैं।