अरुण कुकसाल
गुरु भवन, पौड़ी के ललित कोठियाल [incor]जी तुम्हें गए आज एक साल हो गया है। ये हमें मालूम था कि तुम कब-कहां चले जाते थे किसी को खबर भी नहीं होती थी। वैसे, तुम बताते भी तो किसको। दुनियादारी के झंझट में तुम कभी फंसे भी तो नहीं। इसीलिए यार, तुम ताउम्र एकदम खरे इंसान रहे।
ललित किस हद तक समाज के लिए समर्पित था यह उसके जाने के बाद महसूस हो रहा है। सामाजिकता की चाह ने उसकी नितांत व्यक्तिगत जिंदगी को उभरने ही नहीं दिया। मित्रों के लिए वह बस, एल. मोहन कोठियाल था। वह व्यक्ति जिसका हर पल समाज के लिए था। उससे कहकर हर मित्र निश्चित हो जाता था कि ललित है तो यह कार्य और कार्यक्रम समय पर हो ही जायेगा। अपने घर-परिवार की गठरी उसने कभी खोली ही नहीं। और हम मित्रगण भी इतने स्वार्थी कि इस बारे में उससे कभी पूछा तक नहीं। अब पता चल रहा है कि वह निजी स्वास्थ्य की दिक्कतों से गुजर रहा था। परन्तु उसने इसे कभी जाहिर नहीं होने दिया। जैसे-तैसे करके वह गिरते स्वास्थ्य पर नियंत्रण रखते हुए सामाजिक सरोकारों के कार्यों में पूर्णतया सक्रिय था।
मूलतः मैठाणा गांव, चमोली (गढ़वाल) के रहने वाले स्वर्गीय वासवानंद कोठियाल और श्रीमती कांति कोठियाल के जेष्ठ पुत्र ललित का जन्म 10 अप्रैल, 1959 को पुरानी टिहरी नगर में हुआ था। पुरानी टिहरी में ललित की ननिहाल थी। उनके पिता पचास से सत्तर के दशक तक उद्योग विभाग, पौड़ी में नौकरी में कार्यरत रहे। अतः पौड़ी नगर में ही ललित की संपूर्ण शिक्षा-दीक्षा सम्पन्न हुई थी। मैसमोर से इंटर और गढ़वाल विश्वविद्यालय, पौड़ी कैम्पस से बीएससी करने के बाद अन्नामलाई विश्वविद्यालय, चैन्नई से भौतिकी विषय से उसने एमएससी किया। उच्च शिक्षा हासिल करने बाद ललित ने जीवकोपार्जन के अन्य अवसरों तिलांजलि देते हुए स्वेच्छा से स्वतंत्र पत्रकारिता और लेखन को अपनाया था। विज्ञान और इतिहास लेखन उनका प्रिय विषय था। यह भी महत्वपूर्ण है कि मां-पिता को अल्प आयु में ही खोने वाले ललित कोठियाल ने जीवन में सब कुछ अपने ही प्रयासों से हासिल किया था। उसी की मेहनत का परिणाम है कि ललित के छोटे भाई नवीन चन्द कोठियाल वर्तमान में एनआईटी, जालन्धर में प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं।
घूमना, पढ़ना और लिखना ललित के प्रतिदिन की आवश्यक खुराक थी। उसकी बातें बस इन्हीं से शुरू होती और इन्हीं पर खत्म होती थी। देश-दुनिया के ज्ञान का वह भंडार था। हम मित्रों में विज्ञान और इतिहास लेखन में उसका कोई सानी नहीं था। हमें आश्चर्य होता कि फिजिक्स का विद्यार्थी होते हुए ऐतिहासिक जानकारियों पर उसकी पकड़ हमेशा पुख्ता रहती। और ऐसा इसलिए संभव था कि वह साल के अधिकांश महीने देशाटन में बिताता था। देश का कोना-कोना उसने अकेले ही नाप लिया था। वह कब-कहां चला जाय, इसकी खबर किसी को नहीं रहती थी। महीनों बाद उसके लेखों से पता चलता कि वह फलां जगह की घुम्मकड़ी में मस्त था। तमाम जगहों की घुम्मकड़ी करते हुए वह अध्ययन में भी मशगूल रहता। उसको जानने वाले उसे इनसाइक्लोपीडिया मानते थे। लिखने में कहीं कोई अटका तो तुरंत मित्र लोग उससे संम्पर्क करके अपनी जानकारियों को दुरस्त करते थे। विज्ञान प्रगति, सांइस डाइजेस्ट, सांइस टुडे, आविष्कार, योजना, कुरूक्षेत्र आदि प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में वह नियमित लिखता था। उत्तराखंड से विज्ञान विषयों पर लिखने वाला वह चुनिंदा लेखकों में शामिल था।
शांत, शालीन और संकोच उसके व्यक्तित्व के अभिन्न अंग थे। उसे कभी गुस्सा करते हुए किसी ने भी नहीं देखा होगा। मित्रों की उलाहना को भी वह सहजता से स्वीकार करता था। उमेश डोभाल स्मृति ट्रस्ट का वह सचिव से बड़कर पूरी धुरी था। इस ट्रस्ट की जीवंतता को बनाये रखने में उसके अमूल्य योगदान को हर कोई जानता-समझता था। पौड़ी से शुरू होने वाले हर आन्दोलन में उसकी सक्रिय और अग्रणी भूमिका रहती थी। परन्तु मंच, भाषण और अखबारों में नाम छापने की प्रवृत्ति उस पर कभी नहीं दिखाई देती थी। चुपचाप काम करते रहने पर वह विश्वास करता था। उमेश डोभाल आन्दोलन के शुरूवाती सूत्रधारों में वह शामिल था। प्रलोभनों और धमकियों से बे-असर होकर वह इस आन्दोलन में राजू रावत, औंकार बहुगुणा आदि साथियों के साथ मजबूती से सक्रिय रहा था।
ललित भाई का लेखन व्यावसायिक न होकर प्रयोगधर्मी के रूप में सामने आया है। अबूझे और अपरिचित विषयों पर खूब मेहनत करके वह नयी जानकारियां सामने लाता था। विज्ञान का वह ज्ञाता था तो इतिहास उसकी अभिरूचि का विषय था। इसीलिए उसके लेखन में हर जगह तथ्य, तर्क और प्रमाण की मौजूदगी रहती थी। उत्तराखंड के युवा लेखकों को उभारने और उनके मार्गदर्शन के लिए ‘क्रियेटिव मीडिया ग्रुप’ का गठन वर्ष-1998 में ललित की पहल पर ही हुआ था। ‘क्रियेटिव मीडिया ग्रुप’ के बैनर तले ललित के मुख्य संपादन में ‘पौड़ी कल, आज और कल’ पर केन्द्रित पुस्तक ‘सफ़रनामा’ प्रकाशित हुई थी। यह पुस्तक पौड़ी नगर पर महत्वपूर्ण संदर्भ साहित्य के रूप में लोकप्रिय है। इसी ग्रुप के माध्यम से और ललित कोठियाल के ही संपादन में उत्तराखंड में स्वावलम्बन के अभिनव प्रयासों पर आधारित ‘मंथन’ (सन्-2002) और ‘पहल’ (वर्ष-2004) पुस्तकों का प्रकाशन किया गया था। उसकी कोशिश थी कि स्वावलम्बन के क्षेत्र में जो भी सफल प्रयोग और प्रयास हों उसका डाक्यूमेंटेशन करके उसे व्यापकता प्रदान की जानी चाहिए। ललित भाई ‘एक थी टिहरी’ पुस्तक पर पिछले 15 वर्षों से काम कर रहे थे। उनका प्रयास था कि डूबी टिहरी के महत्वपूर्ण पक्षों और अनछुये पहलुओं पर एक प्रमाणिक और बेहतरीन शोधपरख पुस्तक तैयार की जाए। यह कार्य लगभग पूरा होने को ही था। पर नियति को कुछ और ही मंजूर था। मित्रों, अब यह कार्य कैसे पूरा होगा इस विचार किया जाना चाहिए।
मित्र, ललित के साथ 30 वर्ष याराना रहा। इस दौरान कई यात्राओं, सेमिनारों, बैठकों, जलूसों में हम बगलगीर रहे। ‘ललित भाई’ तुम शादी क्यों नहीं करते हो बताओ तो सही। यह कहकर मैं उसे समझाता ही नहीं धमकाता भी था। उत्तर में वह हल्का सा मुस्कराता, पर मानने को तैयार नहीं होता। हम कई मुद्दों पर असहमत होते पर फिर भी साथ-साथ रहने का कोई भी अवसर नहीं छोड़ते थे। इस बार के उमेश डोभाल समारोह में रानीखेत जाना-आना एक यादगार यात्रा रही थी। ललित के साथ यात्रा करना माने जिस जगह को आप देख रहे हैं उसके इतिहास को भी पूरी तरह जीवंत जानना और देखना भी होता था। संयोग देखिए मुझे और सीताराम बहुगुणा को पारिवारिक कार्य से विगत 26 सितम्बर को ‘हरियालीसैंण’ जाना था। ललित भाई को पता चला तो वह भी जाने को तैयार हो गया। चढ़ाई में पैदल चलने में उसे दिक्कत होती है यह जानते हुए भी वह पूरे जोश-खरोश के साथ हमारे साथ खूब पैदल चला। यात्रा में फोटो खींचना उसका परम शौक था। लिहाजा पौड़ी से ही फोटो खींचने में वह मस्त हो गया था। उस दिन की ललित, सीताराम बहुगुणा और मेरे गलबहियां डाली कई फोटो अभी भी उसके कैमरे में चुपचाप पड़ी होगीं। ‘हरियाली सैंण’ से आने के बाद ‘रीजनल रिपोर्टर’ के दशाब्दी समारोह की तैयारी के लिए 29 सितम्बर को ‘ज्ञानलोक’ श्रीनगर में देर रात तक हम आपसी चुहल-बाजी करते रहे। सीताराम ने पूछा ‘भाईसहाब, इस बार आपका जन्मदिन धूमधाम से मनाया जायेगा’। वह बोला ‘वो तो चला गया, अब कहां मना पाओगे’। और वाकई वो चला गया, जन्मदिन अब उसका रीता ही रहेगा।
इस बहते जीवन में हम इस भ्रम में रहते हैं कि अपने मित्रों को बेहतर जानते हैं। उनके कष्टों और दुःखों को हम बखूबी समझते हैं। पर यह ख्याल वास्तविकता से कितना दूर है इसका आभास मित्र ललित ने हमें करा दिया है। सच तो यह है कि अपने परम मित्रों को भी हम अपने स्वार्थी आइने में ही देखते हैं। जो हमें उनमें अच्छा और उपयोगी लगता है उसी को हम उससे खींचते चले जाते हैं। मित्रों के तन-मन के एकाकीपन और वेदना पर हमारी नज़र जाती ही नहीं है। ललित के गिरते स्वास्थ्य को हम समय रहते समझ जाते तो आज इस अनहोनी पर हमें विलाप क्यों करना पड़ता।
ललित ने दुनिया को अलविदा कहा। पर उसके सामाजिक काम और योगदान कभी अलविदा नहीं हो सकते हैं। वो हमारे साथ हमेशा रहेगें, यादों में ही