विनीता यशस्वी
उत्तराखंड महिला मंच ने जब दिसम्बर 2017 में जब हल्द्वानी में एक विशाल आयोजन किया था उस समय ही यह तय किया गया था कि उत्तराखंड महिला मंच के कुछ लोग समय निकाल कर पंचेश्वर वाले इलाके में जायेंगे ताकि वहाँ की परिस्थितियों को समझा जा सके और बांध के बारे में वहाँ के लोगों के क्या विचार हैं यह भी जान सकें। दो बार यात्रा की पूरी तैयारी हो जाने के बाद इसे कई कारणों से स्थगित करना पड़ा। पर फिर 13 अक्टूबर से 19 अक्टूबर के बीच यात्रा की तारीख तय हो ही गयी। यात्रा की सारी तैयारियां मैंने, माया (चिलवाल) दी ने और उमा भट्ट जी ने मिलकर उमा जी के घर पर ही कीं।
सुबह 7 बजे मैं, उमा जी और माया दी भवाली के लिये निकल गये। स्टेशन पर हमें विदा करने के लिये ‘नैनीताल समाचार’ के सम्पादक राजीव लोचन साह जी, प्रदीप पांडे जी और प्रेम चिलवाल जी भी आये थे। उनकी शुभकामनाओं के साथ हम भवाली के लिये लगी रोडवेज की बस में बैठ गये। बस निकलने पर उमा जी ने मेरा और माया दी का हाथ पकड़ कर कहा- मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा है कि इतनी बार टल जाने के बाद आखिरकार हम यह यात्रा कर रहे हैं। कुछ ही देर में हम भवाली पहुँच गये जहाँ हमें विनीत और ज्योति सनवाल मिल गये। बाद में हमें पता चला कि विनीत जौलजीवी सिर्फ हम लोगों को छोड़ने के लिये ही आ रहा है। इन लोगों के साथ हम अल्मोड़ा की ओर चल पड़े।
अभी ठंडक थी और हम लोग जैकेट पहने हुए थे। अल्मोड़ा का रास्ता कोसी नदी के साथ ही गुजरता है। पर कोसी में अभी ज्यादा पानी नहीं था। यह दीगर बात थी कि बरसात कुछ समय पहले ही खत्म हुई थी। गाड़ी में हम लोगों की आपसी बातचीत यात्रा को नीरस होने से बचा रही थी। उमा मैम ने अपनी पुरानी यात्राओं के अनुभव सुनाये जिन्हें सुन के माहौल खुशनुमा हो गया और यात्रा नीरस होने से बच गयी। अल्मोड़ा पहुंचने तक मौसम गर्म हो गया और अब भूख भी सताने लगी।
आगे चितई में गोलू मंदिर के सामने एक रेस्टोरेंट में हमने आराम से आलू के पराठे खाये। कुछ दूर आगे रेनू दवाइयों के साथ हमारा इंतजार करती मिली। ये दवाइयाँ उसने पंचेश्वर के गाँवों में बाँटने के लिये दीं।
एक मोड़ में विनीत ने गाड़ी पार्क की और वहाँ से एक खड़ंजे में पैदल ऊपर जाकर हम लखु उडियार पहुँच गये। यह स्थान अपने प्रागैतिहासिक भित्ति चित्रों के लिये प्रसिद्ध है। उस समय मनुष्य अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिये इस तरह के चित्रों का सहारा लिया करता था। इन चित्रों को वे गुफाओं की दीवारों पर अपनी आस-पास की चीजों से ही बनाते थे। पर हैरान कर देने वाली बात यह है कि इतनी सदियाँ बीत जाने के बाद भी इन चित्रों के लिये प्रयोग किये गये रंग अभी तक खराब नहीं हुए हैं। परन्तु हां, यदि इन भित्ति चित्रों का अच्छे से रखरखाव नहीं हुआ तो ये जल्दी ही समाप्त हो जायेंगे। मैं ये देख के हैरान थी कि इसके अंदर जाने वाला रास्ता आम है, यानि कि यहाँ कोई भी और कभी भी आ सकता है और अंदर जाकर अगर वह चित्रों को यदि नुकसान भी पहुँचाता है तो कोई रोक-टोक करने वाला नहीं है।
भित्ति चित्रों की स्थिति निराशाजनक है। चित्रों के रंग घिसने लगे हैं। माया दी ने बताया कि वे दो-तीन वर्ष पहले यहाँ आयी थीं, तब इन चित्रों की हालत इतनी खराब नहीं थी। चित्रों को देख कर पहचान पाना कठिन हो रहा था। काफी देर तक इन आड़ी-तिरछी रेखाओं को देखने के बाद समूह में नाचने वाले लोगों का बना एक चित्र समझ में आया। दूसरे चित्र में मछली का शिकार करते हुए एक आदमी का चित्र है, जिसमें लहरदार रेखायें पानी को दिखा रही हैं। माया दी और उमा जी ने भी भित्ति चित्रों के बारे में काफी कुछ बताया। लौटते में माया दी ने कहा- ‘‘देखा ? मैंने कहा था न अंदर जाने से पहले बोर्ड पढ़ लो, नहीं तो कुछ भी समझ में नहीं आयेगा ?’’
अब तक दोपहर हो चुकी थी। गाड़ी के अंदर विनीत ने पहाड़ी गाने लगाये हैं जो हल्की आवाज में गूँज रहे हैं। उमा जी ने कबूतरी देवी के गाने भी दिये, जिन्हें इस यात्रा में सुनना अच्छा लग रहा है। हल्की सी गर्मी होने लगी और हल्के-हल्के नींद के झोंके भी आने लगे। अब हमारे साथ रामगंगा नदी चल रही थी। इस समय नदी कहीं पर पानी से छलकी हुई तो कहीं सूखी धार जैसी नजर आ रही है। मानसून अभी बीता ही है, इसलिये उसके निशान कई जगहों पर दिखायी दे रहे हैं। कहीं छलकती हुई नदी के रूप में तो कहीं हरे-भरे जंगलों के रूप में और कहीं तबाही के रूप में। एक गाँव में कुछ मकानों के ऊपर बरसाती नाले ने अपना कहर ढाया है और सारे मकान तेज पानी के साथ बह आये मलबे की नीचे दबे हुए दिखे। कितना नुकसान हुआ होगा, ये तो गाड़ी में बैठकर कहा नहीं जा सकता, पर नजारा देखने में भयानक है।
उडियारी बैंड पहुँचने से पहले हम रास्ते में एन.जी.ओ. ‘अवनी’ देखने चले गये। उमा जी ने उसके बारे में कहा था- ये लोग अच्छा काम कर रहे हैं और इनके काम को देखा जाना चाहिये। वहाँ जाना फायदेमंद ही रहा। संस्था चलाने वाले अभिषेक और रजनी वहाँ नहीं थे, पर वहाँ काम करने वाले लोगों ने हमें अच्छे से घुमाया। यहाँ ये लोग एक यंत्र से पिरूल से अपनी जरूरत के लायक बिजली बना लेते हैं और बचे हुए सामान का अलग-अलग तरीकों से इस्तेमाल करते हैं। कई योजनायें चल रही हैं, जिससे गाँव वालों को रोजगार मिल रहा है और उनका पलायन रुक रहा है। खास तौर पर महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिये यहाँ काफी काम हुआ है। वाटर हार्वेस्टिंग का इस्तेमाल करने से यहाँ पानी की कमी भी नहीं होती।
बेरीनाग एक छोटा सा, मगर व्यस्त कस्बा है। अब तो एक छोटे शहर में तब्दील हो चुका है। जल्दी ही उडियारी बैंड आ गया। यहाँ शिक्षिका दिव्या पाठक और लक्ष्मी आश्रम की बसंती दीदी हमारा इंतजार कर रहे थे। भूख से बेहाल हो चुके हम लोगों ने उडियारी बैंड के ही एक रैस्टोरेंट में खाना खाया। अमूमन सड़क किनारे के पहाड़ी ढाबों में अच्छा खाना मिल जाता है, पर मेरी उम्मीद से विपरीत यहाँ खाना अच्छा नहीं था। भूख लगी थी, इसलिये किसी तरह खा लिया।
गाड़ी में दो लोग और बढ़ गये हैं, इसलिये बैठने के लिये जगह एडजस्ट करनी पड़ी। परन्तु ज्यादा परेशानी नहीं हुई। विनीत को पांगू तक जाना है, इसलिये अब हमें थोड़ा जल्दी भी है। थल बहुत बड़ी जगह नहीं है, पर अपने एकहथिया शिव मंदिर के लिये प्रसिद्ध है। मगर समय की कमी के कारण इच्छा रहते हुए भी हम लोग मंदिर देखने नहीं जा सके।
अब शाम होने लगी थी और रास्ता भी कठिन हो गया। छोटे-बड़े गाँवों और मोड़दार सड़क के गड्ढों को पार करते हुए हम डीडीहाट पहुँच गये। डीडीहाट आकर ‘खेंचुवा’ न खाया जाये, ऐसा तो हो नहीं सकता था, इसलिये माया दी, जो हमारी कैशियर भी हैं, से खेंचुवा खिलाने की गुजारिश की गयी। मेरी कल्पना में खेंचुवा की यह छवि थी कि इसे खींच के खाना होता होगा। परन्तु खेंचुवा हल्के पीले रंग की गीली सी मिठाई होती है। इसका स्वाद बहुत अच्छा था।
विनीत का अल्टीमेटम हमें मिल चुका था कि अब वह कहीं भी गाड़ी नहीं रोकेगा। इसलिये संकरी पहाड़ी सड़क के आड़े-तिरछे रास्तों पर विनीत के गाड़ी भगाने के बाद हम कई गाँवों के साथ अंगोला और अस्कोट को पार करते हुए जौलजीवी पहुँच गये। अब तक बिल्कुल अंधेरा हो गया था। विनीत ने हमें यहीं उतारा और स्वयं आगे चला गया। रात के अंधेरे में होटल ढूंढने के लिये हम लोगों को खासी परेशानी झेलनी पड़ी। इस कवायद में हमने जौलजीवी का पूरा बाजार घूम लिया। कुछ लड़कों, जो उतनी देर हो जाने पर भी अभी बाजार में ही थे, हमें हमारे होटल तक का रास्ता बताया। जौलजीवी एक पिछड़े गाँव जैसा है। यहाँ कोई सुविधायें नहीं हैं। यह उन जगहों जैसा है, जो कभी-कभार ही पर्यटकों की शक्ल देखता है। ज्यादातर ट्रेकिंग सीजन के दौरान।
यह होटल बिल्कुल भी अच्छा नहीं था, परन्तु यहाँ इससे ज्यादा की उम्मीद भी नहीं की जा सकती है। होटल मालिक ने अपने मकान के नीचे के कुछ कमरों को होटल में बदल दिया है। इन होटलों को मिलम ग्लेशियर या इसी तरह की दूसरी ट्रेकिंग पर आने वाले लोगों के लिये ही बनाया गया है। ये बिल्कुल चलताऊ किस्म के होटल हैं, जिनमें साफ-सफाई को लेकर भी कोई ध्यान नहीं दिया जाता। बस रात गुजारो और आगे चल दो। इस होटल को शायद कोई महिला चलाती है, क्योंकि हमें कमरा दिखाने के लिये वही आयी थी। कमरों में एडजस्ट हो जाने के बाद हम खाना खाने के लिये बाजार में आ गये। अब तक बाजार की हलचल काफी कम हो चुकी थी। नजदीक ही एक होटल खुला हुआ दिखायी दिया।
पहले से ही अस्तव्यस्त रेस्टोरेंट मंद रोशनी में और ज्यादा अस्त-व्यस्त लग रहा है। उसने हमें सब्जी और रोटी बना कर खिला दी और सुबह की चाय और नाश्ते के लिये भी तैयार हो गया। रेस्टोरेंट की हर कुर्सी के नीचे एक खाली शराब की बोतलें यहाँ के हालात बयाँ कर रही थीं। पहाड़ के हजारों परिवार शराब के कारण बर्बाद हो गये हैं।
सोने से पहले हमने अगले दिन की यात्रा के बारे में बातचीत कर एक योजना बनायी। लोगों से क्या बातचीत करेंगे और किस तरह के सवाल पूछे जायेंगे, इसके बारे में तय किया गया। कुछ जनगीतों की भी तैयारी की, मगर वे गाने हम कहीं गा नहीं पाये। उमा जी ने अस्कोट-आराकोट यात्रा की शुरूआत के बारे में भी बताया और अस्कोट-आराकोट यात्रा के दौरान कौन-कौन से गाने गाते थे वह सब सुनाया। सुबह जल्दी ही यात्रा शुरू करने के निश्चय के साथ हम सो गये।
(जारी रहेगा)
घुमक्कड़ी और फोटोग्राफी की शौकीन विनीता यशस्वी नैनीताल समाचार की वैब पत्रिका ‘www.nainitalsamachar.org’ की वैब सम्पादक हैं।