सोचिये, अगर उत्तराखंड का हर किसान लकड़ी के परम्परागत हलों के स्थान पर वी. एल. स्याही हल उपयोग में लाने लगे तो प्रदेश में हर साल लगभग 2 लाख 40 हजार चौड़ी पत्ती वाले पेड़ कटने से बच जायेंगे। पर्यावरण संकट से गुजर रहे प्रदेश, देश व विश्व के लिये यह कितनी बड़ी उपलब्धि होगी ?
सदाबहार बांज वृक्ष पर्यावरण की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा दैनन्दिन जीवन में व्यवहार की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी है। इसकी चैड़ी पत्तियां आक्सीजन का उत्सर्जन कर वायु प्रदूषण को कम कर पर्यावरण संतुलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं और जड़ें भूमि में अत्यन्त गहराई तक गयी होने के कारण भूमि कटाव और भूमि क्षरण को रोकती हैं। बांज की पत्तियों के जमीन में गिर कर सड़ने से उत्पन्न ह्यूमस वर्षा जल को रोक कर उसे भूजल में बदल देता है और बांज वृक्ष की जड़ के चारों ओर घास, लताओं तथा जैव विविधता के लिये एक आश्रय स्थल का निर्माण करता है। सहजीवी वृक्ष होने के कारण बांज अपने इर्द-गिर्द अन्य प्रजातियों के वृक्षों तथा झाड़ियों को उगने में सहायता प्रदान करता है तथा वन्य जीवों के लिये एक आदर्श आश्रय स्थल तैयार करता है।
इसकी लकड़ी मजबूत व टिकाऊ होने के कारण इसके तने तथा शाखाओं का उपयोग हल, नहेड़ व दनेला आदि कृषि उपकरण बनाने में किया जाता है। इसी तरह उतीस वृक्ष के तने का उपयोग जुआ बनाने में किया जाता है। हजारों गांवों के लाखों किसानों द्वारा लम्बे समय से बांज, उतीस, सानड़, फल्यांट आदि चैड़ी पत्ती प्रजाति के वृक्षों तथा घिंघारू आदि महत्वपूर्ण झाड़ियों का उपयोग कृषि उपकरणों के निर्माण हेतु किये जाने से इन महत्वपूर्ण प्रजातियों का लगातार ह्रास हो रहा है। एक अध्ययन के अनुसार उत्तराखण्ड के पर्वतीय जिलों में लगभग 6 लाख 45 हजार परिवार कृषि से जुड़े हैं, जिनके द्वारा प्रति वर्ष दो लाख पैंतालीस हजार चैड़ी पत्ती वाले वृक्षों व झाड़ियों का कटान कृषि उपकरणों के निर्माण के लिये किया जाता है। इस अंधाधुध कटान से वन आधारित नदियों और प्राकृतिक जल स्रोतों पर अत्यन्त बुरा असर पड़ रहा है, जो तेजी से सूख रहे हैं। यह प्रवृत्ति जैव विविधता तथा वन्य जीवों के आहार व आवास के लिये भी घातक हो रही है।
वर्ष 2004-05 में पड़े अभूतपूर्व सूखे से विचलित होकर शीतलाखेत (अल्मोड़ा) क्षेत्र के जागरूक युवाओं द्वारा ‘स्याही देवी विकास समिति (मंच)’ का गठन कर ‘जंगल बचाओ-पानी बचाओ’ अभियान आरम्भ किया गया। धामस, नौला, भाखड़, सल्ला रौतेला, शीतलाखेत, मटीला, खरकिया, सूरी, गड़सारी, सड़का आदि गांवों की महिला मंगल दलों तथा वन विभाग के कर्मचारियों व अधिकारियों के साथ मिलकर दर्जनों बैठकें कर ग्रामीणों को जंगलों के अनियंत्रित व अवैज्ञानिक दोहन के दुष्परिणामों की जानकारी दी गयी, जंगलों मंे गश्त लगा कर कच्चे पेड़ों के कटान पर पाबन्दी लगायी गयी तथा आग से जंगलांे को बचाने के प्रयास किये गये। इन बातचातों में यह बात उभर कर आयी कि जब तक लकड़ी के परम्परागत हल का विकल्प नहीं मिलता है, तब तक बांज आदि के पेड़ों का कटान रुकना मुश्किल होगा। मंच द्वारा विकल्प के रूप में ‘लौह हल’ के विकास के लिये विवेकानन्द पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान अल्मोड़ा, गोविन्द बल्लभ पंत कृषि विश्वविद्यालय पन्तनगर, गोविन्द बल्लभ पन्त पर्यावरण एवं विकास संस्थान अल्मोड़ा आदि को निवेदन भेजे गये, किन्तु तत्काल कहीं से भी कोई मदद नहीं मिली। लम्बे प्रयासों के बाद वर्ष 2011 मंे विवेकानन्द पर्वतीय कृषि अनुुसंधान संस्थान, अल्मोड़ा के निदेशक डाॅ. जे. सी. भट्ट ने इस प्रयास में रुचि लेकर अपने वैज्ञानिक डी. सी. साहू तथा तकनीकी अधिकारी शिव सिंह को धातु निर्मित हल तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी। संस्थान तथा समिति की संयुक्त टीम द्वारा 6 माह की मेहनत के बाद एक प्रोटोटाइप माडल विकसित किया गया, जिसे ‘वी.एल.स्याही लौह हल’ का नाम दिया गया।
अप्रेल 2012 में लोकार्पण के बाद इस हल का व्यावसायिक उत्पादन आरम्भ हुआ, मगर सदियांे से लकड़ी का हल चला रहे किसानों द्वारा सात सौ रुपये में लोहे का हल खरीदने में दिलचस्पी न लेने से पूरी मुहिम में पानी फिरने की संभावना नजर आने लगी। तब समिति द्वारा किसानांे को फ्री में हल बांटने का निर्णय लिया गया। कई दानदाताओं के सहयेाग से विश्व पर्यावरण दिवस 5 जून, 2012 को लगभग 100 हल मुफ्त में किसानों को दिये गये। इसी बीच उत्तराखंड शासन ने भी लौह हल से जंगलों की रक्षा की संभावना को महसूस किया और जिला नवाचार निधि योजना के तहत जनपद अल्मोड़ा के 500 किसानांे को लौह हल देने के उद्देश्य से वी.एल.स्याही लौह हल निर्माण परियोजना को स्वीकृति प्रदान की गई। शीतलाखेत में स्याही देवी विकास समिति द्वारा कार्यशाला का निर्माण आरम्भ किया गया और जनपद अल्मोड़ा के 11 विकास खण्डों में 37 स्थानों पर किसानों के बीच हल का प्रदर्शन किया गया। किसानों द्वारा दिये गये सुझावों के अनुरूप हलों में सुधार कर उन्हें अधिकाधिक उपयोगी बनाया जाता रहा। वर्तमान में अल्मोड़ा, बागेश्वर में लगभग 200, पिथौरागढ़, चमोली, पौड़ी, टिहरी के लगभग 4,000 किसानों द्वारा इस हल का प्रयोग किया जा रहा है। पुराने जहाजों के स्क्रैप से निर्मित इन हलों के प्रयोग से बांज, उतीस, फल्यांट, मेहल आदि महत्वपूर्ण प्रजातियों के 80 से 90 वर्ष की आयु के पेड़ों की रक्षा हो रही है। व्यावहारिक दृष्टि से भी लोहे के ये हल लकड़ी के परम्परागत हलों से बेहतर सिद्ध हो रहे हैं। लकड़ी के हलों की कीमत रु. 1,500 से रु. 3,000 के बीच पड़ती है, जबकि वी. एल. स्याही हल का मूल्य 1,725 रु. रखा गया है। परम्परागत हल अपेक्षाकृत नाजुक हैं और उनकी उम्र औसतन एक से चार वर्ष होती है, जबकि लोहे के हल लगभग 10 वर्ष चल सकते हैं। इनका वजन 12 किलो 300 ग्राम है, जबकि परम्परागत हलों का वजन 15 से 17 किग्रा. के बीच होता है। धातु निर्मित होने के कारण इनमें घर्षण कम है और ये खींचने में कम ताकत लगने के कारण ये बैलों के लिये भी सुविधाजनक हैं।
‘स्याही देवी विकास समिति (मंच)’ द्वारा लगभग एक दशक से चलाये जा रहे प्रयास एक विन्दु तक पहुँचे हैं। मगर अभी बहुत काम होना है। पुरानी आदतों का छूटना आसान नहीं होता। प्रदेश भर के किसानों को वी. एल. स्याही हलों के बारे में जानकारी दी जानी है। दिल्ली निवासी पहाड़प्रेमी चन्दन सिंह डांगी तथा शिव सिंह के प्रयासों से विशेष स्टील से निर्मित लगभग 1,400 फाल बाजार में बिक्री के लिये उपलब्ध हैं।
जनपद अल्मोड़ा में किसानों को हल उपलब्ध कराने में कृषि विभाग तथा वन विभाग का सहयोग मिल रहा है, परन्तु अभी आत्मा, आजीविका, ग्राम्या आदि सरकारी योजनाओं तथा वन पंचायतों के माइक्रो प्लान में वी. एल. स्याही हल को शामिल किया जाना जरूरी है। न्याय पंचायत स्तर पर मौजूद कृषि विभाग के कार्यालयों पर साल भर हलों की उपलब्धता बनाये रखने तथा निर्माण करने वाली संस्थाओं को समय पर भुगतान करने की आवश्यकता है।
सोचिये, अगर उत्तराखंड का हर किसान लकड़ी के परम्परागत हलों के स्थान पर वी. एल. स्याही हल उपयोग में लाने लगे तो प्रदेश में हर साल लगभग 2 लाख 40 हजार चैड़ी पत्ती वाले पेड़ कटने से बच जायेंगे। पर्यावरण संकट से गुजर रहे प्रदेश, देश व विश्व के लिये यह कितनी बड़ी उपलब्धि होगी ?