प्रमोद साह
‘हम लडने रया ,हम लडने रूलो ” गिरीश तिवारी गिर्दा के गीत की यह पंक्तियां , उत्तराखंड समाज के पुनर्निर्माण हेतु हमेशा एक सूत्र वाक्य का कार्य करती हैं । बार-बार यह विश्वास पुख्ता करती हैं कि उत्तराखंड की संघर्ष परंपरा में ही उत्तराखंड का अस्तित्व है । चोटिल वर्तमान को भी अगर कोई दिशा मिलनी है तो वह संघर्ष के रास्ते से ही मिलनी है .
इस लिहाज से उत्तराखंड एक भाग्यशाली भूभाग है कि यहां अलग-अलग कालखंड में संघर्ष की नई-नई जीवंत धाराओं ने जन्म लिया , आजादी की लड़ाई के समय जब देश जालियांवाला बाग कांड के साथ असहयोग आंदोलन के लिए तैयार हो रहा था ,तो उत्तराखंड में जन संघर्ष की परंपरा चरम पर थी और यहां. के बन आन्दोलन और कुली बेगार .ने पूरे देश का ध्यान आकृष्ट किया था । आजादी के बाद भी संघर्ष सै ही उत्तराखंड ने मुकाम हासिल किए ,अपने लिए अलग यूनिवर्सिटी की बात हो या यहां के जल जंगल जमीन को बचाने का प्रश्न हो अथवा बर्बाद होती पीडियो को नशे से बचाने के लिए नशे के खिलाफ लड़ाई हो अथवा उत्तराखंड राज्य निर्माण का संघर्ष हो हर दौर में उत्तराखंड ने संघर्ष से ही अपनी पहचान बनाई और नए मुकाम हासिल किए ।
उत्तराखंड की संघर्ष परंपरा में अगर डॉक्टर शमशेर सिंह बिष्ट के बाद कोई व्यक्तित्व सबसे अधिक प्रभावित करता है । तो वह नाम है श्री त्रैपन सिंह चौहान का , जिनका संघर्ष नारे और तिकड़म बाजी का संघर्ष नही है । जो उत्तराखंड की हर समस्या का समाधान विचार के साथ प्रस्तुत करते रहे हैं । उसके लिए संघर्ष करते हैं । चिपको आंदोलन में सक्रियता के साथ सामाजिक जीवन में प्रवेश करने वाले त्रेपन सिंह कि संघर्ष धारा अधिक समय उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी से जुड़ी रही , राष्ट्रीय पटल पर उन्हें ऊर्जा आजादी बचाओ आंदोलन से मिलती है ।
लेकिन वह सिर्फ लकीर पीटने वाले व्यक्ति नहीं रहे ,बल्कि लगातार विचार और चिंतन के स्तर पर सक्रिय रहकर आंदोलन से ,समाज को नई दिशा देने के लिए भी सक्रिय रहे । उनके प्रकाशित दो उपन्यास ” यमुना ” और ” हे ब्वारी” का ताना बाना उत्तराखंड राज्य के संघर्ष , चुनौतियां और भविष्य में पसर रही हताशा और उनके समाधान पर केंद्रित हैं ।
“सिर्फ विरोध नहीं, बल्कि निर्माण का प्रस्ताव” उनकी प्राथमिकताओं में रहा इसलिए जब बड़े बांधों के विरोध की बात आती है, तो वह उत्तराखंड के लिए समुदाय के लिए उपयोगी छोटे बांधो के विचार को लेकर आते हैं।
वाहिनी के दो प्रोजेक्ट दनया के पास “सरयू हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट ” तथा भिलंगना घाटी में “बाल गंगा हाइड्रो प्रोजेक्ट “जो कि 1 मेगा वाट के विद्युत घर बनने थे ,जिसमें गांव के 150 लोगों की भागीदारी प्रस्तावित थी , प्रत्येक परिवार को लगभग ₹12000 मासिक आय भी होनी थी पर्यावरणविद रवि चोपड़ा जी के सहयोग से यह प्रोजेक्ट धरातल पर उतरने को थे । कि त्रैपन सिंह जी के स्वास्थ्य संबंधित जटिल बाधाएं उत्पन्न हो गयी ।
उत्तराखंड में उपेक्षित हो रहे परंपरागत मातृशक्ति के श्रम और उनके योगदान को रेखांकित करने के लिए उनके द्वारा वर्ष 2015 और 16 में घस्यारी प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया । बड़ी संख्या में ग्रामीण महिलाओं ने भागीदारी की यह प्रतियोगिता ाफी लोकप्रिय हुई , जिसकी ईनाम की राशिफल 1 लाख 51 हजार, ₹21 हजार थी , श्रम शक्ति के सम्मान का यह विचार पूरे उत्तराखंड में फैलना था ।मगर विगत तीन साढे तीन वर्ष से त्रैपन सिंह चौहान गंभीर रूप से बीमार हैं, उनका स्वास्थ्य तेजी से गिर रहा है। वर्तमान में हाथ पांव आदि उनकी शारीरिक तंत्रिकांए काम नहीं कर रही हैं ।लेकिन वह गजब की इच्छाशक्ति के व्यक्ति हैं ।
इस गंभीर हालत में भी उन्होंने अपना रचना कर्म नहीं छोड़ा ,इसके लिए वह स्टीफन हॉकिंस की तरह आंख के इशारों से कंप्यूटर पर अपने लेखन कार्य को जारी रखे हुए थे ।पिछले एक माह से उनका स्वास्थ्य काफी खराब है । वह देहरादून अस्पताल में भर्ती हैं और आने वाले एक साल तक उनके इलाज तथा अन्य जरूरतों पर 25 लाख रुपया का खर्च होना है। त्रेपन सिंह की जवानी और उनका विचार उत्तराखंड निर्माण के लिए समर्पित रहा , आज वह अपने समाज से ही उम्मीद कर सकते हैं ।वह क्राउड फंडिंग के जरिए आपके बीच मदद की गुहार लगा रहे हैं।
नीचे दिए गए लिंक में अपनी सामर्थ्य के अनुसार योगदान कर ,आप न केवल त्रेपन सिंह चौहान की मदद कर रहे हैं ।बल्कि अपनी प्रतिबद्धता उत्तराखंड की संघर्ष परंपराओं के साथ भी व्यक्त कर रहे हैं ।
यह मदद उत्तराखंड की संघर्ष परंपरा को जिंदा रखने की मदद है …
आइए हाथ बढ़ाइए ।
कृपया लिंक खोलें ।
https://milaap.org/fundraisers/support-trepan-singh-chauhan?fbclid=IwAR2QpZZkerEyYpZWnOpdpSsiOsRm49aSo-eJ0ytdJZZDSYAm4yTTCdzbeS0Co