बी.आर.पंत
मध्य एशिया में संसार की छत कही जाने वाली पामीर की गांठ से दक्षिण पूर्व की ओर सम्पीडन की ताकत से लहराता अनेक श्रृखंलाओं वाला हिमालय उत्तरी भारत, नेपाल एवं भूटान को अपने में समाहित करते उत्तर – पूर्व में नामचा – बरूआ तक फैला है यद्यपि इसकी भी कुछ श्रृंखलाए तिब्बत, चीन आदि से होती हुई दक्षिण पूर्वी देशों तक फैली हैं, यहाँ हम भारतीय हिमालय की बात करते है क्योंकि इस क्षेत्र से भारत की जीवन दायिनी नदियों का जन्म होता है, उपजाऊ मैदानों के निर्माण के लिए जीवाष्म युक्त मिटृ उपलब्ध कराई जाती है इतना ही नहीं हिमालय भारत की जलवायु को भी निर्धारित करता है, हिमालय एवं उससे प्रवाहित होने वाली नदियों से निर्मित पूर्वी भारत से पश्चिमी भारत तक विस्तृत मैदानों में भारत की दो तिहाई आबादी जीवीकापार्जन करती है। इतने महत्वपूर्ण क्षेत्र में यदि किसी भी प्रकार की प्राकृतिक या मानवकृत हलचल या गतिविधियां सम्पादित होती हैं जो क्षेत्र के जन्म से नवीनतम, परिस्थितिकीय दृष्टि से नाजुक एवं संरचनात्मकता दृष्टि से अत्यन्त कमजोर या सम्वेदनशील है। इसके सतत विकास हेतु चिन्तित होकर गम्भीर चिन्तन करना हिमालय वासियों के लिए बहुत जरूरी है। सागरीय अवसाद से निर्मित विभिन्न चरणों में उपस्थित भारतीय हिमालय में अनेकों छोटी बड़ी सक्रिय भ्रंश एवं दरारें हैं। जो विध्वंसआत्मक विर्वतनिक घटनाओं को प्रोत्साहित करती हैं।
वैसे तो पृथ्वी का प्रत्येक हिस्सा हमेशा कुछ न कुछ सक्रिय रहता है परन्तु हिमालय का जन्म तो 5-6 करोड़ वर्ष पूर्व ही हुआ था इसलिये सबसे ज्यादा सक्रिय है और अभी भी ऊँचा उठ रहा है। एक अध्ययन के अनुसार वर्ष 2003 में एवेरेस्ट की ऊंचाई 8848 से 8850 मीटर तक गणना की गई थी। हिमालय का प्राकृतिक रूप से टूटने, पिघलने, बहने एवं पुनः निर्माण का इतिहास इस के उत्थान से ही है, पहले मानवीय हस्तक्षेप नहीं था या मानवीय गतिविधियां सीमित होने के कारण प्राकृतिक आपदाओं की विभीषिका भी कम ही थी। इन आपदाओं से कभी वसासतों के लिये जमीन दी तो कभी वसासतों को उजाड़ दिया। हिमालय विशेषकर भूकम्प, मिट्टी कटाव, हिमस्खलन, बादलों का फटना, दावानल, भूस्खलन आदि स्थान विशेष प्रकार की आपदाओं से त्रस्त रहा है। हिमालय में इन प्राकृतिक रूपों के परिवर्तन के कारण जलवायु में भी परिवर्तन आ रहे हैं जिससे मनुष्य की गतिविधियां भी प्रभावित हो रही है। लगभग 5 लाख वर्ग किमी क्षेत्र में फैले सबसे विरलतम क्षेत्रों में गिना जाने वाले भारतीय हिमालय में आज लगभग 5 करोड़ से अधिक आबादी रहती है। आबादी के अनुरूप वसासतों के फैलाव के कारण भवनों, सड़कों, पुलों, सुरंगों, खनन क्षेत्रों, खेतों आदि का विस्तार हुआ, जिससे प्राकृतिक आपदाओं के साथ-2 मानवीय हस्तक्षेप जन्य आपदाओं में भी वृद्धि हुई। इनमें कई आपदाऐं एक दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है, पहले इनमें प्राकृतिक वृद्धि होती थी आज जानबूझ अति मानवीय हस्तक्षेप के द्वारा होती हैं।
भारतीय हिमालय से आये दिन भूकम्प आते हैं। बड़े विनाशकारी भूकम्पों में 1555 में 7.6 क्षमता वाला श्रीनगर कश्मीर का भूकम्प, वर्ष 1713 में अरूणांचल की सीमा पर आये भूकम्प, 1751 में 7 पैमाने पर आये सतलज के उपरी क्षेत्र में आये भूकम्प, 1 सितम्बर 1803 का 7.5 पैमाने पर आये गढ़वाल भूकम्प मुख्य है।
इनके साथ 12 जून 1897 का असम भूकम्प, 4 अप्रैल 1905 का कांगड़ा भूकम्प, 8 जुलाई 1918 का असम भूकम्प, 1934 का बिहार नेपाल, भूकम्प, 5 अगस्त 1950 का असम-अरूणाचल भूकम्प, 29 जुलाई 1980 का धारचूला बजांग, 20 अक्टूबर 1991 का उत्तरकाशी, 29 मार्च 1999 का चमोली, 8 अक्टूबर 2005 का कश्मीर तथा 18 सितम्बर 2011 का सिक्किम के भूकम्प को सम्मिलित किया जाय तो एक निश्चित क्रम बन जाता है, उत्तराखंड का सन्दर्भ लें तो यहां पर आये हुए 1505, 1751, 1803, 1817, 1905, 1980, 1991 तथा 1999 का भूकम्प महत्वपूर्ण है जिन्होंने उत्तराखंड में अनेक प्रकार से विनाशलीलाओं का इतिहास लिखा है, इन भूकम्पों के अध्ययन से स्पष्ट है कि ये भूकम्प मुख्यतः मुख्य केन्द्रीय एवं मुख्य सीमान्त भ्रंशों के सहारे ही आये है, अर्थात भ्रंश एवं दरारों के क्षेत्र भूगर्भिक रूप अत्यन्त कमजोर हैं, जिनके सहारे भूगर्भ में जमा उर्जा कम्पन एवं विस्फोट के साथ बाहर निकलती हैं। उसके आस-पास के क्षेत्र में अपार धन एवं मानव को नुकशान पहुचता है और हिमालय के जिन क्षेत्रों में भूकम्प कुछ दशकों से नहीं आये है सैस्मिक गैप बन जाते हैं। वही संचित उर्जा का 8 पैमाने के अधिक के भूकम्प ही बाहर निकलती हैं अर्थात उन क्षेत्रों में विनाशनकारी महा भूकम्प अवश्यभावी हैं। भूस्खलन भी हिमालय की आपदाओं का ही हिस्सा है। यह भूगर्भीय संरचना, जलवायु गतिविधियों एवं चट्टानों में रासायनिक प्रक्रियाओं का परिणाम होता है प्राकृतिक होने से साथ-2 मानवीय गतिविधियों का प्रभाव भी रहता है। कभी-2 घने वनों में भी भूस्खलन की घटनाएं घटित हो जाती है। हिमालय के पश्चिम में कश्मीर से पूर्वोतर के राज्यों तक राष्ट्रीय राजमार्गों एवं अन्य क्षेत्रों में भूस्खलन की घटनाएं होती रहती हैं जिसमें हजारों टन मिट्टी बह जाती है। अधिकांश भूस्खलन की घटनाएं छोटे-बड़े भूकम्पों के कारण ही होती हैं। अनेकों भूस्खलनों से नदियों का बहाव रुकने से कृत्रिम जलाशयों का निर्माण हो जाता है और उनके ध्वस्त होने से भंयकर विनाशकारी बाढ़ों का जन्म होता है, उत्तराखंड में 27 जुलाई 1961 का डडुवा, 15 अगस्त 1977 तथा 1979 जगथान, तवाघाट 16-17 अगस्त 1979 कौन्था, 22 जुलाई 1983 कर्मी, 18-19 अगस्त, 1998 का मालपा, अगस्त 1995 बघर, 2002 का बलाण, 2004 का वरूणावत, 2009 कालझेकला, 2010, 2013, 2020 एवं 2021 के बहुत सारे भूस्खलनों के बारे में बात की जा सकती है, हिमालय में सड़कों के निर्माण ने भी कई भूस्खलनों को जन्म दिया, सड़कों के निर्माण से लाखों टन मिट्टी निकली जिससे सैकड़ो जल श्रोतों एवं जंगल दबने के साथ-2 चरागाहों को नुकसान पहुँचा है। उत्तराखंड में इस प्रकार कलियासौड़, लामबगड़, चल्थी, दो गांव, रातीघाट, टोटाम, दियाकोट, नारायणबगड, मालपा आदि भूस्खलन प्रमुखता से चर्चित रहे हैं।
भागीरथी घाटी में कई भूस्खलनों ने नदी मार्गों में अवरोध उत्पन्न किये जिनसे लम्बी चौड़ी झीलों का निर्माण हुआ इनमें माला- बवाड़ा (1863), गौना (1993, 1970), मुख्य है। भूस्खलनों से निर्मित कृत्रिम बांधों के अचानक टूटने से बहुत बड़ी-2 विनाशकारी बाढ़े आई इनसे अपार जन-धन का नुकसान हुआ। सन् 1967-68 एवं फरवरी 2021 में रैणी के पास ऋषिगंगा में पहले भूस्खलन से बांध बना फिर बांध टूटा बाढ़ आई। 20 जुलाई 1970 में गौना ताल के भूस्खलन से बाढ़ एवं इसी समय रैणी में ऋषिगंगा पर बनी झील के टूटने से आई भयंकर बाढ़ ने अलकनन्दा एवं उसकी सहायक नदी घाटियों में बहुत नुकसान पहुँचाया। 22 जुलाई 1970 को भारत – नेपाल की सीमा पर काली नदी के बाढ़ आई। 1970 में काली तथा गोरी नदियों में बाढ़ का प्रकोप रहा, 1971 में भी अलकनन्दा में बाढ़ आई। तवाघाट में 1977- 1978 में लगातार भूस्खलन हुए, 1978 में भागीरथी की सहायक कनौदिया गाढ़ में भूस्खलन से झील का निर्माण हुआ उसके दो बार टूटने से दो बार बाढ़ आई, जिससे भागीरथी घाटी में अत्यधिक नुकसान पहुँचा।
सन् 2010 में असी गंगा के उपरी भाग में भूस्खलन आये फिर उससे बाढ़ आई जिसका प्रभाव भागीरथी घाटी तक पड़ा, भूगर्भिक संरचना की दृष्टि से उत्पन्न नाजुक एवं संवेदनशील क्षेत्र हिमालय में विकास के नाम बनने वाले सुरंगों, भवनों एवं सड़कों के निर्माण में अथाह विस्फोटकों के प्रयोग भी भूस्खलनों की वृद्धि के कारण बने। बाढ़ एवं भूस्खलनों के पीछे जंगलों का कटाव, अत्यधिक चराई एवं अनिश्चित वर्षा तथा कुछ विर्वतनिक कारण है। इनके अध्ययनों से स्पष्ट होता है कि पर्वतीय क्षेत्रों में नदियां संकरे मार्गों से गुजरती है जहाँ ढाल अधिक होता है। इसमें भूस्खलन आने से नदियों का मार्ग जल्दी बन्द हो जाता है और ऊंचे -लम्बे बांधों/जलाशयों का निर्माण हो जाता है पानी की मात्रा अधिक होने के कारण स्थानीय जल जनित भूगर्भिक गतिविधियों से बांध टूटता है और अपने आगे की घाटी मे तवाही मचाता है। हिमालयी क्षेत्रों में तापमान का बढ़ना, ग्लेशियरों का पिघलना, जल श्रातों का सूखना की घटनाए भी हो रही हैं जिससे अनेक क्षेत्रों में दावानल की घटनाए भी बढ़ गई है।
टूटना, एवं खिसकना, हिमालय की नियति में है प्राकृतिक कारणों पर रोक लगाना तो मनुष्य के हाथ का नहीं है लेकिन बढ़ते मानवीय हस्तक्षेप ने इसके विक्रालता को बढ़ाने में गति प्रदान करने का कार्य किया है। सुरक्षा एवं सुविधाओं को बढ़ाने के नाम होने वाली चौड़ी-चौड़ी सड़कों, सुरंगो, बांधों, भवनों के निर्माण के समय हिमालय की नाजुकता का ध्यान रखना होगा, तात्कालिक जरूरतों को पूरा करने के लिये भविष्य के विनास को नजर अन्दाज करना एक बहुत बड़ी भूल होगी, हमें टिकाऊ विकास के मायने खोजने होंगे, उसको हासिल करने में तरीकों में बदलाव करना होगा, विकास योजनाओं को हिमालयी क्षेत्र के पारिस्थितिकीय एवं संरचना के अनुसार बनाना होगा। यही सम्पूर्ण भारतीय हिमालय का कल होगा अन्यथा आने वाली पीड़ियों को सबसे अधिक नुकसान भुगतना पड़ेगा।