गुजरे दो-ढ़ाई दशकों से गुजरात की पहचान ‘हिंदुत्व की प्रयोगशाला’ के रूप में रही है। समझ है कि वहां संघ परिवार ने हिंदुत्व के पक्ष में राजनीतिक बहुमत जुटाने के सफल प्रयोग किए और फिर उन्हें सारे देश में आजमाया। 1980 के दशक के आरक्षण विरोधी आंदोलन को हिंदुत्व समर्थक मानस में तब्दील करना और फिर मुसलमानों को निशाने पर रखकर हिंदू आबादी के एक बड़े हिस्से को एक राजनीतिक समुदाय में परिवर्तित करना इस प्रयोग के खास हिस्से रहे। आज नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं, तो वह इन्हीं प्रयोगों की सफलता की बदौलत है।
बहरहाल, अब जबकि गुजरात में विधानसभा चुनाव की बिसात बिछी हुई है, तब वहां एक अलग तरह का प्रयोग होता नज़र आ रहा है। ये सफल हुआ, तो जिस तरह वहां हुए पहले प्रयोग से देश की सियासी सूरत बदल गई, वैसा ही फिर हो सकता है- हालांकि इस बार दिशा और परिणाम दोनों उसके विपरीत होंगे। वैसे तो पृष्ठभूमि पहले से बनने लगी थी, लेकिन एक नए तरह की सियासत के लक्षण इस चुनाव अभियान के दौरान अधिक खुलकर सामने आए हैं। इस संभावित राजनीति को हम चार चेहरों को सामने रखकर समझ सकते हैं। ये हैं- राहुल गांधी, जिग्नेश मेवाणी, अल्पेश ठाकोर और हार्दिक पटेल।
पिछले पांच या उससे अधिक वर्षों के बीच यह संभवतः कोई पहला चुनाव है, जिसमें राहुल गांधी को गंभीरता से लिया जा रहा है। गांधी में जो ऊर्जा, वाक्-पटुता, लोगों से जुड़ने की क्षमता और उद्देश्य भावना नज़र आ रही है, उसे व्यापक रूप से उसी रूप में स्वीकार किया जा रहा है। इससे मृत-प्राय मानी जाने वाली कांग्रेस को टक्कर में समझा जाने लगा है। वैसे कांग्रेस गुजरात में कभी समाप्त-प्राय नहीं थी। सबसे खराब दिनों में भी उसे 38-39 फीसदी वोट मिले। इस रूप में उसकी प्रमुख विपक्षी दल की हैसियत कायम रही। लेकिन भारतीय जनता पार्टी की सफताएं इतनी भव्य थीं कि इस तरफ शायद ही किसी का ध्यान जाता था। मगर इस बार अपने सियासी आधार के साथ नए वर्गों को जोड़ने, सरकार से असंतोष को मुद्दा बनाने और नोटबंदी एवं जीएसटी के कुप्रभावों को केंद्र में रखकर भाजपा के खिलाफ आक्रामक होने का खास जज्बा कांग्रेस और राहुल गांधी ने दिखाया है। इससे कांग्रेस पार्टी न सिर्फ मुकाबले में दिख रही है, बल्कि उलटफेर कर देने की संभावना भी उसने जिंदा रखी है। राहुल के इसी रुख का परिणाम है कि अल्पेश ठाकोर कांग्रेस में शामिल हो गए, जबकि जिग्नेश मेवाणी और हार्दिक पटेल प्रत्यक्ष रूप से उसके साथ ना आने के बावजूद जो कह और कर रहे हैं, उसका मतलब कांग्रेस का समर्थन ही है।
नई राजनीति की संभावना पैदा करने में इन तीनों नवोदित युवा नेताओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। अल्पेश ठाकोर ने अन्य पिछड़े वर्ग यानी ओबीसी कही जाने वाली जातियों में अपनी लोकप्रियता बनाई है। इन तबकों के हितों की वकालत करते हुए वे उनके एक बड़े हिस्से की आकांक्षाओं का प्रतिनिधि बनकर उभरे हैं। सारे देश की तरह गुजरात में भी ओबीसी की जनसंख्या किसी अन्य समुदाय से ज्यादा है। अगर इन जातियों के आधे हिस्से की भी गोलबंदी किसी नेता या पार्टी के इर्द-गिर्द हो, तो चुनावी राजनीति में उसकी स्थिति का मजबूत होना तय है। इस बात को ध्यान में रखें तो अल्पेश का कांग्रेस का शामिल एक अहम घटना नज़र आता है।
यह याद करना कठिन है कि किसी भी राज्य में इसके पहले कितना पहले खास सामाजिक जनाधार वाला कोई युवा नेता कांग्रेस में शामिल हुआ था। शायद सिद्धरमैया वैसा आखिरी चेहरा होंगे। उसके पहले राज्य-स्तरीय जनधार वाले नेता का एक उभार वाई.एस. राजशेखर रेड्डी के रूप में हुआ था। उनकी असमायिक मृत्यु ने अविभाजित आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की जड़ें हिला दीं। गुजरे दशकों में कांग्रेस की सबसे बड़ी मुश्किल ही यही रही है कि विशिष्ठ जनाधार और स्वतंत्र सोच वाले नेताओं के लिए उसके अंदर जगह खत्म हो गई। जब तक ऐसे नेता उससे जुड़ते थे, पार्टी पूरे देश में जन-साधारण की आकांक्षाओं का स्वाभाविक प्रतिनिधित्व करती थी।
कांग्रेस की एक बड़ी कमजोरी यह भी रही कि 1960-70 के दशकों से ओबीसी का सियासी उभार न सिर्फ उसके दायरे के बाहर, बल्कि उसके विरोध में हुआ। इससे मंडल बाद की राजनीति में उसकी जमीन खिसकती चली गई। इस पूरे संदर्भ को ध्यान में रखें तो नए जनाधार के साथ उभरने वाले एक ओबीसी नेता के कांग्रेस शामिल होने की अहमियत खुद साफ हो जाती है। और यही बात जिग्नेश के बारीक रुख के साथ भी है। ये नहीं भूलना चाहिए कि जिग्नेश ने अपनी राजनीति की शुरुआत आम आदमी पार्टी के साथ की। वे ऐसे लोगों के आस-पास रहे, जिन्हें घोर कांग्रेस विरोधी समझा जाता है। लेकिन ताजा बने हालात के बीच जिग्नेश ने अपना स्वतंत्र रुख तय किया है। उन्होंने अपना मकसद “संविधान विरोधी” भाजपा को हराना घोषित किया है। गुजरात में इसका व्यावहिक अर्थ कांग्रेस का समर्थन है। जिग्नेश अपनी मांगों के साथ राहुल गांधी से मिले थे। तब राहुल गांधी ने कहा कि जिग्नेश जो चाहते हैं, उसका 90 फीसदी हिस्सा मांग नहीं, बल्कि संवैधानिक दायित्व है, जो किसी सरकार को निभाना चाहिए। इस तरह राहुल गांधी ने एक नवोदित दलित नेता की सद्भावना प्राप्त की। ध्यानार्थ है कि गुजरे दशकों में कांग्रेस में दलित नेता के नाम पर रिटायर्ड ब्यूरोक्रेट या पैराशूट से उतरे चेहरे आते रहे हैं। बहुजन समाज पार्टी की परिघटना के बाद से दलित राजनीति अपनी स्वतंत्र पहचान को लेकर संवेदनशील रही है।
जिग्नेश के साथ भी ये बात है। लेकिन उनकी खूबी यह है कि समकालीन समाज में वर्गीय एवं जातीय अंतर्विरोधों को वे बखूबी समझते हैं। इस चुनाव में उन्होंने दिखाया है कि वे उसके अनुरूप राजनीतिक लाइन लेने का साहस भी रखते हैं। इससे कांग्रेस के लिए एक बड़ी संभावना खुली है।
हार्दिक पटेल के साथ वह प्रगतिशील आभामंडल नहीं है, जो जिग्नेश या अल्पेश के साथ है। पाटीदार समुदाय के लिए आरक्षण के आंदोलन को उचित ही मराठा, जाट और गूर्जर समुदायों की ऐसी मांग की श्रेणी में रखकर देखा गया है। खासकर मराठा आरक्षण आंदोलन में दलित विरोधी प्रवृत्तियां रही हैं। आरक्षण के साथ-साथ मराठा आंदोलनकारियों ने एससी-एसटी ऐक्ट को रद्द करने की मांग भी उठाई हुई है। इन्हीं रूझानों को देखते हुए दबंग जातियों के ऐसे आंदोलनों को पारंपरिक प्रभुत्व कायम रखने की उनकी कोशिश के रूप में देखा गया है। इसी कारण इन आंदोलनों को प्रतिक्रियावादी कहा गया है। लेकिन हार्दिक पटेल को इस बात का श्रेय देना होगा कि उन्होंने अपने आंदोलन में प्रकट तौर पर ऐसी प्रवृत्ति नहीं उभरने दी। उन्होंने दलित या ओबीसी आरक्षण के खिलाफ कोई मांग नहीं की। सिर्फ यह कहा कि पाटीदारों को आरक्षण मिले।
यही वजह है कि वे आज अल्पेश और जिग्नेश के साथ एक मंच पर खड़े दिखते हैं। इन तीनों ने अपनी अलग-अलग सियासत के बीच मौजूद अंतर्विरोधों को पृष्ठभूमि में रखने का अद्भुत बौद्धिक कौशल दिखाया है। इससे इस सवाल पर ध्यान केंद्रित हुआ है कि पटेल जैसा दबंग समुदाय आखिर आरक्षण क्यों मांग रहा है? इससे ये पहलू चर्चा में आया है कि भूमि आधारित समृद्धि वाले समुदाय पीढ़ी-दर-पीढ़ी जमीन के बंटने और कृषि संकट के कारण मुश्किल में हैं। इस हाल से निकलने का एकमात्र उपाय उन्हें आरक्षण दिख रहा है (जो हो सकता है कि समस्या की सही समझ अथवा वाजिब समाधान ना हो)। लेकिन इससे बात कृषि संकट और बेरोजगारी पर गई है। उससे विकास के बहुचर्चित “गुजरात मॉडल” की पोल खुली है। और इसका गुजरात में मौजूदा चुनावी माहौल बनाने में अहम रोल है।
जिग्नेश, अल्पेश और हार्दिक एक नई सोच के साथ उभरे हैं, इसकी एक मिसाल हार्दिक पटेल की कथित सेक्स सीडी आने के मामले में हुई। इसमें जिग्नेश ने खुलकर हार्दिक का बचाव किया। कहा कि एक बालिग व्यक्ति बंद कमरे में अपने किसी साथी के साथ क्या कर रहा है, यह सार्वजनिक मुद्दा नहीं हो सकता। बल्कि असल मुद्दा उसकी निजता के उल्लंघन का है, जिसके लिए वो लोग दोषी हैं जिन्होंने सीडी जारी की। यह सेक्स और निजता के बारे में नई बनती सोच का प्रतीक है। खुलेआम विवाह के इतर यौन संबंध के अधिकार का समर्थन एक साहसी कदम है। यह इसकी मिसाल है कि युवा नेता ना सिर्फ सामाजिक यथार्थ के मुताबिक अपनी सियासत को स्वरूप दे रहे हैं, बल्कि उनकी राजनीति का नजरिया भी प्रगतिशील है।
दलित, पिछड़ों और नव-उदारवादी आर्थिकी के दौर में बदहाल हो रहे सामाजिक समूहों की आकांक्षाओं को जोड़ते हुए जन-साधारण की राजनीति (plebian politics) को एक नया स्वरूप देने की संभावना बनी है। गुजरात में इस सियासत का केंद्र कांग्रेस बनी है। इससे दशकों के बाद कांग्रेस नई उभरती सामाजिक आकांक्षाओं से जुड़ती नज़र आ रही है। दशकों के बाद पार्टी के पास एक ऐसा नेता दिख रहा है, जो इन आकांक्षाओं को समझते हुए उनसे जुड़ने की इच्छा-शक्ति दिखा रहा है। यही वो प्रयोग है, जो फिलहाल गुजरात में हो रहा है। कांग्रेस इसे ठीक से संभाल पाई, तो यह सारे देश में उसके लिए एक मॉडल बन सकता है। इसे संभालने के लिए जरूरी है कि जन-साधारण की चिंताओं को वह फिर से अपने राजनीतिक कार्यक्रम में जोड़े। अगर ये प्रयोग गुजरात में सफल रहा, तो उससे भारतीय राजनीति को एक नई गति और दिशा मिल सकती है। मगर इसके लिए अनिवार्य है कि जिस संवैधानिक दायित्व की बात राहुल गांधी ने जिग्नेश मेवाणी से की, राष्ट्रीय स्तर पर उसके प्रति वे अपनी पार्टी को संवेदनशील बनाएं। साथ ही इस उपक्रम का अभिन्न हिस्सा यह भी है कि कांग्रेस एक ऐसे विशिष्ट आर्थिक कार्यक्रम के साथ सामने आए, जो यूपीए के दौर में अपनाई गई अधिकार-आधारित विकास नीति से आगे जाता हो। यह ध्यान में रखना चाहिए कि विपक्ष में रहते हुए सत्ता से असंतोष का लाभ उठाना और जनता को लुभाने वाली बातें कहना हमेशा आसान होता है। असल चुनौती यह होती है कि सत्ता में आने के बाद आखिर जन-आकांक्षाओं को कैसे जीवित रखा जाए।
कांग्रेस अगर अपनी नेहरूवादी जड़ों पर गौर करे, उसे प्रेरणा-स्रोत बनाए, तो ऐसे कार्यक्रम को तैयार करना कठिन नहीं होगा। जवाहरलाल नेहरू दक्षिणपंथी और अनुदारवादी तत्वों से भरी कांग्रेस को “समाजवादी ढंग के विकास” के रास्ते पर ले गए थे। आज जबकि देश पर हिंदुत्ववादी ताकतें हावी हैं, संवैधानिक मूल्यों पर प्रत्यक्ष आक्रमण किए जा रहे हैं और सांप्रदायिक एजेंडे के शोर में जन-साधारण के हितों की तिलांजलि दे दी गई है, नेहरू के प्रति देश में एक नई दिलचस्पी पैदा हुई है। नेहरू ने लोकतंत्र, उदारवाद, प्रगतिशील मूल्यों और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के लिए अनुकूल स्थितियां बनाने के जो अति-मानवी प्रयास किए, उसके महत्त्व को आज कहीं बेहतर ढंग से समझा जा रहा है। बुद्धिजीवियों और वाम-उदारवादी रुझान वाले राजनीतिक कार्यकर्ताओं का एक बड़ा हिस्सा में नेहरू की विरासत को संरक्षित की तत्परता दिखा रहा है। इससे भी जन-साधारण की राजनीति के लिए एक नया आधार बन रहा है। मुद्दा इस राजनीति को खड़ा करने और आगे बढ़ाने का है। कहा जा सकता है कि फिलहाल चीजों के इस दिशा में जाने के संकेत मिल रहे हैं। लेकिन यह महज एक शुरुआत या प्रयोग है। यह संभव है कि ये रोशनी बिजली चमकने जैसी होकर रह जाए। ऐसा हुआ, तो उसे एक ऐतिहासिक अवसर को गंवाना कहा जाएगा। स्पष्टतः इस घटनाक्रम का महत्त्व गुजरात के चुनाव तक सीमित नहीं है। दरअसल, वहां हार कर भी कांग्रेस दीर्घकालिक अपनी जीत की रास्ता तैयार कर सकती है, बशर्ते वह जन-साधारण की राजनीति को नेतृत्व देने की दूरदर्शिता एवं क्षमता दिखाए।