डाॅ. अरुण कुकसाल
‘मैं स्वयं यह स्वीकार करते हुए अत्यंत लज्जा महसूस करता हूं कि कलकत्ता और दिल्ली में मैंने अपने समाज और अर्थशास्त्र के क्षेत्र में यथाशक्ति काम किया और प्रतिष्ठा भी प्राप्त की लेकिन उत्तराखंड के निर्माण और विकास संबंधी शोधकार्य में कोई भी योगदान नहीं दे पाया। मुझे यह भी महसूस करते हुए लज्जा होती है कि दिगोली ग्राम, जहां मेरा जन्म हुआ जिसने अनेक प्रतिभाशाली व्यक्तियों को जन्म दिया जिन्होने शिक्षा, प्रशासन आदि क्षेत्रों में नाम कमाया लेकिन अपने गांव के प्रति इन प्रतिभाशाली व्यक्तियों का कोई प्रत्यक्ष योगदान न हो सका। मुझे एक बार जियोर्जिया में एक अर्थशास्त्री ने इस कटु सत्य का अहसास कराया। उसने कहा कि उसकी उन्नति उसके ग्राम और उसके समस्त समुदाय की उन्नति के साथ हुई है। उसके पूछने पर मुझे यह स्वीकार करना पड़ा कि मेरी उन्नति अपने ग्राम और अपने इलाके की उन्नति के साथ नहीं हुई है, उससे कटकर हुई है। जो राष्ट्रीय उन्नति स्थानीय उन्नति को खोने की कीमत पर होती है वह कभी स्थाई नहीं हो सकती। उत्तराखंड के बुद्धिजीवियों का देश की उन्नति में कितना ही बड़ा योगदान हो, उनके उत्तराखंड की समस्याओं से अलगाव और उत्तराखंड की उन्नति में योगदान से उनकी उदासीनता उनके जीवन की बड़ी अपूर्णता है। यह राष्ट्र की भी बड़ी त्रासदी है।’
(प्रो पी.सी. जोशी, पहाड़-8, नैनीताल, वर्ष-1995)
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री और सामाजिक चिंतक प्रो. पी. सी. जोशी का उक्त कथन मुझे हमेशा अपने गांव-इलाके से जोड़े रखने में सहायक सिद्ध हुआ है। अपने गांव चामी (असवालस्यूं) पौड़ी गढ़वाल में लगातार रहते हुए मुझे 2 साल से ज्यादा का समय हो गया है। मैं अभी भी उन मौलिक कारणों को समझने की प्रक्रिया में हूं जो गांव के युवाओं को देश के मैदानी नगरों और महानगरों की ओर धकलने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। मेरा चिंतन इस ओर भी है कि आखिर वे कौन से कारण हैं जिनके वशीभूत होकर अधिकांश पहाड़ी प्रवासी वापस अपने गांव नहीं आ रहे हैं। यह सामान्य विचार प्रचलन में है कि पहाड़ी गांव से बाहर निकलने वाले लोग आगे बढ़ गए परन्तु जिस ग्रामीण समाज ने उनकी परवरिश की वह पिछड़ता चला गया है। नतीजन, सब कुछ होते हुए भी उत्तराखंडी पहाड़ी आदमी अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक पहचान को संभाल नहीं पा रहा है।
मैं अपने चिंतन को बैकगियर में ले जाता हूं तो याद आता है, बचपन। स्वावलम्बी और सम्पन्न समाज में पल्लवित सहज, सरल और आत्मसम्मान से भरपूर, बचपन। बचपन की यादें सुख की वह गठरी है जिसे जब चाहें मन के सबसे नाजुक कोने में चुपचाप खोलकर परम आनन्द की अनुभूति प्राप्त की जा सकती है। आज उसी सुख की गठरी में सालों से कसी हुई गांठ को खोलने की कोशिश कर रहा हूं। इसी बहाने जीवन के संचित बहीखाते में लाभ-हानि का आकलन भी सार्वजनिक होगा।
पौड़ी-सतपुली मोटर मार्ग में सतपुली से 7 किमी पहले है, बौंसाल। बौंसाल से पश्चिमी नयार नदी पार करके कल्जीखाल मोटर मार्ग पर 8 किमी की दूरी के बाद चामी गांव की नीचे एवं ऊपर की सीमा रेखा यही सड़क है। तल्ली-मल्ली चामी में विभिन्न जातियों की बसावत तथा खेती के रंग-ढंग आम पहाड़ी गांव की तरह ही है। धन-धान्य से सम्पन्न इस गांव में प्रकृति नजदीकी गांवों की तुलना में ज्यादा मेहरबान रही है। भरपूर पानी ने अधिकांश कृषि भूमि को सिंचित एवं उपजाऊ बनाया। परिणामस्वरूप ग्रामीणों की पचास के दशक तक खेती-बाड़ी ही जीविका का मुख्य साधन था।
नए रोजगार करने एवं पढ़ने-लिखने की चाह बढ़ी तो लोगों ने गांव से मैदानी नगरों की ओर निकलना शुरू किया। परन्तु वर्षों तक प्रवासी रहने के बाद भी उनके प्रवास की प्रवृत्ति अस्थायी ही रहती थी। गांव में आना-जाना उनके नियमित सालाना क्रम में शामिल था। सालों-साल लोग नौकरी-रोजगार से वापस आकर गांव में आसानी से पुनः रच-बस जाते थे। बाहरी दुनिया की जानकारी, आकर्षण तथा किस्से-कहानियां उनकी जुबानों पर होते थे। दैनिक और सामान्य व्यवहार में स्थानीय तौर-तरीके के अनुकूल ही उनकी क्रियाशीलता थी। प्रवास से वापस आये लोगों ने अपने बाहरी अनुभव, ज्ञान और हुनर का उपयोग गांव की समृद्धि के लिए किया। अपनी जीवन-चर्या को सुविधाजनक बनाने की अपेक्षा ग्रामीण जन-जीवन को अधिक उत्पादक बनाने का चिन्तन उनके मन-मस्तिष्क में था। उस दौर में गांव के खेत-खलिहान, पंचायत, सामाजिक कार्य एवं उत्सवों की जीवन्तता का मूल आधार सामूहिक साझेदारी एवं सक्रियता थी। मौलिक उद्यमिता की भावना ने गांव को स्वावलम्बी समाज का स्वरूप प्रदान किया था। यह सच है कि वर्तमान में गांव के रास्तों, मन्दिर, गूल, खेत, पानी की टंकी, थाड (सामूहिक मिलन स्थल) तथा पुराने पंचायती बर्तनों में अगर मजबूती है तो वह 5 दशक पूर्व के लोगों की देन है। आज भी गांव के अधिकांश सार्वजनिक जरूरतों की भरपाई पूर्वजों द्वारा विकसित, निर्मित और संरक्षित किये गए संसाधनों से ही होती है। ये बात दीगर है कि आज उनके मौलिक एवं उपयोगी स्वरूप को बरकरार रखने के लिए मरम्मत एवं देखरेख करने में भी हम अपने को असमर्थ महसूस कर रहे हैं।
अभावों एवं दुरूहता को आसानी से स्वीकार करने वाले उस ग्रामीण समाज में जीवटता एवं सरलता का भाव समान रूप में विद्यमान था। प्रकृति के वर्ष भर के स्वाभाविक बदलावों के साथ ही उनकी दिनचर्या में स्वतः ही बदलाव आ जाता था। यह इंगित करता है कि उस समाज की गतिशीलता पर्यावरण सम्मत थी। प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व को कायम रखते हुए तब के ग्रामीण जीवन में कष्ट तो थे परन्तु कुण्ठाएं नहीं पनपी थी। परिणाम स्वरूप अभावों की परवाह न करते हुए उनके कार्य तथा निर्णय दीर्घकालिक एवं सामुहिक हितों के अनुरूप हुआ करते थे। ढ़ाकर (पैदल चलकर घरेलू जरूरतों का सामान लाना) के लिए तब कोटद्वार जाना होता था। पश्चिमी नयार नदी में पुल नहीं था इसलिए ग्रामीण नयार को तैर कर पार करते थे । लोगों ने इसकी जरूरत समझी तो सारा इलाका उमड़ा और पुल महीनों में तैयार हो गया। नेता, सरकार, अधिकारी तब इस काम में कहीं नहीं थे। स्वःस्फूर्त स्थानीय जन-सहभागिता की उपस्थिति का ही यह कमाल था। काम को आनन्द के साथ या फिर कहें काम करते हुए उसी में आनन्द को पैदा करने की कला उनको बखूबी आती थी। खेती-बाड़ी, शादी-ब्याह, धार्मिक-सामाजिक उत्सवों में पूर्णतः रम जाना उनकी मौलिक प्रवृति में शामिल था। थाड़ में थडया, चौफला, झौड़ा नृत्यों के साथ गूंजते लोकगीत, कण्डारपाणी की रामलीला, खैरालिंग का कौथिग, बग्वाल में भैलो, बांस की पिचकारी, तीज-त्यौहार में बनते स्वांला-भूडी-अर्सा, गांव की दीदियों के बनाए ढुंगला, खेतों में धान की रोपाई करते महिला-पुरुश और ढोल पर लम्बी थाप देते हुए उनके उत्साह एवं उमंग को बढ़ाते ग्रामीण जन। हर जगह जीवन में सामूहिकता, पूरकता, पारस्परिक निर्भरता तथा उल्लास का संगम देखने को मिलता था।
समय ने करवट ली। समय बदला तो ग्रामीण सामाजिक व्यवस्था की गति, दिशा एवं नियति में परिवर्तन स्वाभाविक था। विकास शब्द प्रचलन में आने लगा। कहा गया कि गांव-इलाके का विकास करना है। वही रट आज भी है। विकास का प्रारम्भिक एवं व्यवहारिक मतलब यह माना गया कि सुविधाओं से खुशहाली बढ़ेगी। उसके लिए नए एवं बाहरी तौर-तरीकों को अपनाने की प्रक्रिया आरम्भ हुई। इसमें यह ध्यान नहीं रहा कि स्थानीय सामाजिक परिवेश के मौलिक, परम्परागत और उपयोगी तत्वों को भी समयानुकूल संरक्षित एवं संवर्द्धित किया जाना आवश्यक है। नतीजन, विकासरूपी परिवर्तनों से गांव, सड़क, शिक्षा, बिजली, पानी, टेलीफोन, टीवी, स्वास्थ्य आदि सुविधाओं की पहुंच में तो आया परन्तु ग्रामीण समाज में इसके कई सकारात्मक प्रभावों के साथ नकारात्मक लक्षण भी परिलक्षित हुए। यह परिवर्तन सामूहिक एवं पारस्परिक हितों, सहयोग एवं सामंजस्य की परम्परा को ताकतवर बनाने की अपेक्षा कमजोर करने में ज्यादा प्रभावी साबित हुए। ग्रामीणों में सामाजिक उत्पादकता के स्थान पर आधिकाधिक व्यक्तिगत उपभोग करने की प्रवृति बढ़ी। विकास के नाम पर नए उत्पाद, तकनीकी एवं जानकारियों ने अनावश्यक रूप से ग्रामीण जीवन में बाहरी ग्लैमर की घुसपैठ कराई। परिणाम स्वरूप आधुनिक सुविधाओं से लैस ग्रामीण परिवारों का रंग-ढंग शहरों की तरह एकांगी और बाजारोन्मुखी होने लगा।
नतीजन, आज सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी का जांचा-परखा लोकज्ञान कुछ ही वर्षों में गुम होने की कगार पर है। स्थानीय समाज की पारस्परिक निर्भरता के स्थान पर छोटी-छोटी जरूरतों के लिए शहरों की आधीनता गांव में बढ़ती जा रही है। मुझे छुटपन (लगभग 55 वर्ष पूर्व) की याद है कि ब्लाक से कुछ सरकारी विकासकर्मी नई रासायनिक खाद के प्रोत्साहन के लिए गांव में आये थे। लेकिन उनके आने से पहले ही गांव के सभी सयाने कहीं अन्यत्र चले गए। क्योंकि वे उन सरकारी विकासकर्मियों का सामना नहीं करना चाहते थे। तब नई रसायन खाद को ‘हड्डी वाली खाद’ कहा जाता था। इस कारण गांव के किसान ‘गोबर की खाद’ की जगह किसी भी हालत में अपने खेतों में नई ‘हड्डी वाली खाद’ का प्रयोग नहीं करना चाहते थे। उन्हें धर्मभ्रष्ठ होने का इसमें खतरा नजर आता था। लेकिन कुछ ही वर्षों बाद जोर-शोर के सरकारी प्रचार के कारण खेती में नई रसायन खाद का प्रचलन खूब होने लगा। लेकिन आज 5 दशक बाद गांव में उसी सरकारी व्यवस्था के नये विकासकर्मी प्रचारित कर रहे हैं कि ‘गोबर की खाद’ ‘रसायन खाद’ से कहीं बेहतर है। गांव के लोग धर्मभ्रष्ठ होने का खतरा तो भूल गए परन्तु उनके खेतों का उपाजाऊपन इस हद तक कम हुआ कि सारी खेती-बाड़ी रसायनिक खादों के नशे का शिकार हो गई हैं।
असल में विकास की आधुनिक प्रक्रिया में ग्रामीणों का लोकज्ञान और हुनर हमेशा सरकारी उपेक्षा का शिकार हुआ हैं। एक उदाहरण हमारे चामी गांव के बगल के सीरौं का पेश है। आज से 80 वर्ष पूर्व उत्तराखंड के सीरौं गांव, पौड़ी (गढ़वाल) के अन्वेषक एवं उद्यमी स्वः अमर सिंह रावत ने अपने मौलिक अध्ययन, शोध एवं अनुभवों के आधार पर स्थानीय संसाधनों एवं तकनीकी के माध्यम से विभिन्न उद्यमों को प्रारम्भ किया था। उनका मुख्य कार्य कंडाली, रामबांस, चीड आदि से रेशा उत्पादों को प्राप्त करके उनसे कपड़ा बनाना था। उद्यमी अमर सिंह रावत ने सन् 1936 में पवन चक्की का सफल प्रयोग किया था। रामबांस, भीमल, कण्डाली के रेशों से बनाये कपडे से स्वः निर्मित जैकेट को उन्होंने जवाहर लाल नेहरू को भेंट स्वरूप पहनाया था। उन्होने स्थानीय संसाधनों से कई अन्य उत्पादों का निर्माण किया था। परन्तु अपेक्षित सहयोग नहीं मिलने के कारण वे रीते ही इस दुनिया से अलविदा हो गए। देश की आजादी के बाद भी उनके उद्यमीय कार्य को आगे बड़ाने के लिए कोई पहल नहीं की गई। आज की उत्तराखंड सरकार पिरूल, रांमबास, भांग, कंडाली आदि के रेशों से उत्पादक कार्य करने की बात तो कह रही है परन्तु 80 साल पूर्व के इस उद्यमी के प्रयासों की उसे जानकारी नहीं है। और यदि है भी तो वह उसका लाभ नहीं लेना चाहती है।
वास्तव मेें चमक-दमक से भरपूर नए विकास की अवधारणा और प्रक्रिया यह नहीं बताती है कि ग्रामीण इन सुविधाओं के बदले क्या खो रहे हैं। गांव में मोटर सड़क आने का उदाहरण इसके लिए काफी है। सन् 1980 के करीब जब गांव के समीप सड़क बनकर तैयार हुई तो ग्रामीणों में नए-नए रोजगार की उम्मीद जगी थी। सड़क से लगी जमीन को दान करके उसमें विश्व बैंक का गोदाम बना। ग्रामीण उत्साहित थे कि नया बाजार बनेगा, चाय-पानी, आटा-चक्की, सब्जी, कपड़ा, जनरल स्टोर, परचून का व्यवसाय से लेकर सैलून खोलने की तैयारी शुरू हुई। परन्तु विश्व बैंक के इस गोदाम में वर्षों तक कभी भी एक दाणी अनाज नहीं आ सका। नतीजन, विश्व बैंक का गोदाम बनने के बाद से ही वीरान हो गया। गांव के भावी उद्यमियों के साकार होते सपने भी धम्म से धाराशाही हो गए। वर्षों तक आने-जाने वाले मुसाफिरों तथा बाद में स्कूली लड़कों के छुपने के लिए ये भवन कारगर रहे। आज इन भवनों के कंकाल ही अवशेष में दिखाई दे रहे हैं। सही बात तो यह है कि सड़क आने से गांव जाना-आना तो आसान हुआ परन्तु मोटर सड़क गांव की उत्पादकता को बड़ाने में सहायक सिद्ध नहीं हो सकी। बस, इसका प्रभाव यही हुआ कि मोटर सड़क के आस-पास के गांवों में भी सड़क से चिपक कर ‘नीचे दुकान ऊपर मकान’ या ‘आगे दुकान पीछे मकान’ वाले कई नए भवनों की कतार दिखाई देने लगी है। गांवों में शहरी जीवन शैली को पसारने में सड़क से सटे इन नई बसावतों का महत्वपूर्ण योगदान है। वास्तव में, सड़क में दौड़ने वाले वाहन में बैठकर ग्रामीण व्यक्ति यात्री बनकर अपने गन्तव्य स्थान पर सुविधाजनक, जल्दी एवं सरलता से पहुंचा लेकिन बिल्कुल रीते हाथ।
आधुनिक विकास ने ग्रामीणों के शिक्षा के प्रति आकर्षण को अधिक प्रभावी बनाया। गरीब-अमीर, लड़के-लड़कियाॅ, सभी ने पढ़ना अनिवार्य समझा। परन्तु विद्यालयी शिक्षा ने इन युवाओं के मन-मस्तिष्क में जीविकोपार्जन के लिए अपने परिवेश से बाहर का रास्ता ही बताया है। श्रम को बोझिल एवं अनुपयोगी मान लेने की मानसिकता युवाओं में तेजी से बड़ी। गांव में पढ़ लिखकर रहना युवाओं के लिए असहाय हो गया। सयाने कहते कि ’अगर कुछ करना है तो बाहर निकलो, गांव में क्या रखा है ?’ गांव में रह रहे हाईस्कूल या इंटर पास युवा रोजगार के घनघोर संकट से गुजर रहें हैं। उनके परिवार आर्थिक दिक्कतों में हैं। खेती-बाड़ी से गुजारा करना कठिन है। गांव में मार्गदर्षन करने वाला कोई नहीं है। शहरों में ठौर-ठिकाना नहीं होने से वे जायें तो जायें कहां ? करें तो करें क्या ? ज्यादातर युवा इसी उधेड़बुन में मैदानी महानगरों में रोजगार के लिए गोता लगाने चल देते हैं। कुछ सफल तो अधिकांश असफल, फिर कुछ महीने गांव में तो कुछ माह मैदानी प्रवास में। नतीजन, ’असल में करना क्या है’ ? का बोध उनमें विकसित नहीं हो पाया है।
पहाड़ में अच्छी पढ़ाई माने अच्छी नौकरी और अच्छी नौकरी माने शादी की गारंटी फिर दिल्ली, लखनऊ, गाजियाबाद, मेरठ, चंडीगढ़, कोटद्वार, देहरादून में मकान। उसके बाद टाईवाले स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने की तमन्ना। सामान्यतया पहाड़ी समाज में एक कामयाब व्यक्ति की यही पहचान है।
ज्यादा वक्त नहीं हुआ है, चार दशक पहले तक प्रवासी लोग हर साल लम्बी छुट्टी लेकर अपने गांव आते थे। खेती-बाड़ी, तीज-त्यौहार, शादी-ब्याह, मकान की मरम्मत आदि कामों को निपटाते हुये मजे से गांव में महीने-दो महीने रहते थे। खेती-बाड़ी अब रही नहीं। गांव में तीज-त्यौहार मनाना बीते दिनों की बात हो गयी है। शादी-ब्याह में बहुत जरूरी हुआ तो एक रात शामिल होने आ गए। वैसे भी अधिकांश लोगों के कुटम्ब अलग-अलग शहरों में छितरा गए हैं। फिर गांव में रहेगें किसके पास ? मूल प्रश्न यह है। ज्यादातर लोगों को तो पितरौड़ा में पितृलोड़ी रखने के लिए ही गांव की याद आती है। एक कारण बड़ा मजबूत है, आज के दौर में गांव जाने का, देवी-देवताओं के सामूहिक पूजन में शामिल होना और छुट्टियों का महीना जून इसके लिए निर्धारित सा लगता है। वैसे देहरादून, पिथौरागढ़ और चम्पावत से खबर आयी थी कि प्रवासी लोग स्थानीय देवी-देवताओं की मूर्तियां भी अपने साथ ले गए हैं। लो कर लो बात, हमेशा-हमेशा की छुट्टी पायी गांव आने से।
पिछले 5 दशकों में गांव में आये कुछ परिवर्तन बार-बार यह विचार करने की ओर बाध्य करते हैं कि वाकई हमारा ग्रामीण समाज समझ और सभ्यता के स्तर पर आगे बड़ा है या उसे दिशाभ्रम हो गया है। गांव में स्थानीय देवी-देवताओं की भरमार पहले भी थी और आज भी है। पहले इनके मंदिर होते ही नहीं थे। खेतों की मेडों या घर के धुरपल्ले (छत) या ढैपुर (कमरा और छत के बीच का ढाई फुट का हिस्सा) या फिर निर्जन स्थानों पर बहुत छोटे और खुले आकार में सादगी के साथ स्थानीय देवी-देवताओं के निवास होते थे। आज पहाड़ में जगह-जगह प्रवासियों के योगदान से स्थानीय देवी-देवताओं के भव्य मंदिरों की भरमार है। किसी पहाड़ी धार से देखिए प्रत्येक गांव छोटे-बड़े नए मन्दिरों से घिरे दिखाई देते हैं। भले ही उनमें नियमित पूजा करने वालों का अकाल है। दूसरी तरफ उस पुराने दौर में ग्रामीण इलाके में केवल सरकारी स्कूल थे और वो भी बेहद कम संख्या में लेकिन उनकी भव्यता, उपयोगिता और जीवंतता में कहीं कमी नहीं थी। आज की तारीख में ये सारे सरकारी स्कूल अपनी बदहाली और किसी हद तक निरर्थकता के कारण वीरान हो गए हैं। सरकारी स्कूलों की बदहाली का फायदा उठाकर ग्रामीण क्षेत्रों में निजी स्कूल पूरी धमक के साथ फल-फूल रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में नये मंदिरों और निजी स्कूलों की भरमार और पुराने सरकारी स्कूलों का गायब होना यह इंगित करता है कि नीति निर्माताओं से ग्रामीण क्षेत्र की सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक प्रगति को सही दिशा एवं गति देने में हर स्तर पर चूक हुई है।
यह कैसा विकास है जो हमें बताता है कि जो कुछ मौलिक, परम्परागत एवं स्थानीय है, वह अब प्रासंगिक नहीं है। आधुनिक जीवन शैली पहाड़ी परिवेश की भाषा-भोजन-भेषभूषा, रीति-रिवाज, तौर-तरीके, उठना-बैठना, किस्से-कहानी, ब्यौ-कारज, रहने के रंग-ढंग सभी को जबरदस्ती और अनावश्यक बदलने की फिराक में हैं। यह बदला रूप कितना ही असहज हो, पर यह गलतफहमी है कि हम समाज की नजर में बड़े और सम्पन्न आदमी बन गए हैं। मसलन, ब्याह कार्य में सर्यूल की जगह कारीगर है तो ढोल-दमाऊ की जगह नजीबाबाद बैण्ड, मण्डाण के बदले भांगडा, तो बामण की पुड़खी में अब प्लास्टिक विराजमान है।
मुझे गढ़वाल के इतिहास में ‘बावनी अकाल’ का घ्यान आ रहा है। विक्रम संवत् 1852 (सन् 1795) के भयंकर अकाल में गढ़वाली लोग कई दिनों तक भूख से बेहाल रहे परन्तु उन्होने अपनी खेती के परम्परागत बीजों को नहीं खाया। उन्हें विश्वास था कि कुछ समय के दुर्दिनों के बाद अपने इन मौलिक बीजों की ताकत से वे अकाल पर विजय प्राप्त कर लेंगे। उनका विश्वास सही साबित हुआ उन्हीं बीजों के बदौलत बाद में उनके जीवन में फिर से खुशहाली आ गई थी। आज खेती के परम्परागत बीज नदारद हैं। व्यावसायिक बीजों ने स्थानीय उत्पाद के रंग, रूप, स्वाद और पौष्टिकता का क्षरण किया है। गंभीर चिंता यह है कि इस हर स्तर पर चिन्तन का अभाव है।
आजकल गांव में सुखी-सम्पन्न वह है जो निठल्ला बनकर मजे से पेंशन की जुगाली कर रहा है। शारीरिक श्रम की उपयोगिता एवं अनिवार्यता को कम समझने के कारण स्थानीय जीवन के मूलभूत आधार, कृशि एवं पशुपालन के प्रति अरूचि बढ़ी है। स्थिति की गम्भीरता यह है कि सिंचित जमीन में भी छिटककर धान बोने का रिवाज चल पड़ा है। अधिकांश खेत बंजर है। ईधन के लिए गैस उपलब्ध है तो पेड़ों की कटाई कम हुई है। गांव के नजदीक झाड़ी-जंगल में वृद्धि हुई तो बची-खुची खेती के लिए मुसीबत बढ़ गई। जंगली जानवरों का आतंक चरम पर है। मौसम की मार से बचाई हुई फसल को बंदर चट कर जाते हैं। प्रवासी लोगों के बंजर जमीनों ने इस समस्या को और बढ़ाया है। पहले सारा इलाका आबाद था तो सामूहिक देख-रेख से फसलों की पुख्ता सुरक्षा थी। अब इसका निदान यही है कि घर के आस-पास के खेतों को ही लाल करके खेती की रस्म अदायगी कर दी जाए, जो छूटा उसे देखना भी क्या है ?
अभी हाल में किसी प्रवासी ने गांव के बंधु को पूछ लिया ‘गेहूं कितना हुआ तुम्हारा’ ? धाराप्रवाह सुनने को मिला। ’अब क्या बताना ? हमारा 25 किलो तो किसी का 10 किलो भी नहीं हुआ। पूरे गांव में 3 बोरे गेहूं हुआ होगा। बीज भी हाथ नहीं आया। जानवरों के लिए घास तो होता। समय पर पानी नहीं बरसा। थोड़ा बहुत फसल उगी भी थी, वह जंगली जानवरों ने चौपट कर दी। जंगलों में खाने को नहीं है। जानवर जाएं तो जाएं कहां ? बंदर भरी दोपहरी में बेरोकटोक घर की दहलीज पर मजे से आने लगे हैं। यह बताने कि हमारे लिए भी खाना बना देना। जानवरों से खुद को बचायें कि खेती को। पहले सभी खेती करते थे तो जानवरों से सामूहिक सुरक्षा हो जाती थी। आज जिसने हल चला कर अपने खेतों को आबाद किया है, उसी को तो परेशानी होगी। बगल के बंजर खेत वाला चण्डीगढ़, देहरादून, दिल्ली, मुम्बई, मेरठ, फरीदाबाद से तो आयेगा नहीं। अब बंदर-सुअर जंगली न होकर गांव के स्थाई निवासी हो गये हैं। आदमियों की आबादी से अधिक बंदर लोट रहें हैं गांवों में। सरकार को सलाह है कि उनका भी राशनकार्ड बनाया जाय। एक बात और बतायें जंगलों में लोग आग इसलिए भी लगा रहे हैं ताकि जंगली जानवर गांव के नजदीक न आ सकें। ’ये तो ठीक बात नहीं है,’ उस प्रवासी भाई ने कहा। तुरन्त उत्तर आया। ’दो-चार महीने गांव में रह लो। सब ठीक लगने लगेगा।’
वास्तव में हमने ग्रामीणजन के श्रम को सामाजिक सम्मान देना नहीं सीखा है। शहर से गांव आने वाले प्रवासी उम्मीद रखते हैं कि गांव का दूध, दही, सब्जी, अनाज, दाल हमें फ्री या बहुत कम कीमत पर मिल जाए। प्रवासी लोग गांव के लोगों से भाईचारे, ईमानदारी तथा सहृदयता की आशा रखते हैं परन्तु अपना सकारात्मक योगदान ग्रामीण व्यवस्था में प्रदान करने में हिचक जाते हैं। समस्या यह है कि हम अन्य व्यक्तियों को अपने नजरिये से ही देखना चाहते हैं। इस प्रक्रिया में शहरी प्रवासी ग्रामीण जीवनशैली में अनावश्यक छेड़-छाड़ करके उसे असंतुलित करने में योगदान दे रहे हैं। वास्तव में, स्थानीयता का अर्थ जड़ता नहीं है। अतः स्थानीयता के प्रति व्याप्त सामाजिक उदासीनता के भाव को हमें छोड़ना होगा।
आवश्यकता गांव में रहकर ग्रामीणों के मनोविज्ञान और जीवनीय दिक्कतों को समझने तथा स्थानीय अवसरों, संसाधनों एवं सम्भावनाओं के अनुरूप कारगर कार्य करने की हैं। समाज में अधिकांश परिवर्तन स्वस्फूर्त, स्वाभाविक एवं समयागत होते हैं। उन्हें रोका भी नहीं जा सकता और उनके मार्ग में अनावश्यक अवरोध भी खडे़ नहीं किए जाने चाहिए। वास्तविकता यह है कि परिवर्तनशीलता स्थानीय समाज को जीवन्तता तथा नवीन परिस्थितियों के अनुकूल आकार लेने की ओर प्रेरित एवं विकसित करती हैं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक परिवर्तनों को स्थानीय उद्यमशीलता से जोड़ने की जरूरत है। इसके लिए स्थानीय संसाधनों के मौलिक स्वरूप को समझते हुए उनके सर्वोत्तम उपयोगों की ओर क्रियाशील होना होगा। इन्हीं अर्थों में मेरे गांव चामी की तरह उत्तराखण्ड के गांव की तब्दीली को एक सही दिशा देनी होगी, इसके लिए बाहर नहीं वरन् स्थानीय समाज में ही चुनौतियाॅ एवं अवसर तलाशने होंगे।
मैं गांव में रहते हुए इस बात से पूर्णतया आश्वस्त हूं कि ग्रामीण पहाड़ी समाज अपने पैतृक आत्मनिर्भर स्वरूप को पुनः हासिल करेगा। ऐसा इसलिए कि गांव के सयानों से अधिक गांव के युवा और बच्चे अपने गांव और पैतृक भूमि की अहमियत को समझ रहे हैं। हमने अभियान चलाया कि गांव में कोई भी घर टूटा-फूटा और खंडहर के रूप में न रहे। गांव के युवाओं को लगता है कि उदासी और नकारात्मकता का भाव सबसे ज्यादा रोज इन खंडहर हो गये घरों को देखने से ही उपजता है। गांव के युवाओं की प्रवासियों से अपने पैतृक घरों को ठीक करने की अपील ने रंग जमाया। नतीजन, विगत वर्शों में गांव के अधिकांश टूटे-फूटे घर आज आधुनिक और खूबसूरत स्वरूप में आ गये हैं। समस्या यह है कि दिन में बंदर और रात को सुअर खेतों को नुकसान पहुंचाते हैं। इसके विकल्प में जड़ी-बूटी और ऐसी फसलों की ओर हम उन्मुख हुए हैं जिन्हें जानवर नुकसान नहीं पहुंचाते है। यह क्या कम है कि गांव के युवाओं ने अपने ही प्रयासों से पुस्तकालय और कम्प्यूटर सैंटर चलाने की पहल की है। प्रवासी बन्धुओं की मदद और मार्गदर्शन से इस कैरियर सैंटर को डिजिटल करने की ओर गांव के युवा प्रयासरत हैं। ये ही युवा अपनी सांस्कृतिक विरासत (मुख्यतया रामलीला) के माध्यम से गांव की प्रतिभाओं को तराशने का काम कर रहे हैं। पूरी चामी ग्राम सभा का आगामी 25 वर्षों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए गांव के युवा एक मास्टर प्लान पर कार्य कर रहे हैं। इसमें गांव के इतिहास, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक आदि पहलुओं पर कार्य किया जा रहा है। इन युवाओं की यह पहल भविष्य के नये आयामों के द्वार खोलेगी। अभी उनके चिन्तन और प्रयासों में थोड़ी हिचकिचाहट की छाया है, पर समय के साथ यह कुहासा भी छटेगा। मेरी समझ यह कहती है कि यदि हम गांव में रह रहे ग्रामीणों और उनके प्रवासी बन्धु-बांधुओं के बीच निरन्तर सही, सुगम और पारदर्शी समन्वयन को सफलतापूर्वक संचालित कर लें तो पलायन की चर्चा ही निरर्थक लगेगी।
मैं पुनः यह बात विनम्रता के साथ परन्तु मजबूती से कहना चाहता हूं कि किसी भी स्तर से गांव से पलायन रोकने की बात कही जाती है तो उसे/उन्हें स्वयं इस तरह का व्यवहारिक आचरण और पहल करनी होगी। हमें दूसरों से कहने-लिखने से ज्यादा खुद साबित करके दिखाना होगा। गांव में आना-जाना और गांव में ग्रामीणों जैसा रहना इन दोनों प्रवृत्तियों में बहुत अन्तर है। गांव में जीवकोपार्जन करके जीवन चलाने की दिक्कतें दिखती कम हैं उसे गांव में रहकर ही महसूस किया जा सकता है।
अच्छी पढ़ाई के लिए देहरादून और अच्छे इलाज के लिए दिल्ली से नजदीक कोई सुविधा सरकार और समाज हमारे उत्तराखंडी पहाड़ी गांवों को नहीं दे पाई है। बावजूद इसके, हम ग्रामीण पहाड़ी लोग शहरी कुंठाओं से ग्रस्त नहीं हुये हैं। यही हमारी ताकत और पहचान है।