भारत के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर एक महिला कर्मचारी द्वारा यौन दुर्व्यवहार के आरोप का मामला उससे बिल्कुल अलग ढंग से देखा जाना चाहिये, जैसा उसे अधिकांश समाचार पत्रों द्वारा दिखाया जा रहा है। यह एक अभूतपूर्व घटना है, जिसमें एक मामूली कर्मचारी ने इतनी बड़ी हस्ती के खिलाफ बोलने का साहस किया है। उसने विस्तार के साथ सप्रमाण अपना पक्ष सर्वोच्च न्यायालय के सभी न्यायाधीशों को भेजा है। अभी कुछ महीनों पहले देश में ‘मी टू’ अभियान चला था, जिसमें अनेक महिलाओं के सार्वजनिक रूप से अपने यौन उत्पीड़न की स्वीकारोक्ति मात्र पर ही राजनीति, पत्रकारिता और मनोरंजन से जुड़े अनेक लोगों की किरकिरी हो गई थी। यहाँ लिखित रूप से अपना पक्ष रखने पर भी कथित रूप से पीड़ित महिला को न्याय देने की कोशिश करने के बदले इसे तत्काल ‘‘न्यायपालिका के खिलाफ एक साजिश करार दिया जा रहा है, ताकि आने वाले मुकदमों की सुनवाई में मुख्य न्यायाधीश पर दबाव बनाया जा सके।’’ यह प्रकरण एक साजिश हो सकता है, इस सम्भावना से किसी को इन्कार नहीं होगा। मगर यह बात एक पारदर्शी न्यायिक प्रक्रिया के बाद साबित की जानी चाहिये, बगैर उसके नहीं। यह प्रकरण तो सर्वोच्च न्यायालय के लिये एक अग्निपरीक्षा सिद्ध हो सकता है, जहाँ पर खरा उतर कर वह अपनी उस विश्वसनीयता को पुनः स्थापित कर सकता है, जो जनवरी 2018 में चार वरिष्ठ न्यायाधीशों द्वारा सामूहिक प्रेस कांफ्रेंस करने के बाद डगमगाने लगी थी। कुछ वर्ष पूर्व राष्ट्रीय हरित ट्रिब्यूनल के मुख्य न्यायाधीश स्वतंत्र कुमार पर भी ऐसा ही एक आरोप लगा था, जिसकी सुनवाई करने वाली खंडपीठ पर रंजन गोगोई भी बैठे थे। वही तरीका उन्हें इस मामले में भी अपनाना चाहिये। एक ताजी खबर के अनुसार पीड़ित महिला ने इस प्रकरण की आन्तरिक जाँच में शामिल होने से इस आधार पर इन्कार कर दिया है कि उन्हें न तो उनके बयानों की प्रति दी जा रही है और न इस सुनवाई की ऑडियो या वीडियो रिकॉर्डिंग की जा रही है।