गोविंद पंत ‘राजू’
कोरोना तांडव के ये दिन देश की मीडिया पर भी भारी पड़ रहे हैं। हमारे मीडिया बाजार की अज्ञानता, यू ट्यूब और गूगल जैसे साधनों पर अति निर्भरता, सनसनी और अफवाहों से लोकप्रियता बटोरने की लालसा, पत्रकारों के श्रम और मनुष्य होने के अधिकार की अवहेलना और स्वयं मीडिया घरानों का खोखलापन व मक्कारी सब कुछ कोरोना के चक्कर में पूरी तरह बेपर्दा हो रही है। इसके साथ ही सिकुड़ती कमाई ने भी मीडिया बाजार को बहुत बैचैन कर दिया है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की साख गिरी तो है लेकिन चूँकि यह बिना किसी बाहरी संपर्क के सीधे लोगों के घरों के अंदर पहुँच जाता है और इन दिनों देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा घरों के अंदर ही रहने को मजबूर है इसलिए इस मीडिया को देखने वालों की संख्या अभी भी कम नहीं हो रही, उलटे और बढ़ रही है। लेकिन प्रिंट मीडिया के सबसे बड़े हिस्सेदार यानी दैनिक अखबारों के सामने पाठकों का टोटा पड़ने लगा है। पाठकों की गिरती संख्या ने अखबार मालिकों के होश उड़ा दिए हैं।
देशव्यापी लॉकडाउन के कारण अखबारों की प्रसार संख्या बड़े पैमाने पर प्रभावित हुई है। शहरी इलाकों में ज्यादातर कालोनियों और रेजिडेंसियल सोसाइटियों में बाहरी लोगों का आना जाना प्रतिबंधित हो गया है। इसके कारण वहां अखबार भी नहीं पहुँच पा रहे हैं। फिर बहुत बड़ी संख्या में अन्य लोगों ने भी कोरोना के भय के कारण अखबार मांगने बंद कर दिए हैं। इसके साथ ही ग्रामीण इलाकों में भी अखबारों की मांग कम हुई है और वहां तक अखबार पहुंचने में भी कई दिक्कतें आ रही हैं। शुरू में ज्यादातर अखबारों ने इसे हल्के में लिया और पाठकों को अपने डिजिटल या ई संस्करण पढ़ने को प्रोत्साहित किया।
लेकिन जल्द ही अखबार मालिकों को यह समझ में आ गया कि अगर इस तरह पाठकों को मुद्रित अखबार के बजाय किसी अन्य तरीके से अखबार पढ़ने की आदत बन गयी तो छपे हुए अखबारों के लिए पाठकों की कमी एक अंतहीन समस्या बन जायेगी। अखबार मालिक अच्छी तरह जानते हैं कि जिस तरह के विज्ञापनों से उनके मुद्रित अखबार भरे रहते हैं वे उनके हाथ तभी तक लग सकते हैं जब तक कि अखबार पाठकों के हाथ में पहुँचता रहे और वे अपनी प्रसार संख्या के बारे में बड़े बड़े दावे करते रह सकें। जाहिर है कि ऐसी स्थिति में डिजिटल या ई संस्करण उनके बजरी हिट साधने के काम नहीं आ सकते थे। वे सहायक तो हो सकते थे मगर फ्लेगशिप का काम नहीं कर सकते।
इसके बाद अखबार मालिकों की रणनीति बदली। अब वे येन केन प्रकारेण यह स्थापित करने में जुट गए हैं कि चाहे कुछ भी हो जाए मगर अखबार किसी भी दशा में कोरोना वायरस के संवाहक या बीमारी को फ़ैलाने में मददगार नहीं हो सकते। इसके लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाये जा रहे हैं। तमाम नेताओं, विज्ञानियों, सामाजिक हस्तियों से लेकर डाक्टरों के हाथों में अपना-अपना अखबार पकड़ा के तस्वीरें खींच कर छपवाई जा रही हैं कि अखबार के जरिये कोरोना फैलने का किसी भी तरह का कोई खतरा नहीं है। डाक्टरों के मुंह से कहलवाया जा रहा है कि ”कुछ लोग भ्रम फैला रहे हैं कि अखबार से कोरोना हो सकता है। लेकिन ऐसा नहीं है। समाचार पत्र कई प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद सैनिटाईज भी किये जा रहे हैं।
शोध संस्थानों ने भी दावा किया है कि अखबार पूरी तरह सुरक्षित हैं। इनसे कोरोना वाइरस फैलने का कोई मामला अभी तक सामने नहीं आया है।” अखबारों को कोरोना सुरक्षित साबित करने की होड़ में कई बार ऐसे विशेषज्ञों के मुंह से अखबार को पूर्णतः सुरक्षित बताने का दावा तक करवा दिया गया है कि जो विशेषज्ञ एक दो दिन पहले उसी अखबार में पाठकों को ‘घर में लाने से पहले दूध की थैलियों को कोरोना वाइरस से सुरक्षित कैसे करें अथवा लॉकडाउन में सब्जियां कैसे घर लाएं ‘जैसे ज्ञान बाँट चुके थे। कुछ बड़े कहलाने वाले अखबारों तो बाकायदा मुखपन्ने में सम्पादकीय अंदाज में यह बटन भी शुरू कर दिया है कि “अखबार पढ़ने से कोरोना वायरस के संक्रमण की आशंका गलत है। अखबार या किसी भी कागज़ से कोरोना के फैलने का कोई प्रमाण नहीं मिला है। विशेषज्ञ भी इसकी पुष्टि लगातार कर रहे हैं।” इस बॉक्स नुमा सम्पादकीय के नीचे अक्सर विस्तृत खबर फलां पेज पर जैसी टिप्पणी भी होती है जहां विस्तार से कई बड़े कहे जाने वाले लोग अखबार को कोरोना फ्री घोषित करने के लिए अपनी तस्वीरों के साथ पिले पड़े होते हैं। जाहिर है छपास और दिखास के भूखे इन कथित बड़े लोगों को इस काम के लिए राजी करने में अखबारों को कोई खास मेहनत भी नहीं करनी पड़ रही। इन अखबारों में अब, कुछ दिन पहले तक छपने वाली ‘सावधान नोटों के जरिये भी आ सकता है कोरोना संक्रमण’ जैसी ख़बरें दिखना भी बंद हो गयी हैं।
बहरहाल लोगों के मन में इस बात को लेकर आशंकाएं बनी हुई हैं कि छपने के बाद कई वाहनों और कई हाथों से होकर उन तक पहुँचने वाला अखबार वाकई सुरक्षित है भी कि नहीं इसलिए उस पर किसी दलील का कोई खास असर होता नहीं दिख रहा। मोहल्लों में जहाँ एक ही अखबार कई कई लोगों के बीच सार्वजानिक माल की तरह बंटते हुए पढ़ा जाता है वहां भी अखबारों का आकर्षण और जरुरत कम हो गयी है। अखबार मालिकों को इस बात की भी चिंता सताने लगी है कि वे विज्ञापनों की गिरती संख्या से कमाई में लग रही सेंध से खुद को कैसे उबारें ? इसलिए फौरी तौर पर उन्होंने अखबारों के पन्ने आधे से भी कम कर दिए हैं। हालांकि खुद की चिंता में दुबले होते जा रहे अखबार मालिकों को पाठकों के हित की जरा भी परवाह नहीं है और पहले से आधे पृष्ठों वाले अखबार का उसे अभी भी पहले जितना ही दाम देना पड़ रहा है जबकि लॉकडाउन के चलते तमाम तरह की सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, व्यापारिक और खेल सम्बन्धी गतिविधियां ठप हो जाने से अखबारों में ख़बरों का भी अकाल हो गया है। कोरोना पर जो ज्ञान अखबार सुबह परोसते हैं वह सोशल मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया पहले ही बाँट चुका होता है। ऐसे में यह भी असंभव नहीं दीखता कि कोरोना का यह संक्रमण कहीं अख़बार नाम की पहचान को ही संक्रमित न कर दे।