चारू तिवारी
आजकल पहाड़ में एक गीत ‘फ्वां बाग रे’ बहुत हिट हो रहा है। हमारे पत्रकार साथी महिपाल नेगी ने इस गीत से जुड़ी कई महत्वपूर्ण जानकारियां दी। यह गीत लिखा था विशालमणि ने और गाया और संगीतबद्ध किया था चन्द्रसिंह राही जी ने। अब यह गीत नये कलेवर में है। जिस आदमखोर बाघ पर यह गीत बना उसने रुद्रप्रयाग में 125 लोगों को अपना ग्रास बनाया था। इस आदमखोर बाघ को जिम कार्बेट ने मारा। उनकी पुस्तक ‘मैन ईटर आॅफ रुद्रप्रयाग’ में इसका जिक्र है। कल हमारे अग्रज और सुपसिद्ध साहित्यकार देवेश जोशी जी ने भी इस पर एक लंबा लेख लिखा है। गढ़वाल में इस तरह के समसामयिक मुद्दों पर बहुत सारे गीत बने हैं। बाघ पर ‘बद्दियों’ ने भी एक गीत बनाया था। टिड्डियों के आतंक पर भी बद्दियों ने गीत बनाया था।
बाघ
लोगूं कु खेती कु काम नी होये पूरू,
यो निरभागी बाघ होईगे शुरू!
द्वार मोरु पर लै गये तालो,
ये बाघ को मुख कब होलू कालो?
जोग्योंन सुलपा त पिनी गांजो,
ये पापीन मुलक क्रे बांजो!
यो निर्माणी बाघ मारेंद नीच,
क्या क्वीं मर्द नी हमारा बीच?
बैख जनानी छन बबरांदी भौत,
ये पापी बाग क कब होली मौत?
तै डांडा का ऐंच दुगड़ी गौंऊं,
तै गौं वैन बुडया मारे गौ का सौंऊ!
तै बाघन पकड़ी बुड्या की गली,
ब्वारीन पकड़ी बुड्या की नली!
हैका गौं मा जनानी पर मारे धाड़ो,
मैं कू बाड़ी पकौणक करे भाड़ो!
नौना जनान्यों की नी च खैर,
हम बाग की डर नी औंद भैर!
बिराळा देखीक अब लगदी डर,
तुम ढोळा ढक्याणा मैं औंद जर!
रुमसुभ्या बगत कूकर भूक्या,
इना नामी बंधु ओवरा लूक्या।
ओबरा लूक्या रौऊ-सी माछा,
पोटगा मा डैर का नरसिंह नाच्या!
पटवारी हरसिंह सूणद बाघ का हाल,
उठौंद मोच मर्द माई को लाल!
चला भयों बाघ मारण जौला,
बाघ मारीक जनता कू बचैला।
तब तौंन बाघ पंचारी याले सूत,
तू होलू बण को राजा सिंह सपूत!
तू छै सिंह को जायो मैं छौं वीर,
नौ गोली मारीन वैन बाघ का सीर।
अब कुशल मंगल चला भायों घर,
आज मैन मिटैले बाघ की डर।
नौ हात लंबी छ मणस्वागी बाग,
अब ये बाग की मिटी गै लाग!
हिन्दी भावार्थ: दरवाजों पर ताले लग गये हैं। इस बाघ का मुंह कब काला होगा। जोगियों ने सुल्फा और गांजा पीया। इस पापी ने मुल्क उजाड़ दिया। यह अभागा बाघ अब मारा भी नहीं जाता। क्या कोई हमारे बीच मर्द का बच्चा नहीं है। स्त्री-पुरुष बहुत दुखी होते हैं। इस पापी बाघ की कब मौत होगी। उस पहाड़ के ऊपर दुगड़ी गांव है। गाय की कसम वहां उसने एक बूढ़ा मारा है। उसने बूढ़े का गला पकड़ा, बहू ने बूढ़े की टांग खीेंची। फिर भी वह उसे नहीं छुड़ा सकी। दूसरे गांव मंे ंउसने एक स्त्री पर धावा बोला। उसका पति रोकर कहता है कि मेरे पास तो रोटी पकाने का सहारा भी नहीं रहा। बच्चों और स्त्रिायों की खैर नहीं है। हम बाघ की डर से बाहर नहीं निकलते। अब तो बिल्ली को देखकर भी डर लगता है। मेरे ऊपर ओढ़ना डालो, मुझे तो बुखार आता है। गोधूलि के समय कुत्ते भोंकते हैं, तो नामी बंधु भी घर के भीतर छिप जाते हैं, जैसे तालाब की मछलियां। डर से पेट में नरसिंह नाचने लगता है। पटवारी हरसिंह ने बाघ का हाल सुना। वह माई मर्द का चेला अपनी मूंछें खड़ी करता है। चलो भाइयो, बाघ को मारने चलें। बाघ को मारकर जनता को बचायेंगे। तब उन्होंने बाघ को ललकारा। तू वन का राजा है, सिंह सपूत है। तू सिंह का सपूत है तो मैं भी वीर हूं। उसने बाघ के सिर पर नौ गोलियां मारी। अब कुशल मंगल है। चलो भाइयो घर चलो। आज मैंने बाघ का डर मिटा दिया। वह माणस बाघ नौ हाथ लंबा था, अब इस बाघ की लाग मिट गई।
सलौ (टिड्डियों का दल)
सळौ, डारि, ऐ गैना, डालि-बोटी खै गैना।
फसल पात खै गैना, बाजरो खाणो कै गैना।
सळौ डारि डांड्यूं मा, बैठी गैन खाड्यूं मा,
हात झेंकड़ा लीन, सळौ हांकि दीन,
काकी पकाली पळेऊ, काला हकाल मलेऊ।
भैजी हकालू टोपीन, बौऊ हकाली धोतीन।
उड़द गॅथ खै गैना, छूरी सारी कै गैना।
भैर देखा बिजो पट, फसल देखा सफाचट।
पड़ीं च बाल-बच्चैं की रोवा रो,
हे नौनों का बुबा जी, सळौ ऐन सळौ।
हिन्दी भावार्थः फसलों के बारे में भी बेडा गीतों में चिंता झलकती है। एक बेडा गीत में टिड्डियों के दल के हमले का जिक्र है। इसमें टिड्डियों के दल के हमले से फसल के होने वाले नुकसान के बारे में कहा गया है- टिड्डियों का दल आकर पेड़-पौंधो को चट कर गई है। सब फसल-पात चाट गई है और बाजरा खा गई है। टिड्डियों का यह दल आया और खड्डों में बैठ गया है। इसे हाथों में टहनियां लेकर उड़ाया जा रहा है। अब यही काम रह गया है कि चाची घर में खाना बनायेगी और चाचा खेतों से इन टिड्डियों के दल को भगायेंगे। भाई टोपी से तो भाभी अपनी धोती से इन्हें भगायेंगे। ये टिड्डियां उड़द और लोबिया खा गई। खेतों को खाली गर गई। बाहर अंधकार छाया है। फसल चैपट हो गई है। बच्चों का रोना-धोना हो रहा कि पिताजी टिड्डियां आ गई हैं।