विनीता यशस्वी
घिंघरानी से द्वालीसेरा जाते हुए चरमागाड़ दिखने लगी जो यहां महाकाली से मिलती है और पिथौरागढ़ से आती है। अब तक शाम होने लगी थी इसलिये हम जल्दी ही आगे बढ़ना चाहते थे। हमें अपने रहने के बारे में कुछ भी पता नहीं था इसलिये रहने का ठिकाना भी ढूंढना था।
यहां से आगे रास्ता पैदल ही तय करते हुए हम लोग द्वालीसेरा गांव की ओर बढ़ गये। द्वालीसेरा एक मैदान की बहुत फैला हुआ गांव है। यहां भी हमें कुछ औरतें घर में काम करती हुई दिख गयी। घर में भी खेती का ही काम चल रहा है।
कुछ महिलायें आंगन में बैठ कर मक्का के दाने निकाल के उन्हें साफ कर रही हैं। तकनीकि का इस्तेमाल यहां पर ये लोग अपने तरह से कर रहे हैं। बड़ा वाला पंखा चलाया है और उसके सामने खड़े होकर ये लोग अपना काम कर रही हैं। तकनीक का कुछ तो फायदा है ही। थोड़ा तो आसानी हुई ही है।
दुर्गा देवी काम करते हुए ही कहती हैं हमारे गांव में तो किसी चीज की भी कमी नहीं है। हम तो अपना गांव नहीं छोड़ना चाहते हैं। हालांकि स्कूल यहां से दूर है और मुख्य बाजार के लिये भी इन लोगों को जौलजीबी या पिथौरागढ़ ही आना होता है। यहां से काफी लोग नौकरी के लिये बाहर गये हुए हैं। अस्पताल की सुविधा भी पिथौरागढ़ में ही है। इन महिलाओं को इन सब परेशानियों के बावजूद भी अपनी ही जमीन अपना ही घर अच्छा लगता है।
अब क्योंकि रात हो चुकी है इसलिये हम लोग आगे बढ़ गये। अब हमें अपने रात को रुकने की भी थोड़ी चिंता हो रही है हालांकि हम सभी इस बात को लेकर आस्वस्त हैं कि गांव में कोई न कोई हमें रहने के लिये जगह दे ही देगा। यहां से थोड़ा दूरी पर बगड़ीगांव आ गया। हम कुछ लोग यहां पहले ही पहुंच गये और पहुंचते ही हमें एक बुजुर्ग महिला हमें सामने दिखायी दे गयी। हमने उनसे भी सवाल पूछने शुरू कर दिये।
उन्होंने भी लगभग वही सब बातें बतायी जो हम अभी तक सुनते आ रहे थे कि यहां खेती की समस्या है, फसलें बाजार में बिक नहीं पाती है, अस्पताल नहीं है आदि-आदि। इतनी बातें कर लेने के बाद उन्होंने हमें चाय पीने के लिये अपने घर चलने के लिये कहा। हम भी थक चुके थे और अब आगे नहीं जाना चाहते थे इसलिये चाय पीने के लिये रुक गये।
महिला हमें घर ले गयी और अपनी बहू से कह के हमारे लिये चाय बनवाई। चाय बनने तक हमारे बांकी के साथी भी आ चुके थे। महिला स्वभाव से बेहद खुशमिजजा थी और खूब बात करने वाली है। उनसे थोड़ा और बातें करने पर उन्होंने अपनी उम्र 84 साल बतायी और नाम बताया रुकमणी। जितना ही सुन्दर नाम उतनी ही सुन्दर महिला खुद भी है। इस उम्र में भी उनके डील-डौल में कोई कमी नहीं आयी। बातें करते-करते उन्हें अपने ब्लाउज की जेब से एक बीड़ी निकाली और सुलगानी शुरू की।
बातें करते हुए हमने उनसे पूछा कि क्या वो आज रात को हमें अपने घर में रुकने की इजाजत दे सकती हैं। खुशी-खुशी महिला मान गयी और हमें रुकने के लिये जगह दे दी। जब उनसे कहा कि तुम्हारी बहु नाराज तो नहीं हो जायेगी। तो महिला ने हंसते हुए जवाब दिया – बिल्कुल भी नहीं। मेरी बहू जैसी तो कोई दूसरी बहू ही नहीं है पूरे इंडिया में। कुछ ही देर में उनकी बहू भी आ गयी और उसने थोड़ा हिचकिचाते हुए कहा – मेरी बहू के अभी बच्चा हुआ है तो अगर आपको बुरा न लगे तो क्या आप लोग अपने लिये खाना बना लोगे। मैं खाना बनाने का पूरा सामान दे दूंगी। गांव के लोगों की ये सादगी अभी भी बची हुई है जो उन्हें सबसे अलग कर देती है।
खाना बनाने की जिम्मेदारी हम सबने ली। महिला ने अपने लिये मडुवे की दो मोटी-मोटी रोटियां अलग से बनाई। वो वही खाना पसंद करती हैं। खाना समय जब उनसे पूछा कि उन्होंने बीड़ी पीना कैसे शुरू किया तो बीड़ी का लम्बा सा कस लेते हुए उन्होंने कहा – बचपन में मेरे पिताजी मुझसे बीड़ी मंगवाते थे और जलवाते भी थे। उनके लिये बीड़ी जलाते समय में भी कश ले लेती थी और फिर ऐसे करते हुए मुझे बीड़ी पीने में मजा भी आने लग गया। बचपन से पड़ी ये आदत अभी तक नहीं गयी। लोग क्या कहते हैं पूछने पर वो कहती हैं – काफी समय तक तो मैं सबसे छुप-छुप के ही बीड़ी पीती थी पर फिर बाद में सबके सामने ही पीना शुरू कर दिया। अब लोगों ने मेरा बीड़ी पीना स्वीकार कर लिया है इसलिये कोई कुछ नहीं कहता। उनके साथ हमने कुछ और देर बातें की फिर उनकी बहू ने हमारे सोने का इंतजाम कर दिया और हम लोग सोने चले गये।
सुबह उठे तो हमें चाय कमरों में ही मिल गयी। रुकमणी जी की बहू ने हमारे लिये नहाने का इंतजाम भी कर दिया। सुबह को रुकमणी जी के देवर भी हमसे मिलने के लिये आ गये। वो पहले सेना में थे पर अब रिटायर हो चुके हैं। सुबह को हमने सबसे विदा ली और आगे बढ़ गये।
सुबह के समय काली के उपर कोहरा छाया हुआ है और पूरी घाटी धुंध में लिपटी हुई है। यहां का कुछ रास्ता पैदल चल लेने के बाद हम आज के अपने अगले पड़ाव में पहुंच गये। इस गांव का नाम है सिनखोली। सिनखोली में हमें दो किसान खेत में काम करते हुए मिल गये। हम लोग उनके पास बात करने चले गये। दोनों पति-पत्नी हैं और खेती से ही गुजारा करते हैं। बातें ज्यादा आदमी ही कर रहा है औरत सर झुका के काम करती रही या फिर बीच-बीच में वही सब दोहरा देती जो पति पहले दोहरा चुका होता है।
बांध को लेकर इन लोगों की राय भी वही है जो सबकी है। अच्छा पैसा मिल जाये तो जाने में कोई परेशानी नहीं है। इनका बेटा पूना में काम करता है। इन लोगों को इस बात का मलाल है कि उसे यहां पर कोई अच्छा रोजगार नहीं मिला इसलिये उसे पूना जाना पड़ा। पढ़ाई करने की भी सुविधायें यहां नहीं हैं। फसल को बाजार तक पहुंचाना और बेचना कठिन काम है इसलिये ये लोग फसल अपने इस्तेमाल के लिये ही उगाते हैं पर बंदर और सुअरों के आतंक से खेती करना कठिन काम हो गया है।
इन से जब इनके ग्राम प्रधान के बारे में पूछा तो इन्हें उसका नाम ही नहीं पता है क्योंकि ग्राम प्रधान महिला है। सबको उसके पति का ही नाम पता है और उसके पति को ही ग्राम प्रधान मानते हैं। कोई समस्या भी अगर होती है तो ग्राम पति के पास ही जाते हैं। महिला सिर्फ नाम मात्र को ही ग्राम प्रधान हैं बांकि चलती तो उसके पति की ही है।
इन लोगों के भी नेपाल के साथ संबंध हैं और इनके ईष्ट देव भी हैं नेपाल में। ये लोग पूजा करने वहां जाते हैं और नेपाल के लोग इनके यहां पूजा करने भी आते हैं।
इन लोगों से बातें करके हम फिर आगे बढ़ गये। यहां के बाद अगला गांव डौडा था। यहां हमारी मुलाकात सड़क के किनारे दुकान चलाने वाले शेर सिंह से हुई। उनका कहना है कि इस गांव से पलायन बहुत कम हुआ है। लोगों के पास अपनी जमीनें हैं पर कुछ लोग हैं जो भूमिहीन भी हैं। इनका कहना है कि हमारा गांव काफी पिछड़ा हुआ है और कोई भी नेता यहां आना पसंद नहीं करते। स्कूल भी सिर्फ हाईस्कूल तक ही है और एक ग्रामीण बैंक है पर वो बहुत दूर है। यहां पानी की समस्या भी रहती है। गर्मी के दिनों में यहां पर बहने वाला नाला सूख जाता है जिससे पानी की समस्या ज्यादा गहरा जाती है।
डौडा गांव से खीमा दी और कविन्द्र भाई वापस लौट गये। वो इतने दिन के लिये ही हमारे साथ थे। अब आगे का रास्ता हमें खुद ही तय करना है। अभी तक खीमा दी और कविन्द्र भाई के होते हुए हमें किसी चीज की परेशानी नहीं हुई क्योंकि ये इलाका दोनों का ही जाना पहचाना है इसलिये उनकी वजह से हमें लोगों से मिलने में आसानी थी पर अब सबकुछ खुद ही करना होगा।
डौडा गांव से आगे का रास्ता बेहद थका देने वाला और नीरस था उस पर से बेहद गर्मी शुरू हो गयी जिसने रास्ते को और भी ज्यादा लम्बा और थोड़ा उबाउ भी बना दिया।
डौडा के बाद अगला गांव चकदारी था। चकदारी में हमें एक और दुकान वाले मिले। इस समय तक हम लोग इतना ज्यादा थक चुके थे और गर्मी से बेहाल थे कि सुस्ताने के लिये कुछ देर बैठ गये। थोड़ा बहुत बातचीत में इन सज्जन ने भी हमें वही सब समस्यायें गिनवा दी जो हम अभी तक सुनते आ रहे थे। सड़क, अस्पताल, स्कूल की। यहां की ग्राम प्रधान भी महिला ही है पर ये लोग ग्राम पति को ही महत्व देते हैं महिला का कोई महत्व नहीं है।
चकदारी में थोड़ा सुस्ताने के बाद हम रणुवा गांव की ओर बढ़ गये। रास्ता अभी भी थका देने वाला है और गर्मी ने परेशान किया है। रणुवा के रास्ते में हमें कुछ पेड़ों पर लाल पताकायें लटकी हुई दिखी। ये उन लोगों ने बांधी हैं जो अपने ईष्ट देव को पूजने के लिये नेपाल नहीं जा सकते हैं वो यहीं से पूजा कर लेते हैं और इस तरह की पताकायें लटका देते हैं।
इस इलाके के लोगों का भी नेपाल के साथ बहुत गहरा संबंध है लगभग हर गांव के लोग पूजा करने के लिये नेपाल जाते हैं या नेपाल के लोग यहां आते हैं। इन लोगों की नाते रिश्तेदारियां भी हैं नेपाल में इसलिये जितने भी गांवों में हम अभी तक गये हैं सबने नेपाल के साथ रिश्तेदारियां बतायी।
रणुवा गांव तक पहुंचने के लिये हमें बहुत लम्बा रास्ता तय करना पड़ा। जिसे गर्मी ने बेहद थकाऊ और उबाऊ बना दिया। रणुवा गांव पहुंचते ही हमें कुछ मकान दिखायी दे गये। हम मकानों की ओर बढ़ गये। ये गांव दिखने में खूबसूरत लगा और भरपूर खेती लायक जमीन भी यहां दिखायी दे रही है।
गांव में हमें के.वी. कार्की जी का घर मिल गया जहां हम लोग बैठ गये। कार्की जी स्कूल में अध्यापक हैं। इन्होंने बताया इनके स्कूल में हाईस्कूल में पढ़ने वाले मात्र 7 बच्चे हैं और शिक्षक सिर्फ 4 हैं। बच्चों को मजबूरी में पढ़ाई के लिये पिथौरागढ़ जाना पड़ता है। इनका कहना है – लोग सुविधाओं की ओर भागते हैं और हम लोगों को सुविधायें पिथौरागढ़ में मिलती हैं। यहां तो सड़क ही नहीं है बांकी क्या होगा ? महिलाओं का कहना है कि उनको घास-पात लेने के लिये जंगल जाना पड़ता है पर जंगल के रास्ते भी ठीक नहीं है। कभी अगर कोई गिरती है या चोट लगती है तो उसके लिये बहुत मुसीबत हो जाती है क्योंकि यहां अस्पताल भी नहीं है इसलिये कोई भी दवा हम लोगों को नहीं मिल पाती है।
कार्की जी ने बताया कि इस गांव के लोग तो बांध का विरोध कर रहे हैं। हम चाहते हैं कि हमें सुविध् ायें मिलें और हमारे गांव को ही हमारे रहने लायक बनाया जाये। बांध बना तो हमारा सब कुछ उसमें डूब जायेगा। हम दूसरी जगह जाकर कैसे सब कुछ फिर से शुरू करेंगे ? कार्की जी के एक भाई हर सिंह कार्की और हैं जो सेना में नौकरी करते हैं और इस समय लखनउ में हैं। आजकल नवरात्रियों की पूजा के लिये गांव आये हुए हैं। हर सिंह जी कहते हैं कि – मैं तो बहुत मजबूरी में सेना की नौकरी में गया। गांव में कुछ था ही नहीं। अब तो मेरा परिवार वहीं रहता है। लखनउ में रह के मैं अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दे पा रहा हूं। यहां तो कुछ है ही नहीं इसलिये परिवार को यहां लाना नहीं चाहता हूं। हालांकि मेरी इच्छा बहुत होती है अपने गांव वापस आने की। वो कहते हैं नेताओं को कितनी बार हमने अपनी शिकायतें बता दी हैं पर उनके तो कान ही नहीं खुलते। बस वोट मांगने के लिये ही आते हैं बांकी उन्हें हमसे कोई मतलब नहीं है।
यहां हमने हमारे पास रखी कुछ दवाइयां इन लोगों को दे दी क्योंकि इनके लिये सरदर्द, दांतदर्द या बुखार जैसी दवांइयां भी नहीं मिल पाती हैं इसलिये इनके लिये ये दवाइंया मिल जाना भी बहुत बड़ी बात है। कार्की जी से ही हमने आगे जाने का रास्ता पूछा तो उन्होंने बताया – आगे रास्ता बहुत खराब है। बारिश में पूरा टूट गया है इसलिये वहां से संभल कर जाना। उन्होंने एक बच्चे को हमारे साथ भेज दिया जिसने हमें थोड़ा दूर तक रास्ता बता दिया।
इस गांव में पलायन खूब हुआ है। कुछ मकान तो बिल्कुल टूट ही गये हैं। इनमें रहने वाले यहां से गये तो अब वापस लौटना नहीं चाहते हैं।
बच्चे के साथ हम लोग उस रास्ते तक आ गये जहां से आगे का रास्ता टूटा हुआ है। यहां रास्ता बुरी तरह टूटा है और टूट के पूरा रास्ता काली में जा मिला है। हम जैसे-तैसे संभलते हुए आगे बड़े। पहले एक तीखी ढलान नीचे की ओर गयी और फिर बिल्कुल सीधी चढ़ाई वाला रास्ता। उस पर से फिसलन ने इस रास्ते का और भी मुश्किल बना दिया। जैसे तैसे रास्ता पार करके हम एक पतली सी सड़क पर आये और आगे अमतड़ी गांव की ओर बढ़ गये। अब भूख से हम सबका बुरा हाल हो गया है।
काफी पैदल चल लेने के बाद अमतड़ी गांव आ गया। अमतड़ी बहुत छोटा सा गांव है और बहुत कम परिवार यहां रहते हैं। इस गांव में हमें कुछ लोग दिखायी दे गये तो उनसे बात करने हम लोग उनके पास चले गये। यहां पलायन खूब हुआ है। लगभग पूरा गांव ही पलायन कर चुका है। यहां एक परिवार में सिर्फ बुडढे-बुड़िया ही बचे हैं। बांकी के लोग सब यहां से पिथौरागढ़ चले गये हैं।
यहां गांव में बिजली भी नहीं है और पानी भी नहीं है। खेती के लिये पर्याप्त संसाधन न होने के कारण ये लोग खेती भी ज्यादा नहीं करते। मछली पकड़ के उसका व्यापार करते हैं। इन लोगों की आय का मुख्य साधन ये ही है। जिनसे हम बात करने आये हैं आज उनके यहां कोई आयोजन है इसलिये कुछ मेहमान भी आये हैं और खाना भी बना है। उन लोगों ने हमसे भी खाना खाने के लिये कहा। हम सबके चेहरे एकदम खिल गये क्योंकि भूख के मारे सबका बुरा हाल है। उन्होंने लाल चावल का भात अरहर की दाल खाने के लिये थालियों में परोस के दी। एक सादा पर स्वादिष्ट खाना था। हम लोगों को बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी कि हमें इतना बढ़िया खाना खाने के लिये मिल जायेगा। यहां हमने खाना खाया और फिर आगे खर्कतड़ी गांव की ओर बढ़ गये। खर्कतड़ी में कुछ भी खास हमें नहीं मिला बस रास्ते से लगा एक परिवार दिखा जो इस समय धान की सफाई में लगा हुआ है। इन्होंने बताया कि इनके गांव से भी पलायन खूब हुआ है। इनसे बात करते हुए हम आगे बढ़ गये।
रास्ते में हमें तालेश्वर मंदिर मिला। यह शिव का मंदिर है। तालेश्वर में हमें दो घास काट के ले जाती हुई महिलायें मिली। हालांकि इन्हें बच्चियां कहा जाये तो भी गलत नहीं होगा पर छोटी उम्र में ही शादी हो गयी और बच्चे भी हो गये। एक महिला तो इस समय भी गर्भवती है और ऐसी हालत में भी इतना कठिन काम कर रही है। इस तरह के नजारों को देखते हुए कभी-कभी लगता है कि समाज आगे की ओर बढ़ रहा है या फिर और पीछे जा रहा है। इस स्थिति में जब महिला को आराम करना चाहिये ये जंगल जा के घास काट के ला रही है और उसे सर पे ढोने के लिये मजबूर है। दूसरी महिला थोड़ा बातुनी है और उसे हम लोगों के इस तरह पैदल चलने में बड़ी दया आयी और बोली – अगर मेरा घर नजदीक होता तो मैं तुम लोगों को चाय पिला देती। उसने ही हमें बताया कि आगे रास्ते से चमलिया गाड़, तालेश्वर गाड़ और काली नदी का संगम दिखेगा। जब हम सड़क वाले रास्ते में आगे आ गये तो हमें इन तीनों नदियों के संगम दिखायी दिये। चमलिया गाड़ नेपाल से आती है और तालेश्वर गाड़ तालेश्वर मंदिर के पास से आती है।
इस मोटर वाली सड़क पर चलते हुए अब हमें शाम होने लगी थी। यहां हमें एक दुकानदार मिले जिन्होंने हमसे कहा कि हम यहां से गेठीगड़ा तक चले जाये वो वहां से हमें गाड़ी में झूलाघाट छोड़ देंगे। हम आज रात को झूलाघाट ही रुकेंगे।
(जारी रहेगा)
घुमक्कड़ी और फोटोग्राफी की शौकीन विनीता यशस्वी नैनीताल समाचार की वैब पत्रिका ‘www.nainitalsamachar.org’ की वैब सम्पादक हैं।