चारू तिवारी
आज हिमाला तुमन क धत्योंछ
जागो-जागो ये मेरा लाल।
नी करि दी हालो हमरी नीलामी
नि करि दि हालो हमरो हलाल।
हमरी हाड़नै की बनी छ त कुर्सी
जेमैं भैबर करछां तुम राज।
कैसी बाबू कि नि हूंनी त कुर्सी,
तुमर म्यवादे छू पांचे साल।
-गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’
चमोली जनपद के सुप्रसिद्ध पर्यटक स्थल औली को एक खरबपति के दो बेटों की शादी के लिये सजाया जा रहा है। इसमें 200 करोड़ खर्च की बात कही जा रही है। बताया जाता है कि यहां देश-विदेश से आने वाले मेहमानों के लिये 150 हैलीकाप्टर उतारे जायेंगे। बताया जाता है कि इस आयोजन में राज्य के मुखिया त्रिवेन्द्र रावत की दिलचस्पी है। लोगों को बताया जा रहा है कि इससे उत्तराखंड में पर्यटन को बढावा मिलेगा। हमारे पुरखे कहते थे कि उच्च हिमालयी क्षेत्रों में जोर से बोलना, शंख बजाना और सीटी बजाना मना है। इससे वन देवियां नाराज हो जाती हैं। वे हिमालय की संवेदना को समझते थे। उन्हें पता था कि हिमालय अभी बहुत कच्चा पहाड़ है। इसमें अभी भूगर्भीय प्रक्रिया के चलते कंपन जारी है। इसलिये इसमें किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ खतरनाक हो सकती है। विकास की नई परिकल्पना पहाड़ को छेदने-छीलने की है। हमारे नीति-नियंताओं ने विकास की ऐसी परिकल्पना की है जिसमें कुछ लोग पैसे के लिये पूरे पहाड़ का दोहन अपने तरीके से कर सकते हैं। इनके विकास के केन्द्र में आम आदमी नहीं है। अगर होता तो सरकारें इतनी जनविरोधी फैसले नहीं लेती। जहां एक ओर सरकार कहती है कि वह इस तरह के आयोजनों से पर्यटन को बढ़ावा देना चाहती है, वहीं वह पहाड़ से लोगों को एकमुश्त खदेड़ने का इंतजाम कर रही है। इसे समझने के लिये सबसे पहले पहाड़ के जमीनों के सवाल को संजीदगी से समझना होगा। राज्य सरकार ने अपने बहुप्रतीक्षित भूमि कानून में संशोधन को लागू करा दिया। इस संशोधन का जनता उसी दिन से विरोध कर रही थी जब पिछले साल अक्टूबर में देहरादून में ‘इंवेस्टर्स समिट’ के नाम से इसका ताना-बाना बुना जा रहा था। ‘उत्तराखंड (उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950) (अनुकूलन एवं उपरांतरण आदेश 2001) (संशोधन) अध्यादेश-2018’ पर मुहर लगा कर सरकार ने पहाड़ों में जमीनों की बेतहाशा लूट का रास्ता खोल दिया गया। अभी केन्द्र सरकार वन कानून-1927 में संशोधन लाकर हमारी मुसीबतें बढ़ाने वाली हैं।
उत्तराखंड सरकार ने उक्त अधिनियम में बहुत सोच-समझ कर संशोधन किया है। इस संशोधन को लाने से पहले उसने देशभर के उद्योगपतियों को ‘इंवेस्टर्स समिट’ के नाम से 6 अक्टूबर 2018 को राजधानी देहरादून बुलाया था। उसी दिन सरकार ने ऐलान कर दिया था कि वह भूमि कानून में ऐसा संशोधन लायेगी जिससे पहाड़ में उद्योगों को प्रोत्साहित किया जा सके। सरकार ने यह भी दावा कि किया उनके इस प्रयास से बड़ी संख्या ने निवेशकों ने यहां निवेश करने की इच्छा जताई है। बताया गया कि इसके लिये निवेशकों ने एक लाख चैबीस हजार करोड़ के निवेश की बात कही थी। इसमें से 16 हजार करोड़ पर काम शुरू हो गया है बांकी पर काम करने के लिये यह फैसला लिया गया है। इस कानून में बदलाव से हजारों करोड़ के इंवेस्ट का रास्ता खुल जायेगा। इस संशोधन की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह पहाड़ में उद्योग लगाने के लिये किसी भी निवेशक को जमीन खरीदने की छूट प्रदान करती है। किसी भी जगह। किसी की भी। प्रशासन और सरकार की नीतियों के चलते पहले ही पहाड़ में बेतहाशा जमीनों की खदीर-फरोख्त होती रही है। गैर कानूनी तरीके से खरीदी-बेची गई जमीनों की शिनाख्त के लिये जहां सरकार को सख्ती करनी चाहिये थी, वहीं वह भू-कानून में संशोधन कर खेती की पूरी जमीन को एकमुश्त बेचने पर उतारू है। उत्तराखंड में जमीनों का सवाल हमेशा से महत्वपूर्ण रहा है। दुर्भाग्य से जिस जमीन को बचाकर नीति नियंताओं ने गांवों को बसाने की नीतियां बनानी चाहिये थी वे बेशर्मी के साथ सबसे पहले जमीनों को बेचने में लग गई हैं।
देश के हिमालयी क्षेत्रों की संवेदनशीलता को समझते हुये यहां बहुत सख्त भू-कानून बनाये गये हैं। जम्मू-कश्मीर में संविधान की धारा-370 से जमीनों की खरीद-फरोख्त पर रोक है। पूर्वोत्तर के राज्यों में धारा-371-ए के माध्यम से जमीनों को बचाया गया है। हमारे पडोसी राज्य में हिमाचल प्रदेश में अपनी जमीनों को बचाने के लिये धारा-118 बनाई है। इन राज्यों ने पहले अपनी जमीन को बचाया और फिर इसको विकसित करने का काम किया। यही वजह है कि जहां हिमाचल प्रदेश को आज हम ‘एप्पल स्टेट’ के रूप में जानते हैं तो सिक्किम को ‘जैविक राज्य’ के रूप में। हिमाचल प्रदेश में ‘हिमाचल प्रदेश टेंनसी एंड लैंड रिफाॅम्र्स एक्ट-1972‘ के 11 वें अध्याय में ‘कंट्रोल आॅन ट्रांसफर आॅफ लैंड’ में धारा-118 है। इस धारा के अनुसार हिमाचल में किसी भी गैर कृषक को जमीन हस्तांतरित नहीं की जा सकती है। इसका मतलब यह भी हुआ कि किसी भी कृषि जमीन को हिमाचल का रहने वाला ही गैर कृषक भी नहीं खरीद सकता। इसी धारा का 38-ए का सैक्शन-3 यह भी कहती है कि कोई भी भारतीय (गैर हिमाचली) रिहायशी जमीन खरीदने के लिये आवेदन कर सकता है। इसकी सीमा भी 500 स्क्वायर मीटर होगी। लेकिन इसके लिये भी सरकार से इजाजत लेनी पड़ेगी। गैर हिमाचली सरकारी कर्मचारी भी अगर अपना आवास बनाना चाहें तो उनके साथ भी हिमाचल में तीस साल की सेवा का प्रमाण पत्र होना चाहिये। इस प्रकार के प्रावधानों ने वहां की कृषि योग्य जमीन को बचाने का काम किया है।
उत्तराखंड पृथक राज्य आंदोलन के समय से ही ठोस भूमि कानून बनाने की बात प्रमुखता से उठाई गई थी। माना गया था कि उत्तराखंड बनने के बाद इस प्रदेश को पर्यटन, फलोत्पादन, कृषि, पशुपालन से आत्मनिर्भर बनाया जायेगा। इसकी पहली शर्त जमीनों का बचना ही था। दुर्भाग्य से राजनीतिक दलों और सरकार में बैठे लोगों के लिये यह कभी मुद्दा नहीं बना और अस्सी-नब्बे के दशक से ही यहां जमीनों के बिकने का सिलसिला शुरू हो गया। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद जब पहली चुनी सरकार कांग्रेस की आई तो उसके मुखिया नारायणदत्त तिवारी बने। उनकी सरकार एक अध्यादेश लाई जो हिमाचल की तर्ज पर भूमि की खरीद-फरोख्त को रोक लगा सकती थी, लेकिन कई पूंजीपतियों और पार्टी के दबाव में यह अध्यादेश वापस ले लिया गया। इस सरकार ने अधिनियम की धारा-129 के तहत यह व्यवस्था की कि जो भूमिधर नहीं है, वह 500 वर्गमीटर से ज्यादा जमीन नहीं खरीद सकता है। बाद में खंडूडी सरकार ने इसे 250 स्क्वायर मीटर कर दिया। यह अलग बात है कि इन कानूनों में इतने छेद हैं कि जमीनों का बिकना रुका नहीं है।
उत्तराखंड में त्रिवेन्द्र रावत के नेतृत्व में भाजपा की सरकार है। वर्ष 2017 में जब यह सत्ता में आई तो इस सरकार ने कहा कि सबसे बड़ा काम पलायन को रोकना है। इसके लिये और कुछ हुआ हो या न हुआ हो एक सरकारी ‘पलायन आयोग’ बन गया है। सरकार ने बहुत तरीके से लोगों को पहाड़ से खदेड़ने का इंतजाम भी कर दिया। 6 अक्टूबर, 2018 को मुख्यमंत्री जी ने एक ‘इंवेस्टर्स समिट’ बुलाई। इसमें ऐलान किया गया कि अगर पूंजीपति पहाड़ में उद्योग लगाना चाहें तो उनके लिये हम भूमि कानून में संशोधन उनके मन मुताबिक कर देंगे। इसी पर सरकार लग गई। सरकार ने दावा किया कि बड़ी संख्या में निवेशकों ने पहाड़ में उद्योग लगाने की इच्छा जाहिर की है। इसी को साधने के लिये सरकार विधानसभा में ‘उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950’ में संशोधन के लिये अध्यादेश लाई अब यह पास होकर कानून बन गया है। इस संशोधन के अनुसार अब पहाड़ में किसी भी कृषि भूमि को कोई भी कितनी भी मात्रा में खरीद सकता है। पहले इस अधिनियम के अनुसार कोई भी कृषक 12.5 एकड़ यानि 260 नाली जमीन अपने पास रख सकता था। पहले इससे अधिक जमीन पर सीलिंग थी। नये संशोधन में इस अधिनियम की धारा 154 (4) (3) (क) में बदलाव कर दिया गया है। नये संशोधन में धारा- 154 में उपधारा (2) जोड़ दी गई है। अब इसके लिये कृषक होने की बाध्यता समाप्त कर दी गई है। इसके साथ ही 12.5 एकड़ की बाध्यता को भी समाप्त कर दिया है। अब कोई भी व्यक्ति किसी भी उद्योग के प्रयोजन के लिये कितनी भी जमीन खरीद सकता है। इतना ही नहीं नये संशोधन में अधिनियम की धारा- 143 के प्रावधान को भी समाप्त कर दिया है। इसके अनुसार कृषि भूमि को अन्य उपयोग में बदलने के लिये राजस्व विभाग से अनुमति जरूरी थी। अब इस संशोधन के माध्यम से इस धारा को 143 (क) में परिवर्तित कर दिया गया है। अब अपने उद्योग के लिये प्रस्ताव सरकार से पास कराना है। इसके लिये खरीदी गई कृषि जमीन का भू-उपयोग बदलने की भी जरूरत नहीं है। इसे बहुत आसानी से अकृषक जमीन मान लिया जायेगा।
इस संशोधन के आने के बाद उत्तराखंड में कृषि भूमि को बचाने का संकट खड़ा हो गया है। एक विशेष भौगोलिक परिस्थिति वााले राज्य में जहां प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता है, वहां लोगों को उनके संसाधनों से रोजगार देने की नीति के बजाय उन्हें उनसे अलग करने की साजिश इस तरह के कानून हैं। अभी केन्द्र सरकार वन कानून-1927 में संशोधन करने जा रही है। उसके आने के बाद जंगलों से ग्रामीणों के अधिकार लगभग समाप्त हो जायेंगे। नदियों को तो पहले ही बड़े-बड़े ईजारेदारों को सौंप दिया गया है। इस प्रकार इस भू-कानून संशोधन पर नये सिरे से सोचने की जरूरत है। यह इसलिये भी कि उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों से लगातार कृषि भूमि कम हो रही है। अगर हम कुछ आंकड़ों के आलोक में इसे देखें तो तस्वीर साफ हो जाती है। अखिल भारतीय किसान महासभा के अध्यक्ष एवं पहाड़ की जमीनों के सवाल को बहुत गहराई तक समझने वाले वाले कामरेड पुरुषोत्तम शर्मा ने ‘कृषि की उपेक्षा से बढ़ता पलायन’ पुस्तिका में जमीनों के आंकडों को बहुत सिलसिलेवार रखा है। उत्तराखंड का 88 प्रतिशत भू-भाग पहाड़ी और 12 प्रतिशत मैदानी है। उत्तराखंड की पूरी भूमि पर 63 प्रतिशत वन, 14 प्रतिशत कृषि, 18 प्रतिशत बेनाप-बंजर और 5 प्रतिशत बेकार (अयोग्य) भूमि है। राज्य की कुल भूमि का रकवा 5592361 हैक्टेयर है। इसमें से 3498447 हैक्टेयर वन भूमि है। कृषि भूमि मात्र 831225 हैक्टेयर है। इसके अलावा बेनाप भूमि 1015041 हैक्टेयर है। ऊसर तथा अयोग्य श्रेणी की जमीन 294756 हैक्टेयर है।
उत्तराखड के पर्वतीय क्षेत्रों से कृषि योग्य जमीन का समाप्त होना नया नहीं है। इसके लिये अंग्रेजों के समय से चले आ रहे भूमि और जंगलात के कानूनों को समझना जरूरी है। अंग्रेजों ने हमारे यहां 11 बार जमीनों की पैमाइश कराई। पहला बंदोबस्त 1815-16 में हो गया था। आखिरी बंदोबस्त 1899 से 1902 के बीच हुआ। आजादी के बाद 1958 से 1964 तक एक आधा-अधूरा बंदोबस्त हुआ। हम जमीनों की स्थिति को बंदोबस्त से ही समझ सकते हैं। जब हम पहाड़ की कृषि भूमि पर बात करते हैं तो पांचवे बंदोबस्त यानि 1823 में पहाड़ की 20 प्रतिशत जमीन पर खेती होती है। अंग्रेजों ने 1865 में वन विभाग का गठन किया। नये वन कानूनों ने किसानों की जमीनों को छीनना शुरू किया। स्थिति यह हो गई कि जब अंतिम बंदोबस्त 1958-64 में हुआ तो उस समय पहाड़ में खेती मात्र 9 प्रतिशत रह गई थी। अंग्रेज 1893 में एक और शासनादेश लाये जिसने बेनाप-बंजर भूमि को रक्षित भूमि की श्रेणी में डाल दिया। राज्य बनने के बाद जब खंडूडी सरकार आई तो इसे वापस लिया। आजादी के बाद सरकार ने पर्वतीय जिलों के लिये 1960 में एक अलग व्यवस्था की। ‘कुमाऊं उत्तराखंड जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार कानून (कूजा) एक्ट बना जिसने कृषि भूमि के विस्तार के सारे रास्ते बंद कर दिये। इस एक्ट के अनुसार स्कूल, काॅलेज, अस्पताल, तकनीकी संस्थान, स्टेडियम पंचायती भवन आदि किसानों की नाप भूमि निःशुल्क देने की शर्त लगा दी गई। इन पचास वर्षों में पंचायत भवनों, जन मिलन केन्द्रों और सामुदायिक भवनों के नाम पर ग्रामीणों की 2 प्रतिशत जमीन छिन चुकी है। इसी तरह स्कूल, कालेज, उच्च तकनीकी संस्थानों, स्वास्थ्य केन्द्रों अस्पतालों, क्रीडा स्थलों के लिये किसानों की लगभग 7 प्रतिशत जमीनें सरकार के खाते में चली गई हैं। हमारे नगर-कस्बों और सड़कों का भी 50 से 200 गुना विस्तार कृषि भूमि पर ही हुआ है। ऊर्जा प्रदेश के नाम पर लगातार हमारी जमीनें छीनी जो रही हैं। अकेले टिहरी बांध परियोजना हमारी 1.50 कृषि भूमि को लील गई। अभी पंचेश्वर जैसे विनाशकारी बांध से इतनी ही भूमि लीलने वाली है। इसके अलावा 14 राष्ट्रीय पार्कों और वन विहारों का निर्माण और विस्तार कर सरकार सैकडों गांवों को उनकी जमीन से बेदखल करने की तैयारी में है। इस प्रकार पूरे पर्वतीय क्षेत्र में कृषि योग्य भूमि केवल 4 प्रतिशत बची है। इससे जमीनों के सवाल को समझा जा सकता है।
उत्तराखंड में जमीनों को लेकर जो संशोधित कानून आया है उसे समझा जाना चाहिये। उसको लाने की मंशा को भी और उसके दुष्परिणामों को भी। मुख्यमंत्री ने इस कानून को लाने के पीछे जो कारण बताये हैं, वह यह समझने के लिये काफी हैं कि सत्ता में बैठे लोग अपने राज्य को कितना कम जानते हैं। यह भी कि उनके पास अपने लोगों के लिये नीतियां बनाने की सोच कितनी कमजोर है। मुख्यमंत्री ने कहा कि चूंकि पूंजीपति पहाड़ में निवेश करना चाहते हैं, इसलिये वे यहां के भू-कानून में संशोधन कर रहे हैं। कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि अपनी जनता से पूछने की बजाए उन्होंने उन निवेशकों के मनमुताबिक कानून बनाया जो लोगों को गांव से खदेड़ने के लिये जिम्मेदार हैं। हिमाचल प्रदेश ने सबसे पहला काम अपनी जमीनों को बचाने का किया। उसके बाद उसी जमीन को विकसित करने का काम किया। यही वजह है कि हिमाचल जहां उद्यानों और पर्यटन से परिपूर्ण राज्य है तो वहां कई अच्छे उद्योग भी स्थापित हैं। लेकिन इन सबके लिये उन्होंने खेती और जनता के हितों को केन्द्र में रखा। सिक्किम का उदाहरण हमारे सामने है। सिक्किम को अब हम ‘जैविक प्रदेश’ के रूप में जानते हैं। बारह वर्षो की सरकार और जनता की मेहनत से आज यह प्रदेश देश के कुल जैविक उत्पाद का 65 प्रतिशत उत्पादन करता है। उत्तराखंड में स्थिति बिल्कुल उल्टी है। यहां ‘हर्बल प्रदेश’, ‘आयुष प्रदेश’, ‘ऊर्जा प्रदेश’ आदि लोकलुभावने नारों के बीच उसके नीचे की जमीन ही खिसका दी। जो जगहें पहले से ही फलोत्पादन और कृषि के लिये जानी जाती रही हैं, वहां भी बड़े-बड़े बिल्र्डस का कब्जा हो गया। रामगढ़, मुक्तेश्वर, भवाली, भीमताल, मरचूला, मानीला, धूमाकोट, रामनगर, चिडियानौला, चकौड़ी, धनोल्टी, चंबा से लेकर गंगा का पूरा किनारा यहां तक कि टिहरी बांध के किनारे की सारी जमीनें लगातार लोगों के हाथों से निकल रही हैं। कई जगहें ऐसी हैं जहां एक साथ कई गांवों की जमीनें एकमुश्त बिकी हैं। तराई में उद्योग लगाने के नाम जो सिडकुल रुद्रपुर, सितारगंज, हरिद्वार या सैलाकुडी आदि में स्थापित हुये उन्होंने भी हमारी सोना उगलने वाली जमीनों पर ही कब्जा किया। पंतनगर विश्वविद्यालय और संपूर्णानन्द खुली जेल सितारगंज की हजारों एकड़ जमीन सिडकुल में लगे उद्योगों को औने-पौने दामों पर नाममात्र की लीज पर दे दी गई। आज एक-एक कर वहां स्थापित उद्योग सबसिडी डकार कर अपना बोरिया बिस्तर बांध रहे हैं। सरकार जहां हमारे एनआईटी के लिये जगह नहीं है, वहीं मजखाली के नैनीसार में जिंदल और पोखड़ा में एक निजी विश्वविद्यालय को उदारता से जमीन दे रही है।
राज्य में 2010 में आई आपदा के बाद सरकार ने 373 गांवों को विस्थापन की सूची में रखा था। सरकार उसमें से एक भी गांव को विस्थापित नहीं कर पायी। चमोली जनपद का चाईं गांव 2006 से विस्थापन की राह देख रहा है। सरकार के पास उसे बसाने के लिये एक इंच जमीन नहीं है। अब सरकार पंचेश्वर में एक और विनाशकारी बांध बनाने जा रही है जिसमें 134 गांवों का विस्थापन होना है। अभी ईको सेंसिटिव जोन से भी गंावों के साथ खतरा है। सरकार ने जिला विकास प्राधिकरणों के माध्यम से अब हमारी रिहायशी और व्यावसायिक पुश्तैनी मकानों पर भी अपनी नजर गढ़ा दी है। जमीन ही दुनिया में ऐसी चीज है जिसे बनाया नहीं जा सकता। उत्तराखंड में विभिन्न आपदाओं, भूस्खलनों आदि से भी लगातार जमीन बिखरती जा रही है। जमीन से ही हमारा इतिहास, संस्कृति, साहित्य, भाषा, गीत-संगीत, झोड़ा-चांचरी, ढोल-दमांऊ, जागर, लोक देवता, हमारा परिवेश है। अगर यह नहीं बचेगी तो हम चाहे पहाड़ में रहंे या प्रवास में हमारा अस्तित्व भी नहीं बचेगा। सरकारें लगातार जनविरोधी नीतियों से लोगों को जमीनों से साजिशन अलग कर रही है। इसलिये भूमि कानून के इस संशोधन को व्यापक और दूरगामी परिणामों के रूप मे देखा जाना चाहिये।