अशोक पांडे
जन्मान्ध हरदा सूरदास गाते हुए जब-जब भावावेश के चरम पर पहुँचते थे, सफ़ेद पड़ चुकी पुतलियों वाली उनकी ज्योतिहीन आँखों के कोरों से आंसू बहना शुरू हो जाते. पूरे चाँद की उस जादुई रात नैनीताल के एक होटल की छत पर उन्होंने घंटों निर्मल पाण्डे और मेरे लिए गाया. यह 1997-98 या उसके आसपास की बात होगी. निर्मल ने एक नाटक में संगीत देने का उन्हें न्यौता दिया था. वे उसी सिलसिले में आए थे. बेहद गरीब हरदा सूरदास का एक बेटा था गणेश जो नैनीताल झील में नाव चलाने का काम करता था.
हरदा सूरदास के पास बैर, न्यौली, ऋतुरैण, रमौल, झोड़ा, चांचरी जैसी तमाम कुमाऊनी लोकगायन-विधाओं का भण्डार था. उनके साथ बाद में भी कुछ मुलाकातें हुईं पर उनकी कोई ठोस स्मृति अब मेरे पास नहीं बची है. हरदा सूरदास के सर्वश्रेष्ठ गायन की रेकॉर्डिंग का काम बीट्स ऑफ़ इंडिया नाम की एक संस्था ने किया. फिलहाल बहुत मशक्कत से ही इस संग्रह को पाया जा सकता है. हरदा सूरदास उसी निर्धनता में मरे जिसकी उन्हें ज़िन्दगी ने आदत डलवा दी थी.
एक और कुमाऊनी लोकगायक हुए झूसिया दमाई. धारचूला के नज़दीक ढुंगातोली में रहा करते थे. उन्होंने मिथकों और लोक-कथानकों को अपनी ज़बरदस्त मर्दाना गायन शैली में ढाला. नेपाली और कुमाऊनी ज़बानों के अद्भुत मिश्रण और जीवन्त प्रस्तुति के माध्यम से वे एक अविस्मरणीय ऑडियो-विज़ुअल अनुभव का सृजन किया करते थे. उन पर शोध करने की ज़रुरत समझी गयी और कवि गिर्दा ने इस काम को अंजाम दिया भी लेकिन उसका क्या ठोस नतीज़ा निकला, गिर्दा के चले जाने के इतने सालों बाद भी कोई खबर नहीं है. झूसिया दमाई का देहांत 2005 में हुआ.
अल्मोड़ा जिले के भैंसियाछाना ब्लॉक के धौलछीना के एक गाँव में रहने वाले नेत्रहीन गायक पति-पत्नी संतराम और आनंदी देवी भिखारियों से भी गया-गुज़रा जीवन बिताने को अभिशप्त हैं. यह अलग बात है कि उनके पास सुदीर्घ परम्परा से सहेजा हुआ कुमाऊनी लोकसंगीत का ज़खीरा है जो संभवतः उनके रहने तक ही बचा रहेगा. उसके बाद उसका क्या होगा कोई नहीं जानता. कभी-कभार फेसबुक पर उनका एक वीडियो देखने को मिला जाता है.
मैं इन नामों की फेहरिस्त को और लंबा खींच सकता हूँ लेकिन उसका कोई फायदा नहीं होने वाला.
पिछले बरस आज के ही दिन हमारी एक और बड़ी लोकगायिका कबूतरी देवी का स्वर्गवास हो गया. अभी फेसबुक पर एक वीडियो देखा जिसमें पकी हुई आवाज़ में वे अपना एक सुप्रचारित गीत गा रही हैं. अप्रैल 2018 के उस वीडियो को देख कर लगता नहीं कि वे ऐसी बीमार थीं. सबसे हास्यास्पद है उन्हें उत्तराखंड की तीजन बाई बताया जाना. वे उत्तराखंड की कबूतरी देवी थीं और कुछ नहीं.
एक सज्जन हुए थे कोनराड माइजनर. अनेक संयोगों के चलते 1966 में जर्मनी के रहने वाले इस मानवशास्त्री की मुलाकात गोपीदास से हुई. गोपीदास उन दिनों कौसानी में रहते थे और दर्जी का काम किया करते थे. गोपीदास राजुला-मालूशाही की प्रेमगाथा गाया करते थे और इलाके के बड़े लोकगायक माने जाते थे. जब गोपीदास ने माइजनर को अपनी दुकान पर आया देखा तो उन्हें लगा कि अँगरेज़ कुछ सिलवाने आया होगा. माइजनर अल्मोड़ा से मोहन उप्रेती के कहने पर उनसे मिलने पहुंचे थे. गोपीदास ने यह भी सोचा कि शहर से आया हुआ आदमी है सो थोड़ी बहुत डाक्टरी भी जानता होगा और माइजनर को अपना हाथ दिखाया जो एक गंभीर त्वचा रोग से ग्रस्त था. इस बात ने माइजनर को बहुत द्रवित किया. यह अलग बात है कि गोपीदास का गायन सुनकर माइजनर चकित रह गया और उसने अपने जीवन का एक लंबा अरसा न केवल गोपीदास के साथ बिताया, उनकी गाई राजुला-मालूशाही कथा का आधिकारिक टेक्स्ट भी तैयार किया. इस पूरे काम में पच्चीस साल का समय लगा. 1975 में गोपीदास की मृत्यु के दस साल बाद यह टेक्स्ट तीन शानदार खण्डों की सूरत में जर्मनी से छपा. उनके गायन की कोई सौ घंटे की रेकॉर्डिंग भी माइजनर ने की जो अब तक म्यूनिख विश्वविद्यालय में सुरक्षित है.